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चुनाव के असली मुद्दे

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार [email protected] नाव को ‘लोकतंत्र का महापर्व’ कहा जाता है और विगत कई वर्षों से भारतीय लोकतंत्र लगातार बहस और विमर्श में है. स्टीन लेवित्स्की और डैनिअल जिवलैट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ : व्हॉट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट आवर फ्यूचर’ (2018) में उदाहरण सहित बड़े विस्तार से यह बताया है कि किस […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
नाव को ‘लोकतंत्र का महापर्व’ कहा जाता है और विगत कई वर्षों से भारतीय लोकतंत्र लगातार बहस और विमर्श में है. स्टीन लेवित्स्की और डैनिअल जिवलैट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ : व्हॉट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट आवर फ्यूचर’ (2018) में उदाहरण सहित बड़े विस्तार से यह बताया है कि किस प्रकार लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गयी सरकारें भी लोकतंत्र को समाप्त करती हैं.
यह तभी संभव हो पाता है, जब हमारी लोकतांत्रिक-संवैधानिक संस्थाओं पर प्रहार किया जाता हो, उनकी स्वायत्तता समाप्त की जाती हो और वे अपनी विश्वसनीयता समाप्त कर रही हों. लोकतंत्र में सैद्धांतिक बातें की जाती हैं. हवा-हवाई बातें कुछ क्षणों के लिए हमें रोमांचित-आह्लादित करती हैं, पर महत्व उन जमीनी सच्चाइयों का है, जिनका हमें एक साथ पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामना करना पड़ता है.
चुनाव में कब किन स्थितियों में सामाजिक-आर्थिक मुद्दे गौण होते हैं और धार्मिक मुद्दे प्रमुख? राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों का ऐतिहासिक और समकालीन अध्ययन समाज विज्ञान में भी कम होता है. किसी भी दल विशेष का चुनावी मुद्दा किन अर्थों में दूसरे दलों के चुनावी मुद्दों से भिन्न होता है? क्या मतदाताओं को चुनाव के समय और चुनाव के बाद अपने नेताओं और उनके राजनीतिक दलों से सवाल नहीं पूछना चाहिए? अक्सर नेता वादे करके मुकर जाते हैं, आश्वासन देकर उसे पूरा नहीं कर पाते, जो उनके लिए जितना भी लाभदायक क्यों न हो, जनता और लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है. सामान्य मतदाताओं और उनके परिवार का जीवन जिन मुश्किलों और समस्याओं के बीच गुजरता है, उसके समाधान और निराकरण की पूरी जिम्मेदारी सत्ताधारी राजनीतिक दल की है. चुनाव के असली मुद्दों और नकली मुद्दों में अंतर है.
असली मुद्दे हमारे दैनिक जीवन से, हमारी सामान्य आवश्यकताओं से जुड़े हैं. ये जरूरी मुद्दे हैं, जिनमें शिक्षा, नौकरी, बेरोजगारी, रोजगार की गारंटी, स्वास्थ्य, सुरक्षा और बुनियादी आवश्यकताएं हैं. भ्रष्टाचार का मुद्दा सबसे प्रमुख मुद्दा नहीं बन सकता. कोई भी मतदाता मतदान क्यों करता है? वह अपने जीवन की बेहतरी के लिए मतदान करता है या बदतरी के लिए? प्रदेश की राजधानी में जब जल-संकट हो, पेयजल की कोई सुविधा नहीं हो, तो इसके लिए सरकार, सत्ता-व्यवस्था दोषी है या मतदाता भी?
मतदाताओं की पहली चिंता अपने जीवन को बेहतर बनाने की होती है. वह यह नहीं समझ पाता कि चुनाव के समय ही वह दाता ‘भाग्य विधाता’ और ‘ईश्वर’ की भूमिका में कैसे आ जाता है? मतदान करते समय बटन दबाना अपने भविष्य को किसी को सौंप देना है, नेता-विशेष और दल-विशेष पर विश्वास कायम करना है, पर बार-बार वह ठगा जाता है, उससे वादा-खिलाफी की जाती है और हालात ऐसे बन जाते हैं कि वह सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री किसी से सवाल तक नहीं पूछ सकता.
आतंकवाद और राष्ट्रवाद एक मुद्दा है, पर संप्रति यह देश का प्रमुख मुद्दा नहीं है. राष्ट्रवाद को किसी दल-विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता. जरूरी मुद्दाें से ध्यान हटाने के लिए कुछ गैर जरूरी मुद्दे सामने लाये जाते हैं.
वोट को लेकर अक्सर कई नारे लगाये जाते हैं- ‘लोकतंत्र का यह अधिकार/ वोट न कोई हो बेकार’, ‘लोकतंत्र की सुनो पुकार/ मत खोना अपना अधिकार’, ‘बहकावे में कभी न आना/ सोच-समझ कर बटन दबाना’, ‘न नशे से न नोट से/ किस्मत बदलेगी वोट से’ आदि. मतदाताओं के समक्ष सदैव यह मुश्किल रही है कि वह अपना वोट प्रत्याशी-विशेष या दल-विशेष को दे, जाति-विशेष और धर्म-विशेष को या अन्य किसी को? उसके चयन का आधार क्या हो? उसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा प्रमुख है या नेताओं द्वारा बनाया गया वह नया ‘डिस्कोर्स’, जिसमें वह फंस जाता है. ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ जैसे नारे हमारे जीवन के वास्तविक प्रश्नों से जुड़े नहीं हैं. राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में इसका महत्व था.
ये नारे सत्ता-प्राप्ति के लिए नहीं हैं. चुनाव में धर्म, संप्रदाय और राष्ट्रवाद का मुद्दा असली मुद्दा नहीं है. असली मुद्दा है हर हाथ को रोजगार, हर खेत को पानी, सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य-सुविधा, सबकी सुरक्षा. इसे नजरअंदाज कर देश की सुरक्षा की बात नहीं की जा सकती. चुनाव का संबंध कर्म की राजनीति से है, न कि धर्म की राजनीति से. ‘हिंदुत्व’ से बड़ा प्रश्न ‘बंधुत्व’ का है. मतदाताओं को धर्म, संप्रदाय और जाति में विभाजित कर असली मुद्दे दफना दिये जाते हैं.
बार-बार मतदाताओं का विश्वास घटता गया है. मात्र भाषण से किसी का पेट नहीं भरता. प्रचार-प्रसार हकीकत और वास्तविकता पर कुछ समय के लिए परदा डाल सकता है. मतदाताआें के लिए सर्वाधिक आवश्यक है विवेक-शक्ति और विवेक-चेतना, जो सही-गलत का चयन करती है. जाति-चेतना, धर्म-चेतना हमें खंडित करती है.
हिंदुस्तान की संस्कृति विभाजनकारी, विभेदकारी और विभक्तिवादी नहीं है. सत्तर वर्ष के आजाद भारत में पीने का पानी, अच्छे कपड़े, भोजन, घर, सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य, महिलाओं की सुरक्षा और निर्भीक वातावरण क्यों नहीं हैं? ये सब चुनाव के जरूरी मुद्दे हैं. चुनाव का जरूरी मुद्दा आतंकवाद और राष्ट्रवाद नहीं है. राष्ट्रवाद का मतलब राष्ट्र के लोगों की चिंता और उनकी हिफाजत है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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