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जल एक ज्वलंत मुद्दा बने

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन editor@thebillionpress.org अगले आम चुनाव हमसे अब भी तीन महीने दूर हैं. चुनाव विशेषज्ञ बताते हैं कि आम चुनाव का मुद्दा हमेशा ही अर्थव्यवस्था से संबद्ध हुआ करता है. हाल के केंद्रीय बजट ने किसानों एवं निम्नतर आयकर दाताओं को उदार राहत मुहैया की है, पर केवल वक्त ही यह […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन
editor@thebillionpress.org
अगले आम चुनाव हमसे अब भी तीन महीने दूर हैं. चुनाव विशेषज्ञ बताते हैं कि आम चुनाव का मुद्दा हमेशा ही अर्थव्यवस्था से संबद्ध हुआ करता है. हाल के केंद्रीय बजट ने किसानों एवं निम्नतर आयकर दाताओं को उदार राहत मुहैया की है, पर केवल वक्त ही यह बता सकेगा कि यह कदम सत्तासीन पार्टी को कोई लाभ पहुंचा सकेगा अथवा नहीं.
जीडीपी को लेकर पुनरीक्षित आंकड़ों का निष्कर्ष यह है कि पिछले चार वर्षों ने असाधारण आर्थिक विकास देख कर भारत को विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में एक बना डाला है. किंतु उद्योगों को बैंक ऋण, निजी व्यय तथा निर्यात जैसे अन्य संकेतक इन संख्याओं की पुष्टि नहीं करते. जीडीपी के आंकड़ों पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग अभी स्वयं ही किसी स्वतंत्र सदस्य की उपस्थिति से वंचित है.
जो भी हो, कृषि संकट की वास्तविकता से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं और वाकई यह केंद्रीय चुनावी मुद्दा होगा. ग्रामीण तथा कृषि अर्थव्यवस्थाएं एक-दूजे में गुंथित हैं, जिन्हें अल्पावधि में ही बड़ी नीतिगत तथा राजकोषीय सहायता की जरूरत है.
पर मध्यावधि एवं दीर्घावधि में कृषि संकट का समाधान कृषि के बाहर ही मिल सकता है. यह दूसरी बात है कि चुनाव हमेशा अल्पावधि दृष्टि लेकर होते हैं, जिनमें सारा जोर फौरी उपायों पर होता है.
यही वह बिंदु है, जहां किसानों की सबसे बड़ी चुनौती की चर्चा की जानी चाहिए. पिछले जून से लेकर सितंबर के महीनों तक अखिल भारतीय स्तर पर बारिश में नौ प्रतिशत की कमी रही.
अक्तूबर से दिसंबर के माॅनसून-पश्चात काल के दौरान महाराष्ट्र में यह कमी 44 प्रतिशत की थी. यदि पूरे देश के सभी हिस्सों की बात करें, तो उतर-पश्चिमी भारत में बारिश की कमी 45 प्रतिशत, मध्य भारत में 51 प्रतिशत, दक्षिणी प्रायद्वीप में 36 प्रतिशत एवं पूर्वी तथा पूर्वोत्तर भारत में 51 प्रतिशत रही.
ये सभी आंकड़े भारतीय मौसम विज्ञान प्रभाग के हैं. यह अभी ही साफ हो चुका है कि इस कमी से रबी की फसलों पर बुरा असर पड़ेगा. गेहूं की उपज गिरेगी, जिससे उसकी कीमतें चढ़ सकती हैं. जाहिर है कि किसानों के लिए यह खबर अच्छी ही कही जायेगी, क्योंकि अतीत में उन्हें मूल्यों की गिरावट झेलनी पड़ी है. पर उन सभी क्षेत्रों के लिए, जो सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं, यह परिदृश्य परेशानी का सबब है.
चूंकि अगला माॅनसून अब भी चार महीने दूर है, अतः जलाशयों के जलस्तर को भी देखना होगा, क्योंकि उसके गिरने से न केवल सिंचाई, बल्कि पेयजल आपूर्ति तथा पन-बिजली उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ता है. नर्मदा जलाशय का जल जून के अंत तक नहीं टिक सकेगा. महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में तो अभी से टैंकरों द्वारा पेय जल की ढुलाई शुरू हो गयी है.
जल संकट की प्रतिवर्ष पैदा होनेवाली ऐसी पृष्ठभूमि में किसी भी व्यक्ति को पिछले जून महीने में नीति आयोग द्वारा भारत के जल संकट पर जारी की गयी रिपोर्ट पढ़नी चाहिए, जो यह कहती है कि अगले दो वर्षों में भारत के 21 ऐसे शहरों में, जिनमें प्रत्येक की जनसंख्या दस लाख से ऊपर है, ‘जल समाप्त हो जायेगा.’
इसकी वजह यह है कि उनके भू-जल स्रोत के पुनर्भरण की गति उसके उपयोग से कम है. तथ्य तो यह है कि स्थितियां इससे भी खासी आगे जा चुकी हैं. कपास तथा ईंख जैसी जल पिपासु फसलों की सिंचाई के अतिरिक्त उद्योगों एवं आवासीय उपयोग के लिए नलकूपों का उपयोग सीमा पार कर चुका है.
यह सदमे की ही बात है कि सिंचित कृषि का 60 प्रतिशत तथा पेय जल आपूर्ति का 85 प्रतिशत से भी अधिक भू-जल स्रोत पर ही निर्भर है. विश्व बैंक के अनुसार, भारत भूमि से प्रतिवर्ष 250 घन किलोमीटर जल की निकासी करता है, जो विश्व के वार्षिक भू-जल आपूर्ति का लगभग एक-चौथाई है. नीति आयोग की रिपोर्ट यह भी कहती है कि 60 करोड़ भारतीय उच्च से लेकर आत्यंतिक जल संकट के शिकार हैं, जो उसकी उपलब्धता तथा गुणवत्ता से संबद्ध है. जल प्रदूषण जल वाहित रोग तथा रोकी जा सकनेवाली मौतों की वजह भी है.
जल उपलब्धता में कमी से खाद्य सुरक्षा तथा औद्योगिक उत्पादन भी प्रभावित होता है. फिर जल संकट कई विसंगतियों को भी जन्म दे सकता है, जैसे जब टैंकरों द्वारा लाया जल ऊंची कीमतों पर बिकने लगता है, तो किसान अपने नलकूपों से सिंचाई के बदले उससे निकला जल बेचने में ज्यादा रुचि ले सकते हैं. कई चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों से यह तथ्य निकलकर आ चुका है कि मतदाताओं के लिए पेयजल उपलब्धता एक ऊंची प्राथमिकता है.
जल संकट भारत की प्रमुख चुनौतियों में एक है और इससे पैदा जोखिम ऊंची, समावेशी तथा सतत विकास की संभावनाओं को प्रभावित कर सकती हैं.
इस चुनौती से निबटने हेतु बहुमुखी दृष्टि अपनायी जाने की आवश्यकता है. पहली जरूरत तो यह कि आक्रामक मांग पक्ष प्रबंधन के कदम उठाये जायें, जैसे पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग), वर्षाजल संचय, शून्य-निस्सरण (जीरो-डिस्चार्ज) औद्योगिक उपयोग, आदि. दूसरी, प्रभावित क्षेत्रों के उपज ढांचे से ईंख जैसी जल-पिपासु फसलों को हटाया जाना चाहिए.
तीसरी, जल उपयोग हेतु उचित मूल्य निर्धारण, कृषि उपयोग पर सब्सिडी में कमी लाना और उस हेतु मुफ्त विद्युत आपूर्ति की परंपरा खत्म करना, क्योंकि उससे जरूरत से ज्यादा भू-जल दोहन को बढ़ावा मिलता है. इसके अतिरिक्त, पानी-पंचायत और जल उपयोगकर्ता संघ की स्थापना जैसी अवधारणाओं को लागू कर भू-जल के स्वामित्व तथा प्रबंधन को निजी प्रबंधन से हटाकर सामुदायिक प्रबंधन के अंतर्गत लाया जाना जरूरी होगा.
सच तो यह है कि हमें एक ऐसे कानून की जरूरत है, जो भू-जल को निजी संपत्ति की बजाय सामूहिक संसाधन मानता हो. पांचवी जरूरत अपने नजरिये में फर्क लाते हुए जल सघन उपजों के उदार आयात को अनुमति देते हुए जल समृद्ध विदेशी स्थलों पर कॉरपोरेट कृषि निवेश को बढ़ावा देना होगा.
तात्पर्य यह है कि खाद्य सुरक्षा का मतलब शून्य खाद्य आयात नहीं, बल्कि घरेलू एवं आयात स्रोतों का एक विवेकशील मिश्रण अपनाना है. जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार याद दिलाया करते हैं, जल की प्रत्येक बूंद से अधिक फसल सुनिश्चित की जानी चाहिए. यह संभव है कि अगले आम चुनाव में जल कोई ज्वलंत मुद्दा भले न बने, पर निश्चित रूप से यह अत्यावश्यक राष्ट्रीय चुनौतियों में शामिल तो है ही.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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