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साग की कथा में बथुआ की व्यथा
मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार mithileshray82@gmail.com उस दिन हाट से लौटकर कक्का बथुआ साग की बात लेकर बैठ गये. कह रहे थे कि वहां एक बच्ची बथुआ का साग बेच रही थी- तीस रुपये किलो. जब मैंने उससे यह कहा कि इतना महंगा, तो वह बोली कि अब बथुआ मिलता ही कहां है! कक्का आश्चर्यचकित […]
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
mithileshray82@gmail.com
उस दिन हाट से लौटकर कक्का बथुआ साग की बात लेकर बैठ गये. कह रहे थे कि वहां एक बच्ची बथुआ का साग बेच रही थी- तीस रुपये किलो. जब मैंने उससे यह कहा कि इतना महंगा, तो वह बोली कि अब बथुआ मिलता ही कहां है!
कक्का आश्चर्यचकित नहीं थे. जब मैंने उन्हें बाजार की बात बतायी कि वहां तो पचास-साठ रुपये किलो तक बथुआ मिल रहा है, तो वे दुखी होकर कहने लगे कि आनेवाले वर्षों में यह साग दुर्लभ हो जायेगा. धरती अपने गर्भ में कुछ बीज संभालकर रखती है और जब उपयुक्त मौसम आता है, वह उन बीजों में अंकुर फोड़ती है. अब खेती का जो तरीका अपनाया जा रहा है, वह दिन दूर नहीं जब धरती द्वारा संभालकर रखे गये सारे बीज नष्ट हो जायेंगे. कक्का कह रहे थे कि बथुआ की कथा में भी अब यह व्यथा शामिल हो रही है.
कक्का के अनुसार, सर्दियों के आने से ग्रामीण बाशिंदों को साग का उपहार मिल जाता है और वे उसका भरपूर लाभ उठाते हैं. पूरी सर्दी रोटी या भात के साथ कोई सा भी स्वादिष्ट साग बनाकर खा लिया जाता है और दाल की बचत कर ली जाती है.
लेकिन, अब ज्यादा से ज्यादा उपज की लालसा ने इन देसी और मौसमी सागों पर संकट खड़ा कर दिया है. यह सब कहते कक्का को दो दिन पहले का वह दृश्य याद आ गया. वे पड़ोसी के साथ नहर के उस पार के उनके खेतों की तरफ निकले थे. कहने लगे कि पड़ोसी जब अपनी गेहूं की फसल की ओर मुदित भाव से इशारा करके यह बता रहा था कि अबकी फसल बहुत अच्छी होने की संभावना है. देखो न, एक भी घास नहीं है.
कक्का ने गौर से फसल की तरफ देखा. गेहूं के खेतों में घास क्या, उन्हें बथुआ का भी कोई पौधा नजर नहीं आया. पड़ोसी ने उन्हें बताया कि जिन खेतों में पिछले साल खर-पतवार नाशक का छिड़काव किया गया था, उनमें इस बरस न घास उगी, न बथुआ. पांच-सात साल के लगातार छिड़काव से यह सब झंझट हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा.
कक्का ने बताया कि उनकी बात सुनकर एकबारगी को उनका बदन सिहर उठा था! कहने लगे, बोने के पहले से लेकर काटने के पहले तक तरह-तरह के उर्वरक का प्रयोग तो बहुत पहले से हो रहा है.
लेकिन, फसल के साथ खेत में उग आये खर-पतवार से इसका कोई लेना-देना नहीं था. फसल से उन्हें निकालने के लिए निराई-गुड़ाई की विधि अपनायी जाती थी. इससे जहां पशुओं के लिए घास का इंतजाम हो जाता था, वहीं इस विधि से पौधे की जड़ों तक हवा भी पहुंचती थी और खेत में पर्याप्त नमी बनी रहती थी. कक्का बता रहे थे कि अब लोग खर-पतवार नाशक का प्रयोग बुआई के समय ही करके निश्चिंत हो जाते हैं.
मिट्टी या फसल या मौसमी साग पर इसका क्या दूरगामी असर पड़ेगा, यह सोचने पर जैसे विराम सा लग गया है. देसी साग खेसारी पहले ही विलुप्ति के कगार पर है, अब इसमें बथुआ की व्यथा भी शामिल हो रही है.कक्का कह रहे थे कि आनेवाली सर्दियां क्या धरती पर देसी साग का नजारा नहीं देख सकेंगी!
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