बेरोजगारी देश की एक बड़ी समस्या है. इसका समाधान ढूढ़ने में असमर्थ सरकारें नये-नये जुमले गढ़ कर नौजवानों को भटकाती रही हैं. नौजवानों को तरह-तरह के सपने दिखाये जाते हैं, तो कभी सियासत की बोतल से स्थानीयता का जिन्न निकल आता है.
कर्ज के बाजार से निकला रोजगार युवाओं को तरक्की के हाइवे पर ले जायेगा या कर्ज के दलदल में फंसा देगा, कहा नहीं जा सकता. कुछ होनहार युवा विदेशों का रुख कर लेते हैं, तो ज्यादातर सड़कों पर भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं. मौका देख सियासत बिना देरी किये ‘बाहरियों ‘ का हौवा और ‘प्रतिशत’ का हिसाब बता कर बेरोजगारों को बरगलाने में जुट जाती हैं.
मसला चाहे मराठी मानुष का हो या यूपी-बिहार में घुसपैठ का, भौंहें तो दिल्ली से असम तक की तन जातीं हैं. प्रदेश चाहे उत्तर हो या मध्य, राजनीतिक झांसों के तरीके सबके एक जैसे हैं. बहरहाल, इस समस्या के मर्म को समझते हुए सरकारी संरक्षण में आकर्षक रोजगार पैदा करने होंगे, वरना वर्तमान पीढ़ी भविष्य के लिए कर्जदार बन कर रह जायेगी.
एमके मिश्रा, मां आनंदमयीनगर, रातू, रांची,