।। पुष्परंजन ।।
ईयू एशिया न्यूज के
नयी दिल्ली संपादक
1962 के भारत-चीन युद्घ में भूटान ने सच्चे मित्र की भूमिका निभाते हुए अपनी दक्षिण-पूर्वी सीमा से भारतीय सैनिकों को जाने की अनुमति दी थी. इससे अलग, दक्षेस के मंच पर ऐसे कई मौके आये, जब भूटान, भारत के साथ खड़ा नजर आया.
प्रधानमंत्री मोदी की भूटान यात्रा पर चीन ने पहली प्रतिक्रिया देकर यह महसूस करा दिया है कि उसकी कूटनीति महीन तरीके से होगी. भूटान के मामले में चीन ज्यादा उछलना-कूदना पसंद नहीं करेगा. चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता, हुआ चुंगयिंग ने कहा कि भारत-भूटान जैसे पड़ोसी एक दूसरे के करीब आ रहे हैं, यह देख कर हमें ख़ुशी है. हुआ ने कहा कि भूटान से चीन का कूटनीतिक संबंध अभी स्थापित नहीं हुआ है, हमारे बीच मित्रता का आदान-प्रदान हो रहा है. चीन, भूटान की संप्रभुता का सम्मान करता है और पंचशील सिद्घांतों के अनुरूप शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास करता है.
प्रत्यक्ष तौर पर तो यही लग रहा है कि नरेंद्र मोदी, भूटान के विकास के लिए बहुत कुछ दे आये हैं, और भविष्य में भारत उससे अधिक से अधिक ऊर्जा की प्राप्ति की उम्मीद करेगा. लेकिन, परदे के पीछे का एक सच यह भी है कि भूटान को चीन से सलामत रखने के लिए कूटनीतिक किलेबंदी की गयी है.
यह किलेबंदी काफी खर्चीली है. भूटान की 11वीं पंचवर्षीय योजना (2013 से 2018) के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 4,500 करोड़ रुपये देने की घोषणा की है. इसका मतलब यह हुआ कि हर साल भूटान को 900 करोड़ रुपये, भारतीय करदाताओं की जेब से जायेगा. भूटान, लगातार दबाव बनाये हुए है कि उसके यहां निर्यात किये जानेवाले केरोसिन, डीजल व गैस पर से भारत सब्सिडी नहीं हटाये. 2013 में सब्सिडी हटाने की चरचा भर से भूटान में, भारत का विरोध शुरू हो गया था. भूटान को सब्सिडी सुविधा का बोझ भारतीय करदाताओं को ही उठाना पड़ेगा.
1986 में मुङो चूखा जलविद्युत परियोजना को देखने का मौका मिला था, तब पता चला कि इसे बनाने का सारा खर्च भारत सरकार ने वहन किया था. वांगचू नदी पर बनी चूखा परियोजना से 336 मेगावाट पनबिजली प्राप्त होती है. अप्रैल, 2009 में 1,020 मेगावाट की क्षमतावाली, तला जलविद्युत परियोजना का निर्माण भी भारत ने कराया. यह चूखा से तीन गुना बड़ी है. 60 मेगावाट का किरुच्चू हाइड्रोपावर और भूटान के गांवों में कई छोटी-छोटी पनबिजली परियोजनाओं के लिए भारत ने पैसे दिये. 1,200 मेगावाट का फुनात्सांगचू-1 जलविद्युत परियोजना 2015 से बिजली पैदा करने लगेगी. इस पर 2008 से काम चल रहा था, जिसके लिए 60 प्रतिशत सहयोग और 40 प्रतिशत कर्ज भारत ने दिया है. प्रधानमंत्री मोदी 600 मेगावाट का खोलोंगचू पनबिजली परियोजना बनाने की आधारशिला रख आये हैं. लक्ष्य यह है कि 2020 तक किसी तरह भूटान 10 हजार मेगावाट तक बिजली पैदा करने लगे, जिसका सीधा लाभ भारत को मिल सकेगा.
भूटान इस समय सवा दो रुपये प्रति यूनिट की दर से भारत को बिजली बेच रहा है. लेकिन क्या जरूरी है कि भूटान जितनी जलविद्युत निर्यात करेगा, वह सब भारत को ही देगा? भूटान के दो और पड़ोसी बांग्लादेश और नेपाल, उससे बिजली खरीदने के लिए आतुर हैं. फरवरी, 2013 में ढाका यात्रा पर गये भूटान नरेश, राष्ट्रपति जिल्लुर रहमान को यह आश्वासन दे आये हैं कि वे बांग्लादेश को बिजली बेचेंगे. यदि ऐसा होता है, तो क्या भूटान की पनबिजली परियोजनाओं पर भारतीय करदाताओं के पैसे दरियादिली से दान कर देना सही कदम है? क्या भारत को यही पैसा, पूर्वोत्तर में पनबिजली परियोजनाओं के विकास पर नहीं खर्च करना चाहिए? ब्रह्मपुत्र नदी से तो इतनी बिजली पैदा हो सकती है कि पूरा पूर्वोत्तर, बंगाल, बिहार, ओड़िशा, झारखंड को कभी बिजली संकट के बारे में सोचना ही नहीं पड़ेगा.
2012 में भूटान का भारत से सालाना व्यापार 6,830 करोड़ रुपये का था. भूटान की पनबिजली, सीमेंट, शिक्षा और साइबर तकनीक जैसी सोलह परियोजनाओं पर भारत के अरबों डॉलर खर्च हो चुके हैं. प्रधानमंत्री मोदी, थिंपू में सर्वोच्च अदालत भवन का उद्घाटन कर आये हैं. भूटान में हिमालय शिक्षण विश्वविद्यालय, इ-लाइब्रेरी, पर्यटन विकास में सहयोग मोदी जी का ताजा उपहार है. यह ठीक है कि भारत को अपने पड़ोसियों की मदद करनी चाहिए, लेकिन ‘दिल दरिया, और सरकारी खजाना समंदर में’ वाली नीति सही नहीं है.
इसमें शक नहीं कि भूटान ने एक अच्छे पड़ोसी होने का परिचय अनेकों बार दिया है. 1962 के भारत-चीन युद्घ में भूटान ने सच्चे मित्र की भूमिका निभाते हुए अपनी दक्षिण-पूर्वी सीमा से भारतीय सैनिकों को जाने की अनुमति दी थी. इससे अलग, दक्षेस के मंच पर ऐसे कई मौके आये, जब भूटान, भारत के साथ खड़ा नजर आया. 3 जनवरी, 2004 तक चले ‘ऑपरेशन ऑल क्लीयर’ में भूटान के सभी 30 आतंकी कैंपों का सफाया कर दिया गया, जिसमें बोडो, अल्फा और केएलओ के 485 अतिवादी मारे गये थे. लेकिन, इस ऑपरेशन के बाद हमारी सुरक्षा एजेंसियां सो गयीं. अब लगातार खबरें मिल रही हैं कि भारतीय अतिवादी फिर से भूटान में ठिकाने बनाने लगे हैं. संभव है कि इन अतिवादियों को चीन, बांग्लादेश, और म्यांमार से मदद मिल रही हो.
भूटान-यात्रा के बाद मोदी, 3 जुलाई को जापान जा रहे हैं. चीन को पता है कि यह सब उसे घेरने के लिए किया जा रहा है. भूटान के प्रधानमंत्री तोबगे ने थिंपू में जापान का दूतावास खोलने की अनुमति देकर, चीन के कष्ट को बढ़ा दिया है. सवाल यह है कि भूटान को चीन विरोधी कूटनीति का एपीसेंटर क्यों बनाया गया? क्या इसके पीछे भारतीय विदेश मंत्रालय और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार साझा योजना बना कर चल रहे हैं? चीन की नीयत भूटान से चुंबी घाटी हासिल करने की है. ‘चुंबी वैली’ से सिलीगुड़ी कॉरीडोर कोई 500 किमी की दूरी पर है, जो ‘चिकेन नेक’ के नाम से मशहूर है. सिलीगुड़ी, सामरिक रूप से अति संवेदनशील इलाका है, जो नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार और समूचे पूर्वोत्तर को रेल व सड़क से जोड़ता है.
प्रधानमंत्री मोदी की भूटान-यात्रा में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश सचिव को आधिकाधिक महत्व दिया गया है.इंटेलीजेंस ब्यूरो के पूर्व प्रमुख टीवी राजेश्वर की बेटी होने के कारण विदेश सचिव सुजाता सिंह के डीएनए में कुछ ऐसा है कि वह चीनी कूटनीति को तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे पा रही हैं. 1 अगस्त, 2014 से पहली बार किसी चाइना एक्सपर्ट, गौतम बंबावाले, को भूटान का राजदूत बनाकर भूटान भेजना तय हुआ है. यह निर्णय मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले मार्च में ही ले लिया गया था. ऐसा निर्णय विदेश सचिव व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के अच्छे तालमेल से ही संभव है. फिर भी, इसकी क्या गारंटी है कि जैसा भारत चाहता है, भूटान वैसा ही करेगा!