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सही मूल्यांकन जरूरी

कॉपियों के मूल्यांकन में गड़बड़ी की खबर के बाद सीबीएसई बड़े लचर तर्कों की ओट में अपना मुंह छुपाने की कोशिश कर रही है. इस बार की सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा में शामिल करीब पौने बारह लाख परीक्षार्थी शामिल हुए. इनमें से लगभग नौ हजार ने उत्तरपुस्तिकाओं के पूनर्मूल्यांकन का आवेदन किया था, जिसके […]

कॉपियों के मूल्यांकन में गड़बड़ी की खबर के बाद सीबीएसई बड़े लचर तर्कों की ओट में अपना मुंह छुपाने की कोशिश कर रही है. इस बार की सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा में शामिल करीब पौने बारह लाख परीक्षार्थी शामिल हुए. इनमें से लगभग नौ हजार ने उत्तरपुस्तिकाओं के पूनर्मूल्यांकन का आवेदन किया था, जिसके नतीजे चौंकानेवाले हैं. 50 प्रतिशत से भी ज्यादा परीक्षार्थियों के प्राप्तांक बढ़ गये हैं और एक मामले में तो परीक्षा का टॉपर्स तक बदल गया है.

लेकिन सीबीएसई कह रही है कि 99.6 फीसद कॉपियों का मूल्यांकन सही-सही हुआ है. उसका तर्क है कि मूल्यांकन करनेवाले शिक्षकों पर काम का दबाव था. तो क्या सीबीएसई यह जताना चाह रही है कि उत्तरपुस्तिकाओं का शत-प्रतिशत सही मूल्यांकन संभव नहीं है?

या, वह इस बात को एक नियम की तरह मानकर चल रही है कि उत्तरपुस्तिकाओं की जांच में अगर गलतियां एक प्रतिशत से भी कम मामलों में होती हैं, तो उनकी अनदेखी की जानी चाहिए या फिर क्षमायोग्य माना जाना चाहिए. मूल्यांकन में हुई गड़बड़ी क्षमा के योग्य नहीं है, क्योंकि एक तो सीबीएसई ने हर कॉपी की जांच के लिए दो-दो मूल्यांकनकर्ता रखे थे. दूसरे, इस बात के भी प्रमाण नहीं हैं कि सीबीएसई उत्तरपुस्तिकाओं की जांच में हो रही गड़बड़ी के मामलों में सुधार कर रही है.

सीबीएसई ने 2016 की कॉपियों के पुनर्मूल्यांकन के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये और 2017 में कोर्ट के आदेश पर हर मामले के हिसाब से कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन हुआ, सो इस बार के आंकड़ों की तुलना पुनर्मूल्यांकन के पिछले आंकड़ों से नहीं की जा सकती. तीसरी और सबसे अहम बात है सीबीएसई का इन गड़बड़ियों को प्रक्रियागत दोषों का नतीजा मान लेना, मूल्यांकन में हुई गड़बड़ी के सामाजिक असर को ना समझना. देश के वंचित तबकों और मध्यवर्गीय आबादी के लिए शिक्षा ही तरक्की का एकमात्र आसरा है.

बारहवीं की परीक्षा के नतीजों से तय होता है कि कोई छात्र कितने प्रतिष्ठित संस्थान में आगे दाखिला लेगा और उच्च शिक्षा के किस राजमार्ग या रपटीली राह पर बढ़ेगा. ऐसे में परीक्षा में शामिल हो रहा छात्र और उसके माता-पिता अपनी अपेक्षाओं के बोझ तले भारी दबाव में होते हैं और यह दबाव कई दफे जानलेवा साबित होता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े संकेत करते हैं कि बीते एक दशक में छात्रों की आत्महत्या करने की घटनाएं बढ़ी हैं.

साल 2010 से 2015 के बीच कुल 39,775 छात्रों ने आत्महत्या की, 2015 में आत्महत्या करनेवाले छात्रों की तादाद 8,934 रही, यानी हिसाब लगायें, तो 2015 में हर घंटे एक छात्र ने किसी-न-किसी कारण से आत्महत्या की राह चुनी और इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि इन वजहों में एक परीक्षाजन्य दबाव भी रहा होगा. छात्रों पर बढ़ रहे दबाव और उसके असर को इसी कोण से सोचना होगा, ताकि उससे कॉपियों की जांच में फिर से गलती ना हो.

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