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चुनाव आयोग की विश्वसनीयता

II कुमार प्रशांत II गांधीवादी विचारक [email protected] अभी-अभी अाये 14 उपचुनाव परिणामों ने (10 विधानसभा के अौर 4 लोकसभा के) कितने चेहरों को नंगा कर दिया है अौर कितने पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी है! भारतीय दलीय राजनीति की यह अांतरिक सुनामी है. 2018 में 2019 का ऐसा नक्शा बनेगा, इसकी उम्मीद न […]

II कुमार प्रशांत II
गांधीवादी विचारक
अभी-अभी अाये 14 उपचुनाव परिणामों ने (10 विधानसभा के अौर 4 लोकसभा के) कितने चेहरों को नंगा कर दिया है अौर कितने पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी है! भारतीय दलीय राजनीति की यह अांतरिक सुनामी है. 2018 में 2019 का ऐसा नक्शा बनेगा, इसकी उम्मीद न मोदी मार्का भाजपा को थी, न अपनी जोड़-तोड़ का नक्शा बनाते विपक्ष को थी.
अब चुनावी महाभारत में अामने-सामने खड़ी दोनों सेनाअों के महारथियों के पास खासा वक्त है कि वे अपनी लड़ाई का नया नक्शा बनायें. इन चुनावों का एक संकेत अौर भी है, जिसकी उपेक्षा करना हमें भारी पड़ सकता है, क्योंकि चुनाव तो पार्टियां लड़ती हैं, लेकिन कसौटी पर हमेशा चुनाव अायोग होता है.
महाभारत के महारथी कर्ण के रथ का चक्का उनके अभिशाप की कीच में ऐसा फंसा था कि उनकी जान लेकर ही बीता. हमारे चुनावी महाभारत के ‘कर्ण’ चुनाव अायोग की विश्वसनीयता का चक्का भी उसकी अपनी कमजोरियों की कीच में फंसता जा रहा है कि कहीं उसे ले न डूबे! चुनाव अायोग हमारे लोकतंत्र की मशीन का एक पुर्जा मात्र नहीं है, वह हमारे संसदीय लोकतंत्र का प्रहरी है, जिसकी स्वतंत्र हैसियत है.
चुनाव अायोग को सीधा खड़ा करने का काम पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने जिस तरह किया, उस तरह पहले किसी ने नहीं किया था. शेषन ने चुनाव अायोग की रीढ़ भी सीधी की. लेकिन उनके बाद क्या हुअा? अब भी चुनाव अायोग है, मुख्य चुनाव अायुक्त भी हैं अौर दूसरे अायुक्तों की भीड़ भी है, लेकिन लगता है कि अायोग का शेषन शेष नहीं बचा है.
बीते दिनों हमारे चुनाव अायोग के सभी उपलब्ध पूर्व मुख्य चुनाव अायुक्तों की एक सम्मिलित बैठक हुई- यानी सारे ‘कर्ण’ मिल बैठे. ऐसा संभवत: पहली बार ही हुअा.
नौ पूर्व मुख्य अायुक्तों ने, वर्तमान मुख्य चुनाव अायुक्त अोमप्रकाश रावत तथा उनके दोनों सहयोगियों के साथ चर्चा की. चुनाव अायोग के सबसे वरिष्ठ सदस्य सुनील अरोरा भी थे, जो चाहेंगे तो 18 दिसंबर 2018 को भारत के मुख्य चुनाव अायुक्त बन जायेंगे, जिनकी देखरेख में 2019 का अाम चुनाव होगा.
बैठक में सारे ‘कर्णों’ ने जिन दो बातों पर चिंता व्यक्त की, वे थे वर्तमान चुनाव अायोग की अनुभवहीनता अौर इसकी निष्पक्षता पर गहरी शंका! सुनील अरोरा जब 2019 का अाम चुनाव करवायेंगे, तब उनके पास मात्र 10 विधानसभाअों के चुनाव करवाने का अनुभव होगा. उस रोज विमर्श में सारे मुख्यायुक्तों ने कहा कि इतना-सा अनुभव नाकाफी है राष्ट्रीय चुनाव संपन्न करवाने के लिए. दूसरी चिंता चुनाव अायोग की निष्पक्षता पर पैदा हुई राष्ट्रीय शंका के बारे में थी. इन चिंताअों पर देश क्या कहता, 2019 के चुनाव की कुंडली उसी से लिखी जायेगी. यह खतरे की घंटी है.
चुनाव की ताकत यह है कि उसके गर्भ से हमारे संसदीय लोकतंत्र के खिलाड़ी पैदा होते हैं. ऐसे में सवाल है कि हमारे चुनाव अायुक्तों को किस अाधार पर चुना जाता है? नौकरशाही के बड़े पुर्जे इस मशीन में लगा देने से बात नहीं बनती है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जिनकी अास्था हो अौर जिनमें अावश्यक तटस्थता भी हो, वैसे परखे लोगों की जरूरत अायोग में होती है. इसकी कोई सुनिश्चित व्यवस्था बननी चाहिए.
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू व्यवस्था का है. चुनाव अायोग के पास संवैधानिक ताकत चाहे जितनी भी हो, उसकी असली ताकत उसकी विश्वसनीयता है.
हमारे संविधान निर्माताअों ने जनता के हाथ में केवल एक वोट देकर ईश्वरीय विधान के बराबर का काम किया. अायोग की जिम्मेदारी है कि वह इस विधान की अात्मा को हर हाल में बचाये. जाति-धर्म-पैसा-डंडा सबका जोर लगाकर इसकी अात्मा का हनन होता रहा है.
अब ईवीएम मशीनें आ गयी हैं. इन मशीनों को खरीदने में बहुत सारा पैसा लगा. शेषन साहब ने मतदाता पहचान पत्र बनवाने में बेहिसाब पैसा फूंका, लेकिन चुनावी प्रक्रिया में भरोसा बनाने अौर बढ़ाने का सवाल इतना बुनियादी था कि हमने यह सारा बोझा उठाया. लेकिन हाल के वर्षों में ईवीएम मशीनों की तटस्थता शक के दायरे में अाती गयी है.
मशीन तटस्थ हो सकती है, लेकिन उसके पीछे बैठा अादमी नहीं. यही शंका थी जिसे चुनाव अायोग को निर्मूल करना था. वह इसमें विफल होता रहा. उसने खुद ही ऐसा माहौल बना दिया मानो मशीनों की निष्पक्षता पर सवाल उठाना अायोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाना है.
जिन चुनावों का इतना राजनीतिक महत्व था कि प्रधानमंत्री से लेकर कई भावी प्रधानमंत्री उसमें पिले पड़े थे, उसकी मशीनों में ऐसी गड़बड़ी हो तो श्रीमान, इसे अापकी बर्खास्तगी का अाधार बनाया जा सकता है.
चुनाव अायोग यह भूल गया कि राजनीतिक दल भले अपना फायदा या नुकसान देखकर ईवीएम का समर्थन या विरोध करते हैं, पर अाम मतदाता तो अापकी प्रक्रिया अौर अापके परिणाम में भरोसा खोजता है. इवीएम मशीनें वह भरोसा खो रही हैं. मैं नहीं कहता कि हमें मतपत्रों वाले चुनाव अौर गिनाव पर लौट जाना चाहिए.
मैं मानता हूं कि ईवीएम प्रणाली की बार-बार जांच-परख होनी चाहिए; मतदाताअों की शंकाअों के समाधान का हर संभव रास्ता पारदर्शी होना चाहिए. अौर एक सच, जो चुनाव अायोग को हमेशा याद भी रखना चाहिए, वह यह कि उसकी विश्वसनीयता ईवीएम मशीनों से नहीं बनती है.
वह तो चुनाव में उतरनेवाले हर दल व हर व्यक्ति के प्रति उसकी एक-सी तटस्थता से बनती है! इसलिए चुनाव अायोग बने तो कबीर बने, न कि एके जोति. अौर कबीर की तरह कहे भी: ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर!
Prabhat Khabar Digital Desk
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