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अपनी गलतियों से हारी कांग्रेस

।। उर्मिलेश ।। वरिष्ठ पत्रकार अब भी कांग्रेस अगर अपनी गलतियों से नहीं सीखती है, तो उसके लिए आगे का रास्ता बहुत मुश्किल होगा. वह सिर्फ बयानबाजी करके नहीं सीख सकती, उसे अपनी गलतियों की शिनाख्त करनी होगी. कांग्रेस को सामूहिक नेतृत्व के बारे में भी सोचना होगा. इस आम चुनाव में कांग्रेस की सबसे […]

।। उर्मिलेश ।।

वरिष्ठ पत्रकार

अब भी कांग्रेस अगर अपनी गलतियों से नहीं सीखती है, तो उसके लिए आगे का रास्ता बहुत मुश्किल होगा. वह सिर्फ बयानबाजी करके नहीं सीख सकती, उसे अपनी गलतियों की शिनाख्त करनी होगी. कांग्रेस को सामूहिक नेतृत्व के बारे में भी सोचना होगा.

इस आम चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी हार के कई कारक रहे हैं. यूपीए-1 का कामकाज बेशक थोड़ा बेहतर दिखा था, लेकिन यूपीए-2 के दौरान उजागर हुए घोटालों की नींव भी यूपीए-1 के समय ही पड़ गयी थी. यूपीए-1 के समय ही कांग्रेस ने न्यूक्लियर डील में अहमन्यता का प्रदर्शन करते हुए गंठबंधन के अपने भरोसेमंद सहयोगी वामपंथियों को झटक दिया था. चूंकि उस वक्त भारत का शहरी मध्यवर्ग मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों और नीतियों से खुश था, इसलिए उसने 2009 के जनादेश में फिर से कांग्रेस पार्टी का साथ दिया.

हालांकि यूपीए-1 के प्रदर्शन और उसकी राजनीतिक रणनीति पर सवाल उस समय भी उठ रहे थे, लेकिन तब बीजेपी इस हालत में नहीं थी कि स्पष्ट जनादेश पा सके. इसलिए भी 2009 के चुनाव में मनमोहन सिंह को जीत हासिल हुई थी. लेकिन यूपीए-2 सरकार ने सभी वर्गो को निराश किया. सरकार ने किसानों को पैकेज तो दिया, लेकिन उनके लिए और कुछ नहीं कर सकी. महंगाई ने शहरी से लेकर ग्रामीण वर्ग तक सबको त्रस्त किया.

यहां तक कि कॉरपोरेट जगत, जिसे यूपीए -2 सरकार ने पांच लाख करोड़ से ज्यादा की रियायतें देकर खुश किया था, भी नाराज हो गया, क्योंकि उसे जिस बढ़त की उम्मीद थी, वह नहीं मिली. गरीब आदमी नाराज हुआ, क्योंकि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सरकार मनरेगा के नाम पर सिर्फ कुछ खैरात बांट रही थी, जबकि लोग इससे ज्यादा चाहते थे. वे बच्चों की बेहतर शिक्षा, सुविधायुक्त अस्पताल, बेहतर रोजगार और सस्ती दरों पर रोजमर्रा के उपयोग की चीजें चाहते थे. जबकि सरकार सिर्फ खैरात बांट रही थी, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. नाराजगी अल्पसंख्यकों में भी दिख रही थी. क्षेत्रीय दलों, जो अपने-अपने इलाकों में सरकार चला रहे थे, से भी लोग नाराज थे. उत्तर प्रदेश के लोग मुलायम सिंह से नाराज थे, तो मायावती से भी खुश नहीं थे. बिहार में नीतीश कुमार से भी कुछ वर्गो में एक हद तक नाराजगी थी.

ऐसे में क्रमिक ढंग से नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में अभ्युदय हुआ. यह अभ्युदय भाजपा की गोवा बैठक से पहले ही हो चुका था. वह लगातार भारत के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बनने की तैयारी कर रहे थे. गुजरत के विधानसभा चुनाव में भी यह बात थी कि अगर वे तीसरी बार जीतते हैं, तो भारत के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बन सकते हैं. भारत के एक बड़े कॉरपोरेट वर्ग का उन्हें भारी समर्थन था. इससे उन्हें अपनी ब्रांडिंग का भी बेहतर मौका मिला. यही वजह है कि उन्होंने मीडिया का भी समर्थन पाया और देश के सामने विकल्प पेश करने में सफल रहे.

वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस लगातार विफल हो रही थी. कांग्रेस में ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, जिनमें चापलूसी और अहंकार की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है. एक तो नेहरू-गांधी परिवार की चापलूसी करना और दूसरा सरकार में अपने अस्तित्व को बचाये रखना ही उनका ध्येय रहा. अहंकार के चलते आम लोगों से उनका संपर्क कट गया. कांग्रेस के पास पहले अजरुन सिंह, नरसिंह राव और सीताराम केसरी जैसे राजनीतिक अनुभव से परिपक्व नेता हुआ करते थे. अब कांग्रेस में कोई भी ऐसा नेता नहीं है.

अभी के नेता सिर्फ तत्कालिक और स्वनिहित लक्ष्यों को देखते हैं. दूरदर्शिता का अभाव है उनमें. इसी तरह के लोग सोनिया गांधी और राहुल गांधी के सलाहकार बने हुए हैं. सोनिया गांधी निजी तौर पर एक शालीन और समझदार महिला हैं. विदेशी होने के बावजूद उनके अंदर अपने दल के नेताओं, पुत्र और पुत्री से बहुत ज्यादा राजनीतिक कौशल है. जबकि उनकी संतानें, खास कर राहुल गांधी, राजनीतिक कौशल विहीन व्यक्ति हैं. इसका उदाहरण वे समय-समय पर देते रहे हैं. सरकार का अध्यादेश फाड़ कर वह अपनी पार्टी की सरकार ही नहीं, देश के प्रधानमंत्री का मान भी फाड़ चुके हैं. अभी जिस दिन प्रधानंमत्री का विदाई कार्यक्रम था, वे उस दिन विदेश में थे.

कुलमिलाकर मनमोहन सरकार की जो बची-खुची साख थी, राहुल गांधी ने उसकी भी मट्टीपलीद कर दी. यही कारण है कि नरेंद्र मोदी की हिंदुत्व के ऐजेंडे और गुजरात दंगे को लेकर जो आलोचना हुई, उसे मतदाताओं ने भुला दिया और यह मान कर वोट दिया कि शायद नरेंद्र मोदी भारत की बड़ी आबादी की हालत को सुधारने में कामयाब होंगे.

अब भी कांग्रेस अगर अपनी गलतियों से नहीं सीखती है, तो उसके लिए आगे का रास्ता बहुत मुश्किल होगा. वह सिर्फ बयानबाजी करके नहीं सीख सकती, उसे अपनी गलतियों की शिनाख्त करनी होगी. कांग्रेस को सामूहिक नेतृत्व के बारे में भी सोचना होगा. अब भी कुछ कांग्रेसी कह रहे हैं कि प्रियंका गांधी आयेंगी, तो सबकुछ ठीक कर देंगी. ये निराधार बातें हैं. भारत बदल रहा है. अब खानदान या करिश्माई चेहरे के नाम पर वोट नहीं मिलेगा. अब लोग सिर्फ खैरात नहीं, मुकम्मल जिंदगी के लिए एक मजबूत व्यवस्था चाहते हैं.

(बातचीत : प्रीति सिंह परिहार)

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