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भारी गलती है यह ट्रेड वॉर

II अजीत रानाडे II सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन delhi@prabhatkhabar.in इस वर्ष के प्रारंभ में दावोस में दिये अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने व्यापार संरक्षणवाद को तीन प्रमुख वैश्विक चुनौतियों में एक बताया. दरअसल, इसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रतिपादित तथा अब क्रियान्वित व्यापार नीति से जोड़कर देखा जा रहा है. हाल ही में […]

II अजीत रानाडे II

सीनियर फेलो,

तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

delhi@prabhatkhabar.in

इस वर्ष के प्रारंभ में दावोस में दिये अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने व्यापार संरक्षणवाद को तीन प्रमुख वैश्विक चुनौतियों में एक बताया. दरअसल, इसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रतिपादित तथा अब क्रियान्वित व्यापार नीति से जोड़कर देखा जा रहा है.

हाल ही में एल्युमिनियम तथा स्टील के आयात पर उनके द्वारा थोपा गया ऊंचा आयात शुल्क उनके संरक्षणवादी कदमों की शृंखला में नवीनतम कड़ी है, जिसमें आगे कई और एपिसोड जुड़ने जा रहे हैं. इस शुल्क का मुख्य निशाना चीन द्वारा इन धातुओं का अमेरिका को किया जाता निर्यात है, जिसकी कीमत लगभग 50 अरब डॉलर है. वाशिंगटन में चीनी दूतावास के प्रवक्ता ने अमेरिका को चेताते हुए कहा कि चीन अपने वैधानिक हितों की रक्षा करने तथा इस व्यापार ‘युद्ध’ (ट्रेड वॉर) में भागीदार बनने से पीछे नहीं हटेगा. इस बयान में चीन द्वारा ‘युद्ध’ शब्द के प्रयोगमात्र से ही इसकी संजीदगी समझी जा सकती है.

अपने अधिकतर मित्र देशों से ऐसे ही आयातों को बरी करते हुए चीनी आयात को ही लक्ष्य करने में ट्रंप का उद्देश्य अमेरिकियों के जॉब की रक्षा करना है. इससे जॉब तो कुछ सौ अथवा हजार व्यक्तियों की ही बचेगी, पर इन धातुओं के उपयोग करनेवाले मोटर, पेय पैकेजिंग, इलेक्ट्रॉनिक अथवा विनिर्माण उद्योगों के लिए इनकी लागत बहुत बढ़ जायेगी और चीन से इनके आयात रोकने के चक्कर में अन्य देशों से इनका आयात बढ़ाना पड़ेगा.

इन कदमों के जवाब में जब चीन में कारोबार कर रही बोइंग, माइक्रोसॉफ्ट, एपल और जीई जैसी अमेरिकी कंपनियों के हितों पर चोट की जायेगी, तब उसके नतीजे अमेरिका के लिए न मालूम कितनी दुश्वारियां पैदा करेंगे. और जब एक बार यह ‘युद्ध’ आरंभ हो जायेगा, तो कहां जाकर रुकेगा, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकेगा. इन्हीं आशंकाओं से जन्मी घबराहट ने केवल दो दिनों के अंदर ही अमेरिकी शेयर बाजार का सूचकांक 1100 अंक नीचे उतार दिया, जिसकी अनुगूंज पूरी दुनिया में सुनायी पड़ेगी.

ज्यादातर अर्थशास्त्री, व्यापारिक संघ तथा उद्योग संस्थान इस संरक्षणवाद के विरुद्ध हैं. मगर जहां तक ट्रंप का सवाल है, वे सिर्फ अपने चुनावी वादे पूरे कर रहे हैं. दरअसल, ट्रंप के मतदाताओं का एक हिस्सा इन कदमों का समर्थन करते हुए यह कहता है कि यह युद्ध वस्तुतः चीन का शुरू किया है, जिसने चीन में निवेश करती कई अमेरिकी कंपनियों को इस हेतु बाध्य किया कि वे उसके साथ संयुक्त उपक्रम स्थापित करते हुए अपनी बौद्धिक संपदा साझी करें. और उसके बाद उसने उनकी खुली चोरी कर ली. यहां तक कि वह अनुचित रूप से दशकों तक अपनी मुद्रा की कीमत कम रखते हुए अमेरिका को अपना निर्यात संवर्धित करता रहा. इसलिए आयात शुल्क की वर्तमान बढ़ोतरी चीन के साथ अमेरिका के 375 अरब डॉलर के व्यापार घाटे का उत्तरमात्र है.

ऐसी बातें सियासी रूप से आकर्षक लगते हुए भी आर्थिक दृष्टि से गलत होती हैं. यदि चीन ने दशकों तक अपनी मुद्रा अवमूल्यित रखी होती, तो इसने उसके घरेलू कामगारों की दिहाड़ी का मूल्य कम रखते हुए उन्हें भी हानि पहुंचायी होती. चीन के पास मौजूद अधिकतर अतिरिक्त डॉलर अमेरिकी सरकारी बांड में निवेशित हैं, इसलिए, उन दोनों के बीच एक तरह की परस्पर निर्भरता है. फिर एक देश से व्यापार घाटे की पूर्ति दूसरे देश के साथ व्यापार बढ़ती से होती है. यदि चीन के साथ अमेरिकी कंपनियों की कुछ चिंताएं हैं, तो उन्हें सुलझाने के और रास्ते भी हैं. पर, इन भभकियों से तो ऐसी ज्वाला भड़केगी, जिसे किसी भी तरह शांत नहीं किया जा सकेगा.

पूरी दुनिया का वस्तु तथा सेवा व्यापार एक जटिल अंतर्संबद्ध संजाल है. वस्तु व्यापार में विनिर्माण को वैश्विक मूल्य शृंखला के गिर्द आयोजित किया जाता है, जो इलेक्ट्रॉनिक्स शृंखला (चिप्स, मदरबोर्ड, उपकरणों, तथा उनमें अंतःस्थापित सॉफ्टवेयर और ब्रांडेड उत्पादों आदि) में सर्वाधिक स्पष्ट दिखता है. व्यापार युद्ध छिड़ जाने से यह विनिर्माताओं और उपभोक्ताओं, दोनों के हितों के लिए खासतौर पर हानिकारक हुआ करता है.

भारत इस ट्रेड वॉर का केवल एक तमाशबीन नहीं रह सकेगा. दरअसल, उसे कच्चे तेल, खाद्य तेल, आधुनिक पूंजीगत वस्तुएं, इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं और प्रतिरक्षा उपकरण जैसी वस्तुएं आयात करनी पड़ती हैं, क्योंकि वर्तमान में ये वस्तुएं भारत में नहीं बनतीं. इन आयातों के मूल्य हमें निर्यात से कमाये डॉलरों से चुकाने पड़ते हैं. इस तरह, भारत के निर्यात का फलना-फूलना और उनका विश्व बाजारों में प्रवेश पाना जरूरी है. लेकिन, हुआ यह कि विमुद्रीकरण, विलंबित जीएसटी के अंतर्गत धनवापसी और मजबूत रुपये की वजह से हमारा निर्यात पीछे पड़ गया. परिणामतः, इस वर्ष हमारा चालू घाटा पिछले वर्ष की तुलना में तीन गुना तक हो जायेगा.

ऐसे में चीन और अमेरिका जैसी विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच व्यापार युद्ध का छिड़ जाना एक बुरी खबर है. इसके नतीजे में स्टॉक तथा बांड की घटती कीमतें भारत में डॉलर के प्रवाह को उल्टा कर सकती हैं. इसलिए यह आशा ही की जा सकती है कि सबको सद्बुद्धि आयेगी और आर्थिक राजनय के द्वारा संकट के बादल छंट सकेंगे.

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