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अमन की रोशनी की जरूरत

II डॉ सय्यद मुबीन जेहरा II शिक्षाविद् drsyedmubinzehra@gmail.com इस हफ्ते अमेरिका के फ्लोरिडा में निहत्थे बच्चों पर गोली चलने की खबर ने दुखी कर दिया. मन में सवाल उठा कि क्या हमारे बच्चे महफूज हैं? यह घटना अमेरिका में हुई है, लेकिन इससे आतंक को लेकर हमारी चिंता भी जरूर जागी होगी. जब बच्चे कहीं […]

II डॉ सय्यद मुबीन जेहरा II

शिक्षाविद्

drsyedmubinzehra@gmail.com

इस हफ्ते अमेरिका के फ्लोरिडा में निहत्थे बच्चों पर गोली चलने की खबर ने दुखी कर दिया. मन में सवाल उठा कि क्या हमारे बच्चे महफूज हैं? यह घटना अमेरिका में हुई है, लेकिन इससे आतंक को लेकर हमारी चिंता भी जरूर जागी होगी.

जब बच्चे कहीं भी आतंक या हिंसा का शिकार होते हैं, तो हर संवेदनशील मन बेचैन जरूर होता होगा. बच्चों के साथ बेरहमी दुनिया के सभी मुल्कों में देखी गयी है. चाहे वह रूस में बेसलान के स्कूल की घटना हो या फिर पाकिस्तान में 2014 का पेशावर के स्कूली बच्चों की आतंकवादियों के हाथों कत्ल की दर्दनाक वारदात हो, दुनिया बेबसी से इन पर आंसू बहाती रही है. अमेरिका में बीते कुछ सालों में इसी तरह स्कूलों और काॅलेजों में एक के बाद एक शूटआउट के कई मामले सामने आ चुके हैं. इस वारदात ने अमेरिका में हथियारों की आसानी से खरीद को लेकर एक बार फिर सवाल खड़े कर दिये हैं.

ये घटनाएं इशारा करती हैं कि हमारा समाज आज सिर्फ बारूद के ढेर पर ही नहीं बैठा है, बल्कि इसमें ऐसे लोग भी हैं, जो अपने दिलों में न जाने कितनी नफरतों को पाल रहे होते हैं. उनके दिलो-दिमाग में पल रही नफरतें मासूम जिंदगियों को किस तरह के खतरे में रखे हुए हैं, हमें इस बात का अंदाजा भी नहीं होता है. पता तब चलता है, जब इस हिंसक मानसिकता की वजह से मासूमों की मौतें होती हैं.

जब मुस्कुराते हुए मासूम चेहरे सुबह घर से अपने मां-बाप के गले लगकर स्कूल जाते हैं और स्कूल से उनकी लाश घर वापस आती है. हम सब उस कष्ट और दुख का अंदाजा भी नहीं लगा सकते, जिससे इन बच्चों के माता-पिता गुजरते होंगे. हम सब यह कहां सोचते हैं, क्योंकि हमारे लिए वे मुद्दे अहम हैं ही नहीं, जिनसे दुनिया के भविष्य की जिंदगियां जुड़ी हुई हैं. हम तो सिर्फ राजनीति में और एक-दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाने में लगे हुए हैं. जब तक यह आतंकवाद और हिंसा हम तक नहीं पहुंचते, तब तक हमें इससे क्या लेना-देना है. दुनिया मरे तो मरे, हम तो जिंदा हैं.यही सोच हमें हर पल मारने का सामान करती है.

आज हम सब अतिवादी हिंसक सोच से पैदा होनेवाले आतंकवाद का शिकार हैं. जहां हम वैश्विक स्तर पर बोको हराम, अलकायदा और दाएश जैसे आतंकी सोच पसंद समूहों से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं हमारे और हमारे अपनों की जिंदगी में बिना दस्तक दिये दाखिल होनेवाला खौफ और आतंक हमें हैरान और परेशान कर रहा है. यह अतिवादी हिंसक प्रवृत्ति वाकई तकलीफ दे रहा है.

अतिवादी हिंसक आतंकवादी समूहों के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की एक बड़ी मुहिम जारी है. बड़ी-बड़ी संस्थाएं और बड़े-बड़े लोग अतिवादी हिंसक सोच के खिलाफ कई सतह पर काम कर रहे हैं. एक अमेरिकी संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक, अतिवादी हिंसक प्रवृत्ति के कई स्रोत हैं. सभी आतंकवादी समूहों का मकसद राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक या धार्मिक होता है. संस्था ने वैश्विक आतंकवाद का 45 साल का ब्योरा दिया है, जो 1970 से 2015 तक आतंकवाद का डाटा देती है. यह रिपोर्ट 170 हजार आतंकवादी हमलों का ब्योरा देती है.

आज जरूरत है कि हम एक होकर आतंकवाद को अपने समाज से निकालने के लिए मजबूती से खड़े हो जाएं. लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता है, क्योंकि आतंकवाद और आतंकवादी हिंसा को फैलानेवाली सोच हमारे बीच कुछ न कुछ नये रोल में घर कर चुकी है.

हम अमन और सुलह की बातें तो करते हैं, लेकिन सिर्फ वही, जो हमें ठीक लगती हैं. आज हम अपने मजहब को अपने पड़ोसी के मजहब से बेहतर दिखाने के लिए हर उस हिंसा और क्रूरता का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो हमारे और हमारे पड़ोसी या दोस्त दोनों के मजहब में कोई जगह नहीं रखता. सच तो यह है कि इसका मजहब से कुछ लेना-देना ही नहीं है.

इसमें सबसे ज्यादा गलतियां वैश्विक राजनीति की हैं. यह राजनीति आतंकवाद के खिलाफ नजर तो आना चाहती है, लेकिन वह यह भी कहती है कि आतंकवाद भी अच्छा या बुरा होता है.

यानी अच्छे आतंकवादी और बुरे आतंकवादी भी होते हैं. दुनिया के सभी बड़े नेता अमन का पाठ पढ़ाते दिखते हैं, लेकिन वहीं अपनी नीतियों और कामकाज में इसी आतंकवादी मानसिकता के सहारे राजनीति ही करते हैं. दुनिया में आतंकवाद के मामले में दक्षिण एशिया दूसरे नंबर पर है.

आतंकवाद के खिलाफ महिलाओं की प्रमुख भूमिका है. महिलाएं आतंकवाद का बड़ा शिकार तो हैं ही, साथ ही आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अगली पायदान पर भी हैं. अगर समाज में कोई तबका सबसे ज्यादा शांति का संदेश दे सकता है, तो वह है महिलाओं का तबका. औरतों के साथ-साथ मीडिया और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारियां अधिक हैं. हमें केवल किसी एक मजहब या सामाजिक ढर्रे को नहीं लक्ष्य बनाना है, बल्कि हमें समाज में फैल रही अतिवादी हिंसक सोच को बदलना है. हिंसक उग्रवाद के खिलाफ महिलाओं की बहुत अधिक भूमिका है.

हमें सोशल मीडिया से बाहर आकर अपनी जिंदगी में अतिवादी हिंसक सोच के खिलाफ आवाज उठानी होगी और अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अमन की आवाज को आगे बढ़ाना होगा. अपनी छोटी-छोटी सोच और नफरतों को बड़ा होने से पहले ही खत्म करना होगा. तभी अमन की रोशनी नजर आयेगी. इसके लिए हर घर की जिम्मेदारी अहम है. इसकी शुरुआत घर से ही करनी होगी.

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