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रिजर्व बैंक की टेक
चालू वित्त वर्ष के शेष दो महीनों के लिए अपनी नीतिगत घोषणा में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने तात्कालिक फायदे की जगह दूरगामी असर को तरजीह दी है. अनुमान लगाया जा रहा था कि रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में कमी की, तो कर्जे कुछ सस्ते होंगे. लेकिन, बैंक द्वारा रेपो रेट छह प्रतिशत और […]
चालू वित्त वर्ष के शेष दो महीनों के लिए अपनी नीतिगत घोषणा में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने तात्कालिक फायदे की जगह दूरगामी असर को तरजीह दी है. अनुमान लगाया जा रहा था कि रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में कमी की, तो कर्जे कुछ सस्ते होंगे. लेकिन, बैंक द्वारा रेपो रेट छह प्रतिशत और रिवर्स रेपो रेट 5.75 प्रतिशत पर ही कायम रखा गया है. बैंकों को छोटी अवधि के लिए रिजर्व बैंक जिस दर पर उधारी देता है, उसे रेपो रेट कहा जाता है.
चूंकि बैंकों को कर्ज पुरानी दर से ही मिलेगी, इस कारण ग्राहकों के लिए ब्याज दरों में कटौती कर पाना बैंकों के लिए मुश्किल होगा. वैसे रिजर्व बैंक ने पिछले साल अगस्त में 0.25 फीसदी की कमी की थी और पिछले छह सालों की तुलना में रेपो रेट सबसे निचले स्तर छह फीसदी पर पहुंचा था. ऐसे में माना जा सकता है कि मौजूद गुंजाइश के बीच केंद्रीय बैंक ने अपनी तरफ से जरूरी कोशिश की है. दरों में कमी न करने का मौजूदा फैसला ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के तथ्यों के अनुरूप है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि ‘कृषि संबंधी जीडीपी और कृषिगत राजस्व में ठहराव आया है, जिसकी कुछ वजह है चार सालों में से दो सालों में मॉनसून का कमजोर रहना’. रिजर्व बैंक का आकलन है कि आगामी वित्त वर्ष (2018-19) में मॉनसून के सामान्य रहने पर महंगाई दर 5.1 से 5.6 प्रतिशत के बीच रह सकती है.
साथ ही रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष (2017-18) में जनवरी से मार्च के लिए डीजल-पेट्रोल की कीमतों की बढ़ती के मद्देनजर महंगाई दर 5.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है, जबकि दिसंबर में महंगाई दर के 4.4 फीसद तक रहने का अनुमान था. रेपो रेट में कमी की सूरत में मुद्रास्फीति के बढ़ने की आशंका बलवती होती, इसलिए माना जा सकता है कि रिजर्व बैंक ने संयम दिखाते हुए दरों को यथावत रखा है. मौजूद कर-ढांचे में सुधार की जरूरत पर भी रिजर्व बैंक की मौद्रिक समीक्षा में ध्यान दिलाया गया है. अभी बजट में लंबी अवधि के पूंजीगत निवेश पर हासिल लाभ (एक लाख रुपये से अधिक के लिए) को टैक्स के दायरे में लाया गया है.
लेकिन, मौद्रिक समीक्षा का संकेत है कि कर-ढांचा सुधारा जाना चाहिए, क्योंकि भारत में निवेश की पूंजी पर फिलहाल पांच तरह के टैक्स अदा करने होते हैं और इसका सीधा असर बचत तथा निवेश के फैसले पर पड़ता है. आर्थिक सर्वेक्षण के तथ्य बताते हैं कि भारत में पूंजी-निर्माण के हालात 2007 की तुलना में अभी बेहतर नहीं हैं. साल 2007 में जीडीपी में निवेश तकरीबन 37 फीसदी था, जो 2017 में घटकर 26 फीसद पर आ गया है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक समीक्षा के संकेतों के आधार पर अगले दिनों में पूंजी-निर्माण के लिए अनुकूल स्थितियां तैयार करने तथा मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने के फैसले लिये जायेंगे.
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