पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
पाकिस्तान के संघीय शरीयत कोर्ट के जज रह चुके एक हनफी मुस्लिम विद्वान ने हाल में एक फतवा जारी किया कि मुस्लिम औरतों को अपने अथवा अपने परिवार की फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट नहीं करनी चाहिए.
हमारे यहां भी, देश के सर्वोच्च मदरसे दारुल उलूम देवबंद ने इसी माह की शुरुआत में एक फतवा दिया, जो और भी अजीब है. इसने मुस्लिम महिलाओं को अपनी भौंहें निकालने या काट-छांटकर उनके आकार सही करने पर पाबंदी लगा दी. इसी संस्थान ने इसके पहले एक अन्य निर्देश में कहा कि मुस्लिम महिलाएं सरकारी अथवा निजी क्षेत्र में न तो कोई जॉब कर सकती हैं, न ही वे जज बन सकती हैं.
ऐसे फतवों में जो द्वेष व्याप्त होता है, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. राजद से अपना गठबंधन तोड़ने के बाद इसी वर्ष 30 जुलाई को, जिस दिन नीतीश कुमार ने भाजपा के समर्थन से बिहार विधानसभा में विश्वास मत जीता था, उनके मंत्रिमंडल के एकमात्र मुस्लिम मंत्री खुर्शीद उर्फ फिरोज अहमद ने सदन के बाहर ‘जय श्री राम’ का नारा लगाया.
तुरंत ही मदरसा इमारते शरिया के मौलवी सोहैल कासमी ने एक फतवा जारी कर कहा कि उनके ‘गलत’ कार्य के लिए मंत्री महोदय का निकाह हर हाल में रद्द कर दिया जाना चाहिए. फिरोज अहमद ने पहले तो यह घोषणा की कि मैं ऐसी धमकियों से डरनेवाला नहीं हूं, पर अंततः उन्हें दबाव के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने माफी मांग ली.
हमारे देश में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संस्थान भी हैं. साल 1973 में इस बोर्ड की स्थापना मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के संरक्षण तथा व्याख्या के लिए की गयी थी और यह स्वयं को भारत में मुस्लिम मत की अभिव्यक्ति का अग्रणी संस्थान बताता है.
मगर, इसने अपने विचारों द्वारा शायद ही कभी खुद को गौरवान्वित किया है. मिसाल के तौर पर, इस बोर्ड ने निःशुल्क तथा अनिवार्य बालशिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि इस अधिनियम से शिक्षा की मदरसा प्रणाली का अतिक्रमण होगा. इस बोर्ड ने बाल विवाह का भी समर्थन किया है.
यह बोर्ड तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर अत्यंत दकियानूसी दिखाता रहा है. इसने यह कहा कि हालांकि यह परिपाटी दोषमुक्त नहीं है, फिर भी इसे वैध माना जाना चाहिए. सौभाग्य से इस वर्ष अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप कर इसे अवैध करार दिया.
इससे भी बदतर, इस बोर्ड ने निकाह हलाला की परिपाटी को उचित ठहराया, जिसके अनुसार तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पूर्व पति से फिर शादी रचाने के पूर्व एक गैर-व्यक्ति के साथ संबंध कायम करना ही होगा.
सच्चाई यह है कि मुसलमानों के इन स्वयंभू अभिभावकों में परिवर्तन के प्रति शुतुरमुर्ग-सी विमुखता तथा कट्टरता के विपुल प्रमाण हैं. छोटी-छोटी बातों पर ढेरों किस्म के हास्यास्पद फतवे जारी करते इन अभिभावकों को अन्य के अलावा स्वयं उदारवादी मुस्लिम समुदाय द्वारा चुनौती दिये जाने की जरूरत है.
मगर दुर्भाग्य से, अभी हमें इसके बहुत अधिक सबूत नहीं मिलते. राजनेताओं को भी चाहिए कि वे मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की ऐसी मध्ययुगीन व्याख्या को केवल वोट बैंक की सियासत के लिए बढ़ावा देने से बाज आयें, जैसा 1985 के शाह बानो मामले में किया जा चुका है.
एक अन्य अहम मुद्दा भी विचारणीय है. जैसा मेरे अच्छे मित्र, टिप्पणीकार तथा पत्रकार शाहिद सिद्दीकी कहते हैं, मुस्लिम कट्टरता को बढ़ावा देकर हिंदू कट्टरता की काट नहीं की जा सकती. ये दोनों ही गलत हैं और दोनों की निंदा तथा विरोध किये जाने की जरूरत है. ये दोनों एक दूसरे को पोषण प्रदान करते हैं.
इनका नजरिया विभिन्न आस्थाओं के उन लोगों के बीच विमर्श एवं साथ आने की संभावना को पूरी तरह विकृत कर देता है, जो मिल कर हमारी जीवंत गंगा-जमुनी तहजीब को रूपाकार देते हैं, जबकि अधिकतर हिंदू और मुस्लिम इसे साझी कर अत्यंत खुश होंगे.
अब वक्त आ गया है, जब यह पूछा जाना चाहिए कि क्या मुसलमानों के ये अति दकियानूसी ठेकेदार इस समुदाय की आकांक्षाओं का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं? साल 2003 में आउटलुक पत्रिका ने एक सर्वेक्षण कराया था, जिसमें उत्तरदाताओं की एक बड़ी तादाद (40 फीसदी) ने इस प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ में दिया था कि क्या आप बाबरी मस्जिद के लिए लड़नेवालों को मुसलमानों का सच्चा प्रवक्ता मानते हैं?
संभवतः कई मुसलमानों के पास आज एक बंद मानसिकता से पीड़ित होने की वजह मौजूद है. हमें उन शक्तियों का विरोध करने की जरूरत है, जिन्होंने ऐसी मानसिकता सृजित की है, लेकिन इसकी बराबरी में ही मुसलमानों को भी यह साहस दिखाना चाहिए कि वे उदार विचारों को अंगीकार कर उनकी जकड़न को चुनौती दें, जो ऐसे आदिम तरीकों के जरिये ये दावे करते हैं कि वे उनकी ओर से बोलते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)