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जरूरी बना बिहार में बदलाव
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक पिछले कुछ दिनों के अनंतर बिहार में हुए अहम परिवर्तनों के संदर्भ में कांग्रेस, राजद एवं कुछ अन्य दलों द्वारा नीतीश कुमार पर ‘दगा’ तथा ‘छल’ के आरोप लगाये गये. यह कहा गया कि उन्होंने 2015 में महागठबंधन को मिले जनादेश के साथ विश्वासघात किया तथा भाजपा का […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
पिछले कुछ दिनों के अनंतर बिहार में हुए अहम परिवर्तनों के संदर्भ में कांग्रेस, राजद एवं कुछ अन्य दलों द्वारा नीतीश कुमार पर ‘दगा’ तथा ‘छल’ के आरोप लगाये गये. यह कहा गया कि उन्होंने 2015 में महागठबंधन को मिले जनादेश के साथ विश्वासघात किया तथा भाजपा का साथ लेकर सत्ता के लालच में ‘अवसरवादिता’ प्रदर्शित की. यह वक्त ऐसे आरोपों के संदर्भ में सही तथ्य सामने रखे जाने का है.
नयी दिल्ली के नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय में 10 फरवरी, 2017 को पी चिदंबरम की पुस्तक के लोकार्पण समारोह में नीतीश कुमार ने विपक्ष की एकजुटता के लिए एक बड़ी ही सुसंगत तथा तार्किक अपील की थी और कहा था कि विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व के सवाल को इस मार्ग की बाधा नहीं बनने दिया जाना चाहिए. उस समारोह की अगली पंक्ति में डॉ मनमोहन सिंह के साथ बैठे राहुल गांधी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा था कि आप इस गठबंधन के नेता बन सकते हैं. यह एक सार्वजनिक तथा सद्भावपूर्ण पेशकश थी, पर समारोह की समाप्ति के बाद नीतीश से एक भी शब्द बोले बगैर राहुल बाहर निकल गये.
इसके बाद भी, कई अवसरों पर विपक्षी एकता के लिए एक भरोसेमंद सैद्धांतिक विवेचना और भारत के भविष्य के लिए एक वैकल्पिक तस्वीर की जरूरत पर जोर देते हुए नीतीश यह बताते रहे कि विपक्ष की एकता केवल एक नारा अथवा छिटफुट मुद्दों के हित साधने का साधन नहीं हो सकती. पर उनकी अपील पर कान न देते हुए इस दिशा में कांग्रेस ने कोई भी अहम पहलकदमी नहीं की.
यहां यह याद रखना भी महत्वपूर्ण होगा कि नीतीश ने इस लक्ष्य के लिए अपने व्यक्तिगत अहम को कभी आड़े नहीं आने दिया. 2015 में जब संपूर्ण समाजवादी परिवार को एकजुट करने की कोशिशें हुईं, तो उन्होंने मुलायम को इस ब्यूह रचना के नेतृत्व की खुली पेशकश करते हुए समाजवादी पार्टी के चुनाव चिह्न तक को स्वीकारने की तैयारी दिखायी. मगर, जिस दल को इस उदारता का सबसे अधिक लाभ मिला होता, उसी ने इस योजना को परवान न चढ़ने दिया. यहां तक कि 2015 के बिहार चुनाव के दौरान सपा ने जद (यू) के विरोध में अपने उम्मीदवार तक खड़े कर दिये.
उस चुनाव में महागठबंधन की निर्णायक जीत हुई, पर पिछले चंद महीनों के दौरान लालू प्रसाद तथा उनके परिवार के नाम बेनामी संपत्तियों की खबरें सार्वजनिक होने लगीं, जो स्पष्टतः अपने पदों के दुरुपयोग द्वारा खड़ी की गयी थीं.
यह तो सर्वविदित है कि नीतीश ने भ्रष्टाचार के प्रति हमेशा ही ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाते हुए सार्वजनिक जीवन में शुचिता पर सर्वाधिक बल दिया है. इसके बावजूद, ऐसे मामलों में अपने ही दल के सदस्यों पर की गयी कार्रवाइयों के विपरीत, उन्होंने प्रत्यक्षतः तेजस्वी से त्यागपत्र देने को न कहते हुए सिर्फ इतना ही कहा कि उन्हें उन पर दर्ज प्राथमिकी पर बिंदुवार ढंग से अपना तथ्याधारित खंडन जनता के सामने रखना चाहिए. यह महागठबंधन की छवि के लिए जरूरी था.
इस अपील की कोई सुनवाई नहीं हुई. इसकी बजाय, मुख्यमंत्री पर व्यक्तिगत आरोप मढ़े जाने लगे तथा भ्रष्टाचार के आरोपों को धर्मनिरपेक्षता की दुहाई से कुंद किया जाने लगा, मानो धर्मनिरपेक्षता व्यक्तिगत भूलों पर डाला जानेवाला कोई परदा हो. 28 जुलाई को बिहार विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के क्रम में नीतीश कुमार ने ठीक ही कहा कि किसी को भी उन्हें धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने की जरूरत नहीं.
जो लोग मुसलिमों को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं, उनके ठीक उलट नीतीश ने एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में बिहार में मुसलिमों के कल्याण के लिए जो कुछ किया, वह लालू शासन के 15 वर्षों से कहीं ज्यादा है.
इसलिए, नीतीश पर आधारहीन आरोपों से उनके आक्रोशित तथा आहत होने का आधार था. इसके बाद भी, उन्होंने गठबंधन को बचाने की अपनी कोशिशें न छोड़ते हुए लालू प्रसाद तथा तेजस्वी से मुलाकात की.
गठबंधन की तीसरी साझीदार कांग्रेस से हस्तक्षेप की अपील करते हुए उन्होंने इस संबंध में दिल्ली में राहुल गांधी से भी बातें कीं, किंतु दुर्भाग्यवश, नीतीश के इस वाजिब रुख के समर्थन में कांग्रेस का एक भी बयान नहीं आया. यही नीतीश द्वारा भाजपा से हाथ मिलाने की पृष्ठभूमि थी.
यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि अतीत में जद (यू) तथा भाजपा दोनों 17 वर्षों तक एनडीए में साझीदार रहे और 2005 में पहली बार वे मुख्यमंत्री भी भाजपा के ही समर्थन से बने. उपमुख्यमंत्री के रूप में सुशील मोदी के साथ उनके आठ वर्षों के शासन काल में बिहार क्रांतिकारी परिवर्तनों का साक्षी बना. एक बार फिर उसी टीम की वापसी हुई है और 1990 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि बिहार के साथ ही केंद्र में भी एक ही पार्टी सत्तारूढ़ है.
इसमें कोई शुबहा नहीं कि यह बिहार की जनता के हित में है. 26 जुलाई को अपना त्यागपत्र सौंपने के पश्चात नीतीश ने कहा भी कि यह फैसला लेते वक्त मेरे मस्तिष्क में सिर्फ बिहार का हित था.
साफ कहा जाये, तो राजद की हठधर्मिता देखते हुए बिहार का प्रशासन लगभग ठप पड़ चुका था और यह स्थिति सुशासन बाबू के नाम से ख्यात नीतीश के लिए असहनीय हो चुकी थी. समावेशी विकास, खासकर अति पिछड़ों तथा महादलितों को लक्षित उनकी सभी योजनाएं शिथिलता की शिकार बन गयी थीं और राजद द्वारा भ्रष्टाचार का खुला खेल अस्वीकार्य हदों को छूने लगा था.
अंतिम बात. कांग्रेस तथा राजद का यह मत है कि भाजपा का साथ लेकर नीतीश कुमार ने 2015 के बिहार चुनाव से मिले जनादेश के साथ विश्वासघात किया है. इस आरोप का एक ही जवाब है कि 2015 का जनादेश सुशासन तथा बिहार के विकास के लिए मिला था, न कि किसी एक परिवार के लाभ के लिए भ्रष्टाचरण की छूट के लिए.
अब यदि भाजपा के साथ जाना उस जनादेश को धोखा देना है, तो फिर 2013 में कांग्रेस एवं राजद ने नीतीश को तब समर्थन क्यों दिया था, जब 2010 का विशाल जनादेश उन्होंने भाजपा की साझीदारी में जीता था? राजद, कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों के लिए जरूरत इस बात की है कि वे इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आईने में नजर आते अपने अक्स पर गौर करें. उन्हें पूरी तरह एक अलहदा तसवीर उभरती दिखेगी.
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