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अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध में वैश्विक अर्थव्यवस्था हाई अलर्ट पर

अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वार नित नये रूप ले रहा है. एक तरफ अमेरिका आक्रामक बना हुआ है, वहीं नुकसान के बावजूद चीन भी झुकने को तैयार नहीं है. राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि विगत तिमाही में चीन की अर्थव्यवस्था साल 2009 के बाद सबसे धीमी वृद्धि […]

अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वार नित नये रूप ले रहा है. एक तरफ अमेरिका आक्रामक बना हुआ है, वहीं नुकसान के बावजूद चीन भी झुकने को तैयार नहीं है. राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि विगत तिमाही में चीन की अर्थव्यवस्था साल 2009 के बाद सबसे धीमी वृद्धि दर पर पहुंच गयी है. चीन ने ट्रेड वार के लिए अमेरिका को दोषी ठहराया है और एकतरफा व्यापारिक संरक्षणवाद को प्रोत्साहित करने का आरोप भी लगाया है. इसके अतिरिक्त, चीन ने भारत से सहयोग में आने के लिए अपील की है और इसके पीछे भविष्य में अमेरिकी नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में रुकावट पैदा होने का खतरा होने का हवाला चीन ने भारत को दिया है.

वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभाने वाले देशों, अमेरिका और चीन के बीच छिड़े ट्रेड वार ने दुनिया भर के नीति-निर्माताओं को सोच में डाल दिया है और अब विश्लेषक इसे ‘कोल्ड वार (शीत युद्ध)’ की आहट बता रहे हैं. ट्रेड वार के इन सभी पक्षों पर केंद्रित है आजका इन दिनों….

अभिजित मुखोपाध्याय

अर्थशास्त्री

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जून 2018 में, जी7 देशों के शिखर सम्मेलन के अवसर पर एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा, ‘अमेरिका की बचत में हर कोई सेंध लगा रहा है.’ 2016 के अपने चुनावी मुहिम के दौरान ट्रंप ने अमेरिकी जॉब के ‘संरक्षण’ के वादे करते हुए पूरी दुनिया के विभिन्न देशों के साथ अमेरिकी व्यापार व्यवस्था की शर्तों के संबंध में ‘फिर से बातचीत’ कर अमेरिकी व्यापार घाटे को समाप्त कर देने की बात की. पर वास्तव में यह बातचीत की बजाय चीन सहित विभिन्न देशों से आयातों पर सीमा शुल्क में की गयी एकतरफा वृद्धि ही सिद्ध हुआ, जिसके प्रत्युत्तर में उन देशों ने भी अमेरिका से आयातित माल पर शुल्क बढ़ा डाले.

इस दिशा में कार्रवाइयों की शुरुआत करते हुए, मार्च 2018 के आरंभ में अमेरिका ने 92 अरब डॉलर मूल्य के आयातों पर शुल्क बढ़ाये, जिनमें स्टील एवं एल्युमीनियम उत्पाद, वाशिंग मशीनें, सोलर पैनेल तथा कई तरह के दूसरे सामान शामिल थे, अमेरिका को जिनके निर्यात का मुख्य हिस्सा चीन से जाता था. इस शुल्क वृद्धि से प्रभावित अन्य देशों में ब्राजील, कोरिया, अर्जेंटीना, भारत तथा यूरोपीय संघ के देश शामिल थे.

इसके बाद के घटनाक्रम में, अगस्त 2018 में अमेरिका ने अपने यहां आयातित 16 अरब डॉलर के अन्य उत्पादों पर 25 प्रतिशत की शुल्क वृद्धि थोप दी, जिनमें मोटर साइकिलें तथा एरियल एवं ऑप्टिकल फाइबर शामिल थे.

अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया में, इस वृद्धि से प्रभावित सभी देशों ने भी अमेरिकी वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ा दिये. यूरोपीय संघ ने 340 किस्मों के अमेरिकी सामानों पर शुल्क बढ़ा दिये, जिनकी कीमत लगभग यूरोप से अमेरिका भेजे जानेवाले स्टील एवं एल्युमीनियम माल की कीमत जितनी यानी 7.2 अरब डॉलर ही थी. यूरोपीय संघ ने अपनी इस कार्रवाई को ‘प्रतिसंतुलन के कदम’ का नाम दिया.

इसी भांति, कनाडा ने भी अमेरिका से अपने यहां आयातित 16.6 अरब कनाडियन डॉलर मूल्य के स्टील, एल्युमीनियम, नारंगी रस, व्हिस्की तथा अन्य खाद्य उत्पादों पर 25 प्रतिशत तक की शुल्क वृद्धि कर दी. ज्ञातव्य है कि अमेरिकी कदम से प्रभावित कनाडा से अमेरिका को निर्यात किये जानेवाले स्टील की कीमत भी लगभग इतनी ही ठहरती है. मेक्सिको ने भी डेयरी, बागबानी तथा मांस से संबद्ध अपने कई आयातित उत्पादों पर लगभग उतनी ही शुल्क वृद्धि कर डाली, जितनी क्षति उसे अमेरिकी शुल्क वृद्धि से पहुंची थी.

अमेरिका द्वारा चीन से आयातित उत्पादों पर शुल्कवृद्धि के जवाब में शुरुआती अप्रैल में, चीन ने भी अमेरिका से चीन में आयातित 3 अरब डॉलर के 128 उत्पादों पर जवाबी शुल्क वृद्धि की घोषणा की.

उसने प्रथम कोटि में ताजे फल, सूखे मेवे एवं गिरियां, शराब, परिवर्तित एथेनॉल, अमेरिकी जिनसेंग और जोड़रहित स्टील पाइपों सहित कई वस्तुओं पर 15 प्रतिशत शुल्क वृद्धि की, जबकि दूसरी कोटि में सूअर का मांस तथा उसके उत्पादों तथा पुनर्चक्रित एल्युमीनियम पर यह वृद्धि 25 प्रतिशत की थी. इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए चीन ने अमेरिका से आयातित रसायन उत्पादों, चिकित्सकीय उपकरणों तथा ऊर्जा पर पुनः 25 प्रतिशत शुल्क वृद्धि थोप दी.

चीनी सरकार ने 8 अगस्त को चीन में आयातित अमेरिकी उत्पादों की अतिरिक्त किस्मों पर सीमा शुल्क बढ़ाने के इरादे की घोषणा तब की, जब चीन का शीर्ष नेतृत्व अपनी सालाना बैठक करने जा रहा था. बाद में, उसका यह इरादा अमेरिका से 60 अरब डॉलर के आयातित सामानों पर लागू कर दिया गया. चीन की राज्य परिषद के सीमा शुल्क आयोग ने 5,207 अमेरिकी उत्पादों की सूची जारी की, जिन पर 5 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक के अतिरिक्त शुल्क लाद दिये गये, निकट भविष्य में जिसके नतीजे खासे अहम होंगे.

मगर कार्रवाई तथा जवाबी कार्रवाई का यह सिलसिला तब अविराम-सा चलता दिखा, जब अगले चक्र में अमेरिका ने 200 अरब डॉलर की चीनी वस्तुओं पर शुल्क की नयी दरें चस्पा कर दीं, जो मध्य सितंबर से लागू हो गयीं. पिछली किस्त के शुल्कों के विपरीत, जिनके निशाने पर मुख्यतः पूंजीगत वस्तुएं थीं, इस बार हजारों उपभोक्ता वस्तुओं को लक्ष्य किया गया, जिनमें लगेज और इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर घरेलू बर्तन तथा खाद्य तक शामिल थे.

इन पर आयात शुल्क की वृद्धि से निस्संदेह इनकी लागतें और कीमतें भी बढ़ जाएंगी. ये कदम उठाते हुए अमेरिका ने चीन की उन ‘अनुचित नीतियों तथा व्यवहारों’ को जिम्मेवार ठहराया, जिन्हें संबोधित करने की दिशा में वह ‘उदासीन’ रहा है. उत्तर में चीन ने अमेरिका के इस निर्णय पर खेद जताते हुए यह कहा कि उसके पास ‘प्रत्युत्तर में जवाबी कदम उठाने के सिवाय कोई चारा नहीं’ है.

शायद अनिच्छा से ही, मगर भारत भी इस व्यापार युद्ध में सना जा रहा है. भारत सरकार ने 18 सितंबर से 29 मुख्य अमेरिकी आयातों पर उच्चतर शुल्क लगा दिये, जिनमें वास्तविक आयात की कीमत 2017-18 में 1.5 अरब डॉलर थी. ऐसा इसलिए किया गया, ताकि इस वर्ष मई में अमेरिका द्वारा स्टील तथा एल्युमीनियम पर आयात शुल्क बढ़ाये जाने के नतीजे में भारत को उनसे हुई हानि की भरपाई की जा सके. इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि यह शुल्क युद्ध चलता रहता है, तो भारत द्वारा और भी वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाये ही जाएंगे.

यदि चीनी वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाते जाने की अमेरिकी सरकार की इच्छा जारी रहती है, तो चीन को बड़ा नुकसान पहुंचना तय है, क्योंकि वर्ष 2012 से वर्ष 2016 के बीच, चीन से अमेरिका का आयात 481.52 अरब डॉलर की ऊंचाई का स्पर्श कर रहा था. जबकि दूसरी ओर, इसी अवधि के दौरान अमेरिका से चीन का आयात 115.60 अरब डॉलर का ही था. इस तरह, इस युद्ध से अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रह सकेगी, जैसी उम्मीद कुछ अर्थशास्त्रियों ने की थी.

कई एशियाई अर्थव्यवस्थाएं चीन को मध्यवर्ती सामानों का निर्यात करती हैं और फिर चीन उन हिस्सों को जोड़कर उनसे तैयार वस्तुओं का निर्माण कर, उन्हें कई देशों को निर्यात करता है, जिनमें अमेरिका मुख्य है. इसलिए, ताइवान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर तथा मलयेशिया जैसी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को भी गंभीर क्षति पहुंच सकती है, जो चीन को काफी मात्रा में मध्यवर्ती सामानों का निर्यात करती हैं.

यदि एक ‘पूर्ण व्यापार युद्ध’ (जिसका अर्थ समस्त व्यापारिक वस्तुओं पर 15 प्रतिशत से 25 प्रतिशत सीमा शुल्क वृद्धि है) छिड़ जाता है, तो कुछ अनुमानों के अनुसार, सिंगापुर की अपेक्षित विकास दर में जहां 0.8 प्रतिशत की कमी आ जाएगी, वहीं ताइवान एवं मलयेशिया की प्रत्याशित विकास दर 0.6 प्रतिशत और तथा दक्षिण कोरिया की अपेक्षित विकास दर 0.4 प्रतिशत की कमी का सामना करेंगी. पर चीन और अमेरिका की विकास दरों में तो इसका असर 0.25 प्रतिशत की ऊंचाई को भी छू सकता है.

शुरुआत में भारत के कई आर्थिक टिप्पणीकार इस विचार से उत्साहित दिखे कि कुछ निर्यात बाजारों में भारत चीन की जगह ले सकेगा, पर दोनों देशों के निर्यातों पर गौर करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे अनुमान दिवास्वप्नों से अधिक और कुछ नहीं हैं. चीन के निर्यातों में अधिक उन्नत विनिर्माण उत्पाद शामिल हैं, जबकि अमेरिका को चीनी निर्यातों में भारत से कहीं अधिक विविधता है.

भारत अमेरिका ही नहीं, अन्य किसी भी निर्यात बाजार में चीन का स्थानापन्न बनने की स्थिति में नहीं है. दूसरी बात यह है कि अमेरिका अथवा अन्य किसी भी देश द्वारा व्यापारिक वस्तुओं पर शुल्क वृद्धि से भारत पर नकारात्मक असर पड़नेवाला है, भले ही वह चीन पर पड़नेवाले असर से कम हो. कुछ दूसरे अनुमानों के अनुसार, भारत की प्रत्याशित विकास दर में इस व्यापार युद्ध से 0.2 प्रतिशत की कमी आ जाएगी. भारत समेत किसी भी देश को इस युद्ध से कोई लाभ नहीं पहुंचने वाला, इतना तो तय है.

वर्ष 2016 में विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों का कुल निर्यात 15.71 लाख करोड़ डॉलर मूल्य का था, जबकि इसी अवधि में उनके द्वारा सेवाओं के निर्यातों की कीमत 4.73 लाख करोड़ डॉलर थी. व्यापार की इन समग्र संख्याओं पर गौर करने से यह पता चलता है कि शुल्क वृद्धि अभी भी किसी चिंताजनक स्तर तक नहीं पहुंच पायी है.

पर यदि यह युद्ध बेरोकटोक जारी रहा, तो इसकी चक्रवृद्धि शीघ्र ही बड़े आयामों में पहुंच कर विश्व को भीषण नुकसान का भुक्तभोगी बना सकती है. आपसी समस्याओं को बहुपक्षीय मंचों पर सलटा लेना सबसे सीधा और सरल समाधान हो सकता था, पर अभी की परिस्थितियों में कोई भी देश संवाद और समाधान में दिलचस्पी रखता नहीं दिखता. और यह विश्व की प्रत्येक अर्थव्यवस्था के लिए एक बुरी खबर है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

अमेरिका-चीन द्वंद्व का असर

ट्रेड वार की रस्साकसी के बीच अमेरिका लगातार कोशिश में रहा है कि उसके 375 अरब डॉलर के व्यापार घाटे में कमी आये. इसी क्रम में अमेरिका ने सितंबर में चीन से आयात की जाने वाली 200 अरब डॉलर की वस्तुओं पर 10 प्रतिशत का शुल्क लगा दिया था. इसके बाद, ट्रंप ने चीन से आयातित 267 अरब डॉलर की अन्य वस्तुओं पर भी शुल्क लगाने की धमकी दी है.

चीन से अमेरिका में कुल 522.9 अरब डालर का सालाना निर्यात किया जाता है. विशेषज्ञों के अनुसार,चीन से आयात किये जाने वाले सामान पर अमेरिका का नया शुल्क 24 सितंबर से प्रभावी हुआ है, अतः इसका असर साल के उत्तरार्द्ध या फिर साल 2019 के प्रारब्ध के साथ दिखेगा. चीन के सीमा शुल्क विभाग के अनुसार अमेरिका के साथ व्यापार के अंतर्गत व्यापार अधिशेष में सितंबर महीने में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यह आंकड़ा अगस्त महीने में 31.05 अरब डॉलर था. हालांकि इस दौरान, चीन का पूर्ण व्यापार अधिशेष 28.3 प्रतिशत कम हुआ है और 1440 अरब युआन रह गया है.

चीन जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ कस्टम्स (जीएसी) प्रवक्ता हुआंग सोंगपिंग के अनुसार विद्युत-यांत्रिकी उत्पादों का निर्यात भी 7.8 प्रतिशत बढ़कर 6910 अरब युआन हो गया है और यह चीन के कुल निर्यात का 58.3 प्रतिशत है. हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चीन के खिलाफ अभियान के कारण हाल के महीने में उसके घरेलू मांग में कमी आनी शुरू हो गयी है. नीतिगत समर्थन जैसे कदम उठाकर बीजिंग इससे बचने की कोशिश कर रहा है. लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि चूंकि दूसरी छमाही के बाद चीन के विकास की संभावना पर जाेखिम और बढ़ेगा, इसलिए उसे और समर्थन उपायों की आवश्यकता होगी.

जब से यह खबर आयी है कि तीसरी तिमाही में चीन की वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रही, जो 2009 की वैश्विक आर्थिक संकट के बाद सबसे धीमी वृद्धि है, निवेशकों के बीच हताशा व्याप्त हो गयी है. एक निजी सर्वेक्षण की मानें तो 15 महीने के विस्तार के बाद चीन के विशाल कारखाना क्षेत्र ठप्प हो गये हैं और यहां के निर्यात ऑर्डर में दो साल से अधिक की अवधि में पहली बार कमी दर्ज हुई है. आधिकारिक सर्वेक्षण ने भी इस बात की पुष्टि की है कि मांग में कमी से निर्माता तनाव में आ रहे हैं.

वहीं इस संबंध में शंघाई के बैंक ऑफ कम्युनिकेशंस के वरिष्ठ अर्थशास्त्री टैंग जिआनवेई ने कहा कि अर्थव्यवस्था के नीचे जाने का यह दबाव अपेक्षाकृत बड़ा है क्योंकि खपत कमजोर है और बुनियादी ढांचे के निवेश को अभी स्थिर किया जाना बाकी है. ऐसे में बाहरी दबाव बढ़ने पर नीतियों को समायोजित करना जरूरी है.

क्या कहती है चीन राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो की रिपोर्ट ?

चीन ट्रेड वार में नुकसान उठाने के बावजूद अमेरिका के सामने झुकने से इंकार करता रहा है. राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, इस साल तीसरी तिमाही (जुलाई, अगस्त, सितंबर) में चीन की अर्थव्यवस्था में सबसे धीमी वृद्धि दर दर्ज की गई है. यह साल 2009 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद चीन के लिए सबसे बुरी स्थिति है.

राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो ने जुलाई से लेकर सितंबर तक चीन की अर्थव्यवस्था में 6.5 फीसदी की वृद्धि दर दर्ज की है. चीन के नीति निर्माताओं ने अर्थव्यवस्था को टिकाये रखने के लिए बहुत कोशिश की है, लेकिन ट्रेड वार का सामना कर रही चीन की अर्थव्यवस्था इस समय बड़ी आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है.

रिपोर्ट में अनुमान के अनुसार, अमरीका के साथ चल रहे ट्रेड वार के कारण चीन को अपने विकास संबंधी आंकड़ों पर भी भविष्य में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. हालिया रिपोर्ट में यह स्पष्ट है कि पिछली तिमाही में चीन की वृद्धि दर 6.7 फीसदी थी. इसके साथ ही, चीन के व्यापारियों में बेचैनी देखने को मिल रही है. चीन पर 5.8 ट्रिलियन डॉलर का छिपा हुआ कर्ज भी है. इसलिए चीन के अर्थनीतिज्ञों के बीच अब कवायद चल रही है कि वे चीन की अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने का कारगर उपाय निकालें. वहीं चीन के सामने अमरीका अपने पूरे आक्रामक तेवर के साथ चालें चल रहा है.

हालांकि, देश के स्तर पर चीन निर्यात को कम करने की नीति अपनाता रहा है और वहीं विकास दर बढ़ाने के लिए घरेलू खपत पर अधिक निर्भर रहने की नीतिगत कोशिशें करता रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर महीने में कारखानों के उत्पादन में कमी आयी है और खुदरा बिक्री भी उम्मीद के अनुसार नहीं रही है.

भारत से मदद की आस में है चीन

ट्रेड वार के बीच हाल ही में चीनी दूतावास ने व्यापार में संरक्षणवाद से मुकाबले के लिए भारत से सहयोग मजबूत करने की बात कही थी और ट्रेड वार के लिए अमेरिका को दोषी ठहराया था. चीनी दूतावास के प्रवक्ता, जी रोंग ने कहा था कि दुनिया के दो बड़े विकासशील देश और सबसे बड़े उभरते बाजार होने के नाते, चीन और भारत दोनों को सुधार और अर्थव्यवस्था के विकास के महत्वपूर्ण चरण में है.

जी रोंग के अनुसार, सुरक्षा व ‘फ्री मार्केट’ के नाम पर एकतरफा व्यापार संरक्षणवाद को बढ़ावा देने से चीन का आर्थिक विकास प्रभावित होगा और भारतीय अर्थव्यवस्था में भी रुकावटें आयेंगी. चीनी दूतावास के अनुसार, चीन और भारत बहुध्रुवीय व्यापार प्रणाली और मुक्त व्यापार की रक्षा हेतु समान हित साझा करते हैं और एक दूसरे की सहायता कर सकते है. इसलिए, वर्तमान परिस्थितियों के अंतर्गत, चीन व भारत को व्यापार संरक्षणवाद के एकतरफा खेल का सामना करने के लिए एक-दूसरे के प्रति सहयोग बढ़ाने की जरूरत है.

पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या वैश्विक

अर्थव्यवस्था में ला सकती है भूचाल

वैश्विक अर्थव्यवस्था को बरकरार रखने के लिए चिंतित नीति-निर्माताओं को ट्रेड वार के अलावा, तुर्की में हुई जमाल खशोगी की हत्या को लेकर जारी घटनाक्रमों पर भी नजर बनाये रखने की जरूरत है.

सऊदी द्वारा खशोगी की हत्या की बात कबूल कर ली गयी है. इसके बाद अमेरिका और सऊदी अरब के बीच समस्याएं पैदा हो सकती हैं, जिसका भुगतान दुनिया भर के आम लोग करेंगे. सऊदी अरब के साथ संबंधों को नया आयाम देने वाले ट्रंप के लिए जमाल खशोगी की हत्या को दबाना संभव नहीं है.

खशोगी की हत्या में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद का सीधा हाथ होने के सबूत सामने आये हैं. हत्या के पीछे का कारण मोहम्मद बिन सलमान की नीतियों के प्रति खशोगी का आलोचनात्मक होना बताया जा रहा है. इसके बाद अमेरिका सऊदी अरब पर दबाव बनाना चाहेगा.

कुछ दिन पहले डोनाल्ड ट्रंप ने सऊदी अरब को खशोगी की गुमशुदगी की आशंकाओं के बीच चेतावनी भी दी थी और जवाब में सऊदी अरब ने तेल को हथियार की तरह इस्तेमाल करने और बतौर धमकी कीमतों में 100 से 200 डॉलर की बढ़ोतरी करने का संकेत दिया था.

पिछले सोमवार कच्चे तेल की कीमतों में आये उछाल को भी केवल आर्थिक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए. इस मामले को लेकर कुछ यूरोपीय देशों ने पहले ही जांच की मांग की थी. इससे पहले, योम किप्पूर युद्ध, 1973 की शुरुआत में भी सऊदी अरब ने तेल को हथियार बनाया था. अगर ये धमकी हकीकत में इस्तेमाल की जाती है, तो वैश्विक बाजारों के लिए बुरे स्वप्न जैसा होगा, जो पहले ही अमेरिकी वित्तीय शुल्कों और ऊंची ब्याज दरों के झटकों से अभी उबरने की प्रक्रिया में लगा हुआ है.

सऊदी अरब वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इसके पीछे वजह यही है कि वह तेल के उत्पादन और उसकी कीमतें तय करने की प्रक्रिया में सबसे अधिक प्रभुत्व रखता है. हालांकि, कोई देश नहीं चाहता कि तेल की कीमतों बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हो, लेकिन अगर ऐसा होता है तो बुरी स्थिति खड़ी होगी.

गौरतलब है कि तेल की जगह लेने की क्षमता रखने वाले वैकल्पिक ऊर्जा तकनीकों अथवा न्यूक्लियर/नैचुरल गैस या शेल तेल का उत्पादन इतना महंगा है व उत्पादन में इतना समय लगता है कि उससे पहले वैश्विक अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी होगी और इसका सर्वाधिक असर सऊदी अरब के साथ बहुआयामी कार्यक्रमों में जुड़े अमेरिका पर दिखाई देगा.

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