Parliament: राज्य सभा सांसद डॉ भीम सिंह ने शून्यकाल के दौरान एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा की ओर सदन का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि मेडिकल साइन के रूप में पहले लाल रंग के प्लस के चिन्ह (+) का व्यापक रूप से प्रयोग होता था, लेकिन रेड क्रॉस संगठन की आपत्ति के उपरांत इस चिह्न का उपयोग भारत में बंद कर दिया गया. उसके बाद से चिकित्सा क्षेत्र में प्रतीकों के रूप में विदेशी चिन्हों का प्रयोग बढ़ता गया.
आज भी हमारे देश में चिकित्सा के प्रतीक के रूप में दो विदेशी चिह्नों “कैड्यूसियस” तथा “रॉड ऑफ एस्क्लिपियस” का उपयोग किया जा रहा है. कैड्यूसियस दो सांपों और पंखों वाला चिह्न है, जो प्राचीन यूनानी देवता हर्मिस का प्रतीक था और जिसका संबंध व्यापार, वाणिज्य व संदेशवाहन से था, चिकित्सा से नहीं. वहीं रॉड ऑफ एस्क्लिपियस एक सांप वाले डंडे का चिह्न है, जो यूनान की चिकित्सा परंपरा पर आधारित है और यह पूरी तरह विदेशी अवधारणा है.
भारतीय पहचान का कोई औपचारिक प्रतीक मौजूद नहीं

डॉ सिंह ने कहा कि भारत जैसे प्राचीन और समृद्ध चिकित्सा विरासत वाले देश में इन विदेशी प्रतीकों का उपयोग हमारी वैद्यकीय परंपरा, आयुर्वेदिक दर्शन और चिकित्सा इतिहास के साथ न्याय नहीं करता. हमारे पास योग, आयुर्वेद, सिद्ध, चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसी अमूल्य धरोहरें हैं. सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है, फिर भी हमारे आधुनिक चिकित्सा तंत्र में भारतीय पहचान का कोई औपचारिक प्रतीक मौजूद नहीं है.
उन्होंने कहा कि एक स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में यह हमारा दायित्व है कि हमारे चिकित्सा प्रतीक हमारी अपनी संस्कृति, ज्ञान परंपरा और वैज्ञानिक विरासत को दर्शाएं. उन्होंने सरकार से आग्रह करते हुए कहा कि कैड्यूसियस और रॉड ऑफ एस्क्लिपियस, दोनों विदेशी प्रतीकों को हटाकर, भारत की चिकित्सा परंपरा पर आधारित एक नया, स्वदेशी, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त चिकित्सा प्रतीक निर्धारित किया जाये.

