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मेरी माटी, मेरा देश : ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़ वतन पर मर मिटीं पंजाब की गुलाब कौर

‘मेरी माटी, मेरा देश’ शृंखला में आज हम ऐसी जांबाज महिला से परिचित करवा रहे हैं, जो ऐशो-आराम की जिंदगी को त्याग कर स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़ीं. ब्रिटिश हुकूमत से देश को मुक्त करवाने के लिए कई बार जेल की यात्रा की.

‘मेरी माटी, मेरा देश’ शृंखला में आज हम ऐसी जांबाज महिला से परिचित करवा रहे हैं, जो ऐशो-आराम की जिंदगी को त्याग कर स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़ीं. ब्रिटिश हुकूमत से देश को मुक्त करवाने के लिए कई बार जेल की यात्रा की. क्रांतिकारी साहित्य बांट कर लोगों को आजादी की लड़ाई से जोड़ा. भारत माता की इस बेटी का नाम है गुलाब कौर. तो आज पेश है उनकी वीरता की कहानी.

गुलाब कौर, पंजाब की इस जांबाज बेटी ने फिलीपींस की खूबसूरत जिंदगी को छोड़ कर देश के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने का फैसला किया. तमाम कष्ट के बावजूद हार नहीं मानी. हर कदम पर देश को परिवार के ऊपर रखा. स्वतंत्रता आंदोलन में वह पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर चलीं और देश पर मर मिटीं. कहा जाता है कि बेहद कम उम्र में ही उनका विवाह मान सिंह से हुआ था. विवाह के बाद नवदंपती ने बेहतर भविष्य के लिए फिलीपींस जाने का फैसला किया. मनीला में रहने के दौरान वह ‘गदर पार्टी’ के सदस्यों के संपर्क में आयीं.

ब्रिटिश हुकूमत से भारत को आजाद कराने में अहम योगदान

दरअसल, यह भारतीय क्रांतिकारियों का एक संगठन था. यहां वह संगठन के नेताओं के विचारों से प्रेरित हुईं. इसके बाद उन्होंने तय किया कि वह इस संगठन से जुड़ कर ब्रिटिश हुकूमत से भारत को आजाद कराने में अपना योगदान देंगी. उनके इस फैसले से पति सहमत नहीं थे. इसके बाद उन्होंने इस चुनौतीपूर्ण पथ पर अकेले ही आगे बढ़ने का मन बनाया.भावुकता को मन में संजो कर करीब पचास देशभक्तों के साथ वह भारत लौट आयीं और आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं. फिर उन्होंने पलट कर नहीं देखा.

लोगों को आजादी की लड़ाई के लिए जागरूक किया

स्वदेश लौटने के बाद वह पंजाब के कपूरथला, होशियारपुर व जालंधर जैसे स्थानों में सक्रिय हो गयीं. यहां लोगों को आजादी की लड़ाई के लिए जागरूक करती थीं. इसी क्रम में उन्हें कई बार जेल की यात्रा करनी पड़ी. तमाम तरह की परेशानियों के बावजूद वह पीछे नहीं हटीं. अपने क्रांतिकारी कदमों की वजह से वह एक बार फिर ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में चढ़ गयीं. 1929 में ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें पकड़ लिया. लाहौर (पाकिस्तान) के एक किला में वह दो साल तक कैद रहीं. इस दौरान उन्हें लगातार प्रताड़ित किया गया. जानकारों का कहना है कि दो वर्ष साल बाद जब वह जेल से बाहर आयीं, तो बहुत कमजोर और बीमार हो गयीं थी. हालांकि, उनकी रगों में बहने वाले क्रांतिकारी रक्त ने आराम नहीं किया. कुछ साल बाद उन्होंने वतन पर अपनी जान कुर्बान कर दी.

मिली थी ‘गदरी गुलाब कौर’ की उपाधि

गुलाब कौर का जन्म 1890 में पंजाब के संगरूर जिले के बक्शीवाला गांव में किसान परिवार में हुआ था. क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें गदरी गुलाब कौर की उपाधि दी गयी थी. गुलाब कौर से नयी पीढ़ी को अवगत करवाने के लिए 2014 में केसर सिंह ने पंजाबी में ‘गदर दी धी गुलाब कौर’ नाम से एक उपन्यास लिखा है. आजादी का अमृत महोत्सव से जुड़ी बेबसाइट पर भी उनके योगदान की चर्चा की गयी है.

क्रांतिकारी साहित्य बांट कर लोगों को किया प्रेरित

जानकारों का कहना है कि गुलाब कौर ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े साहित्य को लोगों के बीच बांटने में अहम भूमिका निभायी थी. उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस पर कड़ी निगरानी रखी. कई मौकों पर पत्रकार के रूप में खुद को प्रस्तुत करते हुए साथियों की मदद की. क्रांतिकारी साहित्य को आगे बढ़ा कर आमलोगों को को भी स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया.

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