Caste Census: जातिगत जनगणना कराने के केंद्र सरकार के फैसले को विपक्ष अपनी जीत बता रहा है. लेकिन केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का फैसला लेकर विपक्षी दलों को हैरान कर दिया है. इस फैसले को लेकर विपक्ष के विभिन्न दलों में श्रेय लेने की होड़ मची हुई है. वहीं एनडीए में शामिल घटक दल जनगणना कराने के फैसले को बड़ा राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं. मंगलवार को एनडीए के घटक राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने आरोप लगाया कि दक्षिण भारत के कुछ राजनीतिक दल परिसीमन के नाम पर जातिगत जनगणना को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. दक्षिण भारत के कुछ राजनीतिक दलों को लगता है कि यदि जातिगत जनगणना की गयी तो संख्या के आधार पर संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व तय होगा और इससे दक्षिण के राज्यों की राजनीतिक ताकत कम हो सकती है. यह सही है कि दक्षिण भारत के राज्यों ने आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर काफी प्रगति किया है, लेकिन सभी को यह ध्यान रखना चाहिए कि दक्षिण के राज्य परिसीमन के मुद्दे पर भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.
गलत तथ्यों के आधार पर परिसीमन को रोकने की कोशिश
कुशवाहा ने कहा कि संविधान में की गई व्यवस्था के अनुसार वर्ष 1951, 1961 एवं 1971 में हुई 10 वर्षीय जनगणना के आधार पर परिसीमन का काम हुआ. हर बार बढ़ी हुई आबादी के अनुसार क्षेत्रों की संख्या का निर्धारण एवं उनका विकेंद्रीकरण हुआ. लेकिन आपातकाल के दौरान देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर चोट पहुंचाने संबंधी कई फैसले लिए गए और संविधान में 42वां संशोधन लाकर परिसीमन के काम को अगले 25 वर्षों के लिए बंद कर दिया गया. वर्ष 2001 में इसकी अवधि फिर 25 वर्षों के लिए बढ़ाने का निर्णय लिया गया और यह अवधि वर्ष 2026 में समाप्त होने वाली है. ऐसे में एक बार फिर परिसीमन का काम शुरू होगा. इसे देखते हुए दक्षिण के कुछ राजनेता गलत तथ्यों के आधार पर परिसीमन को रोकने की मुहिम में जुट गए हैं और सरकार पर दबाव बनाने का काम कर रहे हैं.
परिसीमन संवैधानिक अधिकार
उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि परिसीमन नहीं होने से बिहार सहित देश के अनेक राज्यों काे नुकसान हो रहा है. मौजूदा आबादी के आधार पर परिसीमन संवैधानिक अधिकार है और देश के कई राज्य पिछले 50 साल से इस अधिकार से वंचित हैं. संविधान देश के सभी नागरिक को समान अधिकार देता है. एक व्यक्ति-एक वोट- एक मूल्य का सिद्धांत संविधान की आत्मा है. परिसीमन नही होने के कारण दक्षिण के कुछ राज्यों में औसतन 21 लाख लोग अपना एक प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजते हैं जबकि हिंदी बेल्ट में 31 लाख लोग ऐसा करते हैं. यह एक व्यक्ति-एक वोट-एक मूल्य के सिद्धांत के खिलाफ है. मौजूदा जनसंख्या के आधार पर परिसीमन संवैधानिक अधिकार है. अगर परिसीमन किया गया तो बिहार में लोकसभा क्षेत्रों की संख्या कम से 40 से बढ़कर 60 हो जायेगी. इससे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की संख्या भी बढ़ेगी. ऐसे में जाहिर होता है कि परिसीमन नही होने से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति सहित सामान्य वर्ग के लोगों का भी नुकसान हो रहा है.
अंग्रेजों के शासनकाल में उत्तर भारत की जनसंख्या में कमी आयी
दक्षिण भारत के नेता जनसंख्या नियंत्रण के लिए कदम उठाने के लिए सजा के तौर पर सीटों की संख्या कम होने का दावा कर रहे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि अंग्रेजों के शासन काल में उत्तर भारत की जनसंख्या में कमी आयी, जबकि दक्षिण भारत में यह बढ़ी. शुरुआत में हुए परिसीमन का दक्षिण के राज्यों को इसका लाभ मिला. लेकिन जब उत्तर भारत में आबादी बढ़ी तो परिसीमन पर रोक लग गयी, तो उत्तर के राज्यों को इसका नुकसान उठाना पड़ा. अब बिहार और अन्य उत्तर राज्यों के हित को देखते हुए सरकार को परिसीमन का काम शुरू करना चाहिए. दक्षिण के राज्य अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इसका विरोध कर रहे हैं. समय की मांग है कि सरकार परिसीमन को लागू करे. दक्षिण के राज्यों का प्रतिनिधित्व कम नहीं हो इसके लिए सरकार कोई फार्मूला तैयार कर सकती है. लेकिन गरीब, दलित और पिछड़ों के हित को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.