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CAG: समय पर ऑडिट से ही बचेगी जवाबदेही

कई साल बाद आने वाली रिपोर्टें इतिहास बन जाती हैं, जवाबदेही नहीं. जब तक संसद उन पर चर्चा करती है, तब तक निर्णय लेने वाले आगे बढ़ चुके होते हैं और सबक खो जाते हैं. डिजिटल प्रणालियों द्वारा लगभग वास्तविक समय में ऑडिट लाना कैग की ताकत वापस ला सकता है.

CAG: भारत के पूर्व महानिदेशक (सीएजी) पी. शेष कुमार सार्वजनिक वित्त और ऑडिटिंग पर लगातार लेखन और विमर्श करते रहे हैं. उनकी चर्चित किताबें ‘सीएजी: एनश्योरिंग अकाउंटेबिलिटी अमिडस्ट कॉन्ट्रोवर्सीज़’’ ने न केवल कैग की संस्थागत भूमिका पर बहस को नया आयाम दिया, बल्कि वित्तीय निगरानी और पारदर्शिता की चुनौतियों को भी रेखांकित किया. अब अपनी नयी पुस्तक ‘सीएजी: व्हाट इट ऑट टू बी ऑडिटिंग-75 इयर्स ऑफ़ इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन’ में वे समयबद्ध, तकनीक-आधारित और प्रदर्शन-उन्मुख ऑडिट की वकालत करते हैं. उनका मानना है कि यदि सीएजी केंद्र सरकार की योजनाओं का समय पर और जोखिम-आधारित लेखा-परीक्षण करे तो न केवल सरकारी कार्यक्रमों की दक्षता बढ़ेगी, बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही भी मजबूत होगी. सीएजी की कार्यप्रणाली, समयबद्ध और प्रदर्शन-आधारित ऑडिट सहित  बिग डेटा, एआई और त्वरित रिपोर्टिंग सहित विभिन्न मुद्दों पर प्रभात खबर ने उनसे बातचीत की. बातचीत के मुख्य अंश : 


सवाल : भारतीय ऑडिट एवं लेखा सेवा में आपके दशकों के अनुभव ने इस पुस्तक के दृष्टिकोण को कैसे आकार दिया?

तीन दशकों से अधिक समय तक भारतीय ऑडिट एवं लेखा सेवा में एक सिविल सेवक के रूप में मैंने प्रत्यक्ष तौर पर अनुभव किया कि सीएजी(कैग) कैसे लोकतंत्र को मजबूत कर सकता है. मैंने यह भी देखा कि परंपराओं, हिचकिचाहट या नेतृत्व की कमी के कारण संस्था ने कई महत्वपूर्ण अवसर खो दिए. मैंने अपने करियर के दौरान राज्यों की राजधानियों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक काम किया. उन अनुभवों ने मुझे सिखाया कि जहां वित्तीय जवाबदेही वैश्विक स्तर पर विकसित हो रही है, वहीं भारत का ऑडिट ढांचा उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ पाया है. यह पुस्तक आत्ममंथन भी है और एक आह्वान भी. ’21वीं सदी के लिए कैग के अधिकार क्षेत्र की पुनर्कल्पना का आह्वान.


सवाल : पुस्तक में आप सीएजी की आलोचना करते हैं कि उसने अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरी तरह से नहीं निभाया. कैसे?

दो बड़ी खामियां साफ दिखती हैं. पहली, सामाजिक और कल्याणकारी योजनाएं जिन पर हर साल लगभग 10,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए जाते हैं. इन केंद्र प्रायोजित योजनाओं का देश स्तर पर प्रदर्शन ऑडिट लगभग बंद हो चुके हैं. अब एक नया तरीका, ‘आउटकम ऑडिट’ चलन में है, जिसमें योजना बनाने, मान्यताओं और उसके संचालन जैसे मूल प्रश्नों पर ध्यान नहीं दिया जाता. आखिर कोई योजना जो जनता के लिए लायी जा रही है, वह जनता के लिए कितनी जरूरी है, इसकी ऑडिट क्यों नहीं होनी चाहिए. सरकारों की ऐसी दर्जनों योजना है, जिसे बनाने से पहले ऑडिट किया गया कि इसकी जरूरत है या फिर ऐसी योजनाएं सिर्फ चुनाव के कारण बनाने पड़ते हैं या पड़ेंगे.


दूसरी, कई ‘उच्च जोखिम वाले क्षेत्र’ कैग की नज़र से बाहर हैं, जैसे एमएसएमई पारिस्थितिकी तंत्र की समस्याएं, न्यायिक देरी और उसका सामाजिक-आर्थिक असर, अंतरराष्ट्रीय कराधान की स्थिति और टैक्स चोरी, नवीकरणीय ऊर्जा के क्रियान्वयन की दक्षता इत्यादि. इसी तरह सेबी, ट्राई और मेडिकल कमीशन जैसी संस्थाएं करोड़ों लोगों को प्रभावित करती हैं, पर कैग तब तक उनकी समीक्षा नहीं कर सकता जब तक विशेष रूप से संदर्भ न दिया जाए. इससे जवाबदेही आत्म-रिपोर्टिंग तक सीमित रह जाती है. इसके अलावा, राजकोषीय जोखिमों का ऑडिट भी उपेक्षित है. ऑफ-बैलेंस-शीट उधार, सरकारी गारंटी और पीपीपी परियोजनाओं से बड़ी अप्रत्यक्ष देनदारियों बन रही हैं. यदि कैग इनका व्यवस्थित ऑडिट न करे तो संसद संभावित वित्तीय संकटों से अंधेरे में रहती है. ये सभी लोकतांत्रिक निगरानी के केंद्र में हैं और लगातार उपेक्षित रहे हैं.

सवाल : जीएसटी अनुपालन और अंतरराष्ट्रीय कराधान जैसे क्षेत्रों में ऑडिट के अवसर चूकने का उल्लेख है. ऐसा क्यों हुआ और इन क्षेत्रों में मजबूत ऑडिट का क्या असर हो सकता है?


इसका एक कारण संरचनात्मक है. सरकार “राजस्व क्षेत्र” को अपना अधिकार मानती है और टैक्स प्रशासन की कमियों को स्वतंत्र समीक्षा के लिए उजागर करने में हिचकिचाती है. कैग को टैक्सपेयर्स के रिकॉर्ड तक पहुंच से वंचित रखा गया है जबकि मॉडल कानून इसकी अनुमति देता है.
दूसरा कारण सुविधा का क्षेत्र है- खर्च का ऑडिट करना, राजस्व की पड़ताल करने से “सुरक्षित” लगता है. लेकिन जीएसटी और अंतरराष्ट्रीय कराधान की अनदेखी करना भारत की राजकोषीय प्रणाली की जीवन रेखा को अनदेखा करना है. यहां मजबूत ऑडिट से राजस्व लीकेज की पहचान हो सकती है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा मुनाफे को शिफ्ट करने की चालें पकड़ी जा सकती हैं और राज्यों की आय मजबूत हो सकती है. अन्यथा, टैक्स सुधार केवल कागज पर अच्छे दिखेंगे लेकिन व्यवहार में कमजोर रहेंगे.


सवाल : आपने कैग सुधारों का एक रोडमैप सुझाया है. आपके अनुसार सबसे तात्कालिक सुधार कौन सा होना चाहिए?

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यदि मुझे एक चुनना हो, तो वह है ‘समयबद्धता’. कई साल बाद आने वाली रिपोर्टें इतिहास बन जाती हैं, जवाबदेही नहीं. जब तक संसद उन पर चर्चा करती है, तब तक निर्णय लेने वाले आगे बढ़ चुके होते हैं और सबक खो जाते हैं. डिजिटल प्रणालियों द्वारा लगभग वास्तविक समय में ऑडिट लाना कैग की ताकत वापस ला सकता है. बाकी सुधार-विस्तारित अधिकार, जोखिम-आधारित फोकस, पारदर्शिता सब व्यर्थ होंगे यदि रिपोर्टें विलंब से आती रहें.  कैग को यह अधिकार होता है कि वह किसी भी विषय को ऑडिट के लिए ले सके. निश्चित रूप से बहुत सारे ऐसी योजनाएं है, जिस पर कैग का ध्यान ही नहीं जाता है. इसलिए आम जन को जो योजनाएं प्रभावित करती है, उन योजनाओं का निश्चित रूप से ऑडिट होना चाहिए जिससे सरकार को समय पर पता चल पाये और कुछ खामियां हो तो उसे समय रहते दूर किया जा सके.


सवाल : हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, कैग की रिपोर्ट तब तक महज़ राय है जब तक पब्लिक अकाउंट्स कमेटी उसकी समीक्षा न करे. इसका कैग की ताकत और प्रभाव पर क्या असर पड़ा?

इस निर्णय ने संस्था के पंख काट दिए हैं. पहले कैग रिपोर्ट में एक तरह की “अंतिमता” का आभास होता था. अब उसे केवल “राय” समझा जाता है जब तक संसद उसे अनुमोदित न करे. तकनीकी रूप से यह सही है, पर इससे रोकथाम की शक्ति कमजोर हो गई है. अब पब्लिक अकाउंट्स कमेटी की गति और दक्षता अहम हो गई है. यदि संसद तेजी से कार्रवाई न करे, तो कैग केवल परामर्शदाता बनकर रह जाएगा, न कि संवैधानिक प्रहरी.

सवाल : आपने समय पर ऑडिट की जरूरत पर जोर दिया है. ऐसा कोई अनुभव जहां कैग रिपोर्ट की देरी से उसका असर कम हो गया?


लगभग हर कैग रिपोर्ट 2–3 साल, तो कभी 6–8 साल की देरी से आती है. भले ही कहा जाए कि ऑडिट हमेशा ‘पोस्टमार्टम’ जैसा होता है, लेकिन बिग डेटा, डेटा एनालिटिक्स और एआई के उपयोग से कैग समय पर रिपोर्ट ला सकता है. उदाहरण के लिए, जीएसटी के ‘ई-वे बिल्स’ पर कैग की रिपोर्ट संख्या 12, साल 2025 में तीन साल देर से आई.  ऐसे कई उदाहरण हैं, सेतुसमुद्रम, देवास-एंट्रिक्स डील, जम्मू-कश्मीर का रोशनी एक्ट, नोएडा टोल ब्रिज कंपनी, नोएडा की भूमि आवंटन आदि. कई खर्च संबंधी ऑडिट में, जब तक रिपोर्ट आई, ठेके बंद हो चुके थे, मध्यस्थता शुरू हो चुकी थी और संसद केवल अफसोस कर सकती थी. यानी नुकसान रोकने या शर्तों को फिर से तय करने का अवसर खो गया. इसका हल यह है कि तकनीक से प्रक्रियाएं तेज की जाएं और कैग ‘फ्लैश रिपोर्ट्स’ जारी करे, विशेषकर उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में, जिन्हें महीनों के भीतर जारी किया जा सके, वर्षों बाद नहीं.



सवाल :
कैग अक्सर राजनीतिक रूप से संवेदनशील ऑडिट (जैसे 2जी स्पेक्ट्रम या कोल ब्लॉक आवंटन) के लिए आलोचना झेलता है. संस्था, स्वतंत्रता और राजनीतिक दबाव के बीच संतुलन कैसे बनाए?


इसका एकमात्र रास्ता है, ‘पेशेवराना और पारदर्शिता पर टिके रहना’. कैग न तो पक्षपाती दिख सकता है और न ही विवाद से डरकर खुद को रोक सकता है. 2जी और कोल ब्लॉक मामलों में कैग के अनुमान राजनीतिक विवादों का केंद्र बन गए, जिससे असली प्रणालीगत मुद्दे दब गए.संतुलन का उपाय है-स्पष्ट कार्यप्रणाली, मान्यताओं का खुलासा और ऐसी भाषा में निष्कर्ष रखना जिसे आम नागरिक समझ सकें. जब प्रक्रिया पारदर्शी होती है तो पक्षपात के आरोप कमजोर पड़ते हैं. 


सवाल :  कैग की भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं? 


मूल रूप से कैग राष्ट्र की वित्तीय अंतरात्मा है. यह बताता है कि सार्वजनिक धन समझदारी से, कानूनी रूप से और मूल्य के साथ खर्च हुआ या नहीं. लोकतंत्र में कराधान नागरिक और राज्य के बीच एक समझौता है. नागरिक संसाधन देते हैं, राज्य सेवाएं देने का वादा करता है और कैग यह सुनिश्चित करता है कि वह वादा निभाया जाए. मैंने अपनी इस पुस्तक में इसका विस्तार से जिक्र किया है. आशा करता हूं कि यह पुस्तक नए पाठकों के लिए ऑडिट को सरल बनाएगी और दिखाएगी कि जवाबदेही कोई अमूर्त विचार नहीं बल्कि लोकतंत्र की जीवित रक्षा है. 

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