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2014 राजनीति, तीसरा मोरचा या नयी राजनीति?

गांव में आप की असली परीक्षा, किसानों के बीच कामयाब हो पायेंगे केजरीवाल? 2014 के आम चुनाव में देश की निगाहें गंठबंधन की राजनीति की दशा-दिशा पर भी होगी. यह चुनाव तय करेगा कि राज्यों में सत्ता संभाल रही प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में कितनी बड़ी भूमिका निभायेंगी, साथ ही यह भी कि कांग्रेस […]

गांव में आप की असली परीक्षा, किसानों के बीच कामयाब हो पायेंगे केजरीवाल?

2014 के आम चुनाव में देश की निगाहें गंठबंधन की राजनीति की दशा-दिशा पर भी होगी. यह चुनाव तय करेगा कि राज्यों में सत्ता संभाल रही प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में कितनी बड़ी भूमिका निभायेंगी, साथ ही यह भी कि कांग्रेस और भाजपा में से किसी को न चुननेवाले मतदाता किसे तरजीह देंगे? आम चुनाव के बाद देश में कोई तीसरा मोरचा बनेगा या क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों का ही नेतृत्व स्वीकार करेंगे, वाम दलों की राजनीति किस दिशा में जायेगी, जैसे सवालों के जवाब भी अगले साल मिलेंगे.

।। अरविंद मोहन ।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

वर्ष 2013 की समाप्ति आम आदमी पार्टी की चर्चा के साथ हो रही है. आम चुनाव का सेमीफाइनल माने जा रहे विधानसभा चुनाव में दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वियों-कांग्रेस और भाजपा का जैसा प्रदर्शन रहा है, उसमें वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव की राजनीति की भविष्यवाणी करना आसान भी है और मुश्किल भी. मुश्किल कांग्रेस और भाजपा की राजनीति को लेकर उतनी नहीं है, जितनी आप की राजनीति और तीसरे मोरचे की संभावनाओं को लेकर है.

जानें 2014 में कैसी होगी भारतीय राजनीति की दशा-दिशा

गठबंधनों की राजनीति के दौर में दो बार से पिट रही और लगातार अपना आधार खोती जा रही भाजपा ने एकला चलो का नारा लगाते हुए नरेंद्र मोदी का नाम आगे किया है. संघ भी खुल कर समर्थन में उतर आया है और खुद मोदी ने जितनी तैयारी की है, अभी तक के इतिहास में कोई दूसरा नेता उतनी तैयारी से मैदान में नहीं उतरा था. उधर कांग्रेस दो कार्यकाल से पैदा निराशा के साथ भयंकर महंगाई और भ्रष्टाचार के डरावने आरोपों के आगे एकदम पस्त-सी दिखती है. जिस राहुल गांधी पर वह अपना पूरा दांव लगाना चाहती है. वह तो सामान्य ढंग से काम करते भी नहीं लगते. इतनी मुश्किलों में फंसी कांग्रेस की नैया को किनारे लगाना उनके वश में नहीं है और दूसरा कोई नेता पार्टी में दिखता भी नहीं है.

इस बार के विधानसभा चुनाव के मतों के आधार पर ही अगर लोकसभा सीटों का अनुमान लगाएं, तो मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में ही कांग्रेस को 32 सीटों का नुकसान हो जाने का अनुमान है. अगर बंटवारावाले आंध्र का हिसाब जोड़ें, जहां से कांग्रेस को 33 सीटें मिली थीं, तो वहां भारी नुकसान तय है. गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, उत्तराखंड का हिसाब जोड़ें, तो 20-25 सीटों की अदला-बदली तय है. पर कांग्रेस का भी अपना हिसाब है. वह अपने पर कम मोदी विरोध के वोटों पर ज्यादा निर्भर है. उसे लगता है कि मोदी के नाम पर अल्पसंख्यक वोट एकमुश्त उसकी झोली में ही आयेंगे. वह तीसरा मोरचा बनने की सूरत नहीं देख कर भी खुश है. विधानसभा चुनावों में पिट कर भी 2004 और 2009 में सत्ता पाने का उसका रिकॉर्ड भी उसे हौसला दे रहा है.

उधर आप की हवा ने जोर पकड़ा, या तीसरा मोरचा बन गया या फिर आप के इर्द-गिर्द ही सभी या ज्यादातर कांग्रेस और भाजपा से इतर की शक्तियां गोलबंद हुईं तब क्या होगा? इस संभावना को सिरे से खारिज करना जोखिम का काम है. अभी ऐसी गोलबंदी के लिए प्रयास नहीं दिखते और न ही पर्याप्त समय दिखता है, पर 1977 में तो डेढ़-दो महीने में ही सारा खेल हो गया और दक्षिण को छोड़ कर पूरे देश से कांग्रेस का सफाया हो गया. असल में 1967, 1977 और 1989 की तरह हर दूसरे चुनाव पर इस कथित तीसरे मोरचे की राजनीति को कहां से प्राण-वायु मिलते हैं, कहां से जरूरी पैसा और समर्थन आ जाता है, यह उससे भी बड़ा रहस्य है. अभी तक आप ने अन्य दलों से अच्छे लोगों के साथ जुटने का आह्वान किया है, तीसरा मोरचा बनाने जैसी कोई बात नहीं उठायी है-शायद उसे अभी इसकी फुरसत भी नहीं मिली है. इस बार मुलायम सिंह जरूर यह बात चला रहे हैं जो तीसरे मोरचे या गैरकांग्रेसी, गैरभाजपाई नेताओं में सबसे वरिष्ठ लोगों में हैं और अब खुल कर तीसरे मोरचे की वकालत कर रहे हैं. माकपा और उसके नेता भी सुगबुगाहट दिखा रहे हैं. उनकी एक बैठक में कोई नतीजा नहीं निकला है. अभी भी यह प्रयास जोर नहीं पकड़ पाया है, लेकिन कब जोर पकड़ लेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. रंगत यह भी है कि यह बात आगे बढ़े, न बढ़े.

दरअसल, मंदिर और मंडल जैसी दो बड़ी रजनैतिक परियोजनाओं ने मुल्क की राजनैतिक तसवीर को उलट-पलट दिया. हर रोज अलग-अलग राजनैतिक लड़ाई का अखाड़ा बना, जिसमें कहीं दो तो कहीं तीन और कहीं चार-चार पहलवान जोर आजमाते दिखने लगे. हालत यह हो गयी कि कई राज्यों मे कोई भी तथाकथित राष्ट्रीय दल मुख्य मुकाबले में बचा ही नहीं. फिर धीरे-धीरे राष्ट्रीय राजनीति का मतलब राज्यों की राजनीति का कुल योगफल भर हो गया. 90 के बाद के दौर की सबसे प्रभावी राजनैतिक परिघटना राज्यों की राजनीति का प्रभावी हो जाना ही है.

गठबंधन मजबूरी नहीं धर्म बन गया है, जो कांग्रेस चंडीगढ़ अधिवेशन तक अपने दम पर राज करने का दावा करती थी, उसे ममता, मुलायम और मायावती के नखरे उठाने में हिचक नहीं रही. भाजपा को सत्ता में आने से पूर्व अपने चुनावी घोषणापत्र के तीनों पहले मुद्दे-राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता और धारा 370 की समाप्ति को सदा के लिए दफनाना पड़ा. इस बदलाव ने और चीजों पर भी असर डाला है. आज लालू यादव का मतलब क्षेत्रीय सूरमा और मसखरा राजनेता न रह कर काबिल रेल मंत्री भी है, द्रमुक का मतलब देश तोड़नेवाला जमात या हिंदी विरोधी दल भर नहीं है. ममता भले बंगाल को प्राथमिकता दें, पर मुल्क भर में गरीबों-कमजोरों के सवाल पर लड़ने में भी वह अगुआ हैं. क्षेत्रीय दल के नेता केंद्रीय सरकार की जिम्मेवारियों में फेल हुए हैं, तो पास भी हुए हैं- ठीक राष्ट्रीय दलों के नेताओं के फेल-पास होने की तरह.

लेकिन इन सबके चक्कर में तीसरे मोरचे के एकीकरण के सारे सूत्र बिखर गये. मुख्यत: दो ही सूत्रों पर यह जुटान हुआ करता है-गैरकांग्रेसवाद और सांप्रदायिकता विरोध. डॉ लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद का सूत्र बरगद बन बैठी और घटिया संस्कृति का प्रतीक बन गयी कांग्रेस को सत्ता से हटाने के मंत्र के तौर पर दिया था और साथ ही यह भी कहा था कि यह दरमियानी रणनीति है. अब तक इस सूत्र का बहुत दोहन हो चुका है और यह अपना आकर्षण खो चुकी है. दूसरी ओर सांप्रदायिकता विरोध के खेल का भी अत्यधिक दोहन हुआ है और इसमें भी बहुत दम नहीं बचा है. किस क्षेत्रीय दल ने कब कांग्रेस या भाजपा की प्रत्यक्ष या परोक्ष मदद की, यह सूची बेमानी हो चुकी है. सो अब विपक्षी एकता बनानेवाले इन्हीं सूत्रों और हथियारों से काम हो जायेगा, यह सोचना गलत होगा. तीसरा मोरचा बनाने का काम ठोस हथियार न होने से मंद पड़ा है.

इस निराशावाली स्थिति को आप ने दिल्ली में विधानसभा की 28 सीटें जीत कर बदल दिया है. उसकी जीत से ज्यादा बड़ी चीज है, जीतने का तरीका और पूरी राजनीति पर साफ दिखा प्रभाव. इसी का असर है कि भाजपा ने बीच चुनाव में नेता बदला, चुनाव के बाद चार सीट का भी जुगाड़ न करके सत्ता छोड़ दी और बेचारे येदियुरप्पा की पार्टी का विलय रोक दिया है. वह और कांग्रेस कोई भी शरारत करने से बच रहे हैं और अपनी ओर से आप की सरकार बनवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

आप क्या करेगी और कितना प्रभाव डालेगी, यह कहना मुश्किल है, लेकिन जिस रफ्तार में उसकी सदस्यता और चंदा बढ़ा है, वह बताता है कि देश में कितनी बेचैनी है. इस बेचैनी को उदारवादी अर्थव्यवस्था से पैदा बड़े मध्यवर्ग की बेचैनी कहना गलत होगा, क्योंकि आप की जीत में दलितों और झुग्गी-झोपड़ी के लोगों का शायद ज्यादा बड़ा योगदान था. यह बेचैनी स्थापित राजनीति से ऊब और बदलाव की है. और हैरानी नहीं कि दिल्ली की सफलता ने देश भर के अन्य शहरों और जनांदोलनवाले ठिकानों में नया जोश भर दिया है.

अगर पार्टी देश के शहरी ठिकानों, दिल्ली के अपने प्रभाव क्षेत्र के आसपास के क्षेत्रों और जनांदोलनों का गढ़ बन गये आदिवासी क्षेत्रों तक ही अपना ध्यान केंद्रित करके लोकसभा चुनाव में उतरे, तो करीब सौ सीटों पर उसके उम्मीदवार मुख्य मुकाबलों में आ सकते हैं, जिनमें से पचास सीटों पर तो उनका मुकाबला करना मुश्किल हो सकता है. पर इस लड़ाई से इससे भी ज्यादा बड़ा फर्क यह होगा कि शहरी क्षेत्रों से मोदी की चर्चा गायब हो सकती है. लोगों का मानना है कि अगर आप अभी से ही तीसरी ताकत बनने की ईमानदार कोशिश करे और राजनैतिक छुआछूत को दूर रखे, तो वह नयी राजनीति का सूत्रधार बन सकती है. उसे गैरकांग्रेसवाद और सांप्रदायिकता विरोध की नौटंकी को त्याग कर नयी राजनीति की एकता के कुछ सूत्र जल्द विकसित करने होंगे. यह सूत्र मुल्क में बीसेक सालों से चल रही अर्थनीति की सही आलोचना और विकल्प पेश करने से निकलेंगे.

सही है कि मुलायम, लालू, नायडु, नीतीश, माकपा, भाकपा, बीजद, द्रमुक-अन्नाद्रमुक जैसे सभी इस नयी अर्थनीति को लाने में कुछ न कुछ जिम्मेवार हैं- पर मुख्य भूमिका कांग्रेस और भाजपा या विश्व बैंक- आइएमएफ से जुड़े अर्थशास्त्रियों की ही थी. हम भी अपने कथित समाजवादी नीति और लाल फीताशाही से त्रस्त थे. सो जो हुआ सो हुआ. अब अगर गरीबों, आदिवासियों, दलितों, अकलियतों और पिछड़ों, खेती-किसानी की जरूरतों को आगे करके कोई वैकल्पिक सूत्र विकसित किये जायें, शहरी मध्यवर्ग की सात्विक बेचैनी को उससे जोड़ें, तो मजे से मंडल नाम से निकली शक्ति-ऊर्जा को और कमजोरों-गरीबों के संघर्ष से जुड़ी ताकतों को एकताबद्ध किया जा सकता है. इसके बिना आप अभी जो भी मुद्रा बनाये, मुलायम और प्रकाश करात ही नहीं, सारे नेता दिन-रात मिलते रहें, शीर्शासन भी करें, तो भी कुछ नहीं हो सकता.

* तीसरा विकल्प होगा ताकतवर

।। बासुदेव आचार्य ।।

(लोकसभा में माकपा संसदीय दल के नेता)

हालिया विधानसभा चुनाव नतीजों से साफ हो गया है कि देश की राजनीति सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के बीच ही नहीं सिमटी हुई है. वैसे भी केंद्रीय राजनीति में गंठबंधन की सरकारों का दौर काफी अरसे से चल रहा है. 2014 में भी हालात में बदलाव नहीं होगा. दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार नयी पार्टी आम आदमी पार्टी को समर्थन मिला, उससे जाहिर होता है कि जहां लोगों के पास विकल्प है, वे कांग्रेस और भाजपा के इतर पार्टी को चुनना पसंद करते हैं.

आप को मिला जनादेश कांग्रेस और भाजपा के विरोध में है. इससे साफ पता चलता है कि 2014 में भी जहां लोगों को कांग्रेस और भाजपा के इतर अच्छा विकल्प दिखेगा, उसे लोगों का समर्थन मिलेगा. यह चुनाव परिणाम यूपीए सरकार की नीतियों के खिलाफ है. जिस प्रकार देश में महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ा है, उससे आम आदमी परेशान है. आम आदमी की उम्मीदों को न भाजपा और न ही कांग्रेस पूरा कर सकती है, क्योंकि दोनों की आर्थिक नीतियों में कोई खास फर्क नहीं है.

भले ही भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव जीतने में सफल रही, लेकिन इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री को श्रेय नहीं दिया जा सकता है. इन राज्यों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होता रहा है. ऐसे में केंद्र सरकार की नीतियों के कारण कांग्रेस को नुकसान हुआ और भाजपा चुनाव जीत गयी. अगर इन राज्यों में भी बेहतर विकल्प होता, तो परिणाम कुछ और होते. मौजूदा राजनीतिक स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी 2014 के चुनाव को प्रभावित करने में सफल नहीं होंगे.

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में विभाजनकारी राजनीति सफल नहीं हो सकती है. मोदी का विकास पूंजीपतियों के लिए है और इसे भारत में लागू नहीं किया जा सकता है. देश के अधिकांश लोगों को मोदी स्वीकार्य नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर कई राज्यों में भाजपा का आधार नहीं है. मोदी का विकास मॉडल आदिवासी, गरीब और किसानों के हित में नहीं है.

भ्रष्टाचार, महंगाई से आम जनता परेशान है. ऐसे में राहुल गांधी के लिए संभावनाएं 2014 में काफी कम हैं. यूपीए सरकार की नाकामी के कारण अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. हमें समझना चाहिए कि देश में गैरकांग्रेस और गैरभाजपा के इतर भी एक बड़ी राजनीतिक ताकत है. मौजूदा माहौल को देख कर कहा जा सकता है कि 2014 में तीसरा विकल्प सबसे बड़ी ताकत के तौर पर उभर सकता है. आर्थिक विकास के नाम पर कांग्रेस-भाजपा आदिवासियों, किसानों को जल, जंगल, जमीन से बेदखल कर बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं.

किसानों, गरीबों, आदिवासियों की स्थिति दिनोंदिन खराब हो रही है. ऐसे में आम लोगों के बीच कांग्रेस और भाजपा के इतर तीसरे विकल्प पर लोगों की उम्मीदें टिकी हुई हैं. भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और समाज के सभी वर्गो, धर्मो को साथ लेकर चलनेवाला व्यक्ति ही देश की सत्ता पर काबिज हो सकता है. दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम को देख कर कहा जा सकता है कि 2014 का आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक होगा. बेहतर शासन, स्वच्छ छवि और आम आदमी के लिए नीतियां बनानेवाली पार्टी को ही लोगों का वोट मिलेगा.

लोग एक स्वच्छ और पारदर्शी सरकार चाहते हैं. यूपीए-1 के दौरान जब वामपंथी दलों का समर्थन सरकार को था, तो सूचना का अधिकार कानून, आदिवासियों के अधिकार को लेकर कई कानून बने, लेकिन वामपंथी दलों के हटते ही सरकार की नीतियां यूरोप और अमेरिका के हितों को पूरा करने के लिए बनने लगीं. इन्हीं जनविरोधी नीतियों की कीमत आज देश की जनता चुका रही है. उम्मीद है कि 2014 में वामपंथी दल एक बार फिर बड़ी ताकत के तौर पर उभरेंगे.

(बातचीत : विनय तिवारी)

* 2014 की जंग और वाम दल

।। सुभाष गाताडे ।।

(सामाजिक चिंतक)

पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने चुनावी विश्‍लेषकों ही नहीं, कांग्रेस-भाजपा के माथे पर भी चिंता की लकीरें खींच दी हैं. सबसे बड़ा उलटफेर हुआ है दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी के अप्रत्याशित उभार से. अब मोदी बनाम राहुल, मोदी बनाम केजरीवाल, मुलायम बनाम मायावती की राजनीतिक संभावनाओं के बीच यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या 2014 में हम फिर एक बार किसी संयुक्त मोरचा जैसे प्रयोग से रूबरू होंगे या भाजपा किसी अन्य किस्म के गठबंधन के जरिये सत्ता की बागडोर हाथ में ले सकेगी?

विडंबना ही है कि इस बहस से वाम गायब है. वाम की गैरमौजूदगी न केवल कॉरपोरेट नियंत्रणवाले मीडिया में उसकी स्थिति, संभावनाओं को लेकर चर्चाओं के पूरी तरह गायब होने के रूप में दिखती है, बल्कि वह जनता की बहसों में भी उसकी अनुपस्थिति के रूप में उजागर हो रही है. ऐसा नहीं कि इन चुनावों में वाम दलों ने प्रत्याशी नहीं खड़े किये थे. मध्य प्रदेश में दो प्रमुख वाम पार्टियों-सीपीआइ, सीपीएम ने लगभग 33 सीटांे पर उम्मीदवार खड़े किये थे.

दिल्ली में तीन वाम पार्टियों-सीपीआइ, सीपीएम और फारवर्ड ब्लाक ने 19 प्रत्याशी तो सीपीआइ एमएल ने 4 स्थानों पर प्रत्याशी खड़े किये थे. राजस्थान या छत्तीसगढ़ में भी वाम दलों के प्रत्याशी थे, मगर कहीं भी वह जीत हासिल नहीं कर सके हैं. राजस्थान विधानसभा इसका प्रतिनिधिक उदाहरण है, जहां पिछली विधानसभा में उसके वाम दल सीपीएम के तीन सदस्य थे, मगर तीनों में से एक भी सीट वह इस बार जीत नहीं सके हैं.

आखिर इस स्थिति को किस तरह विश्‍लेषित किया जाये? एक अहम बात जो काफी समय से कही जा रही है कि हिंदी प्रदेशों में वाम आंदोलन की स्थिति अच्छी नहीं रही है. यह चुनाव इस हकीकत को फिर एक बार पुष्ट करते हैं. दरअसल, हालत और खराब ही हुई है. याद करें कि एक प्रमुख वाम दल ने कुछ साल पहले एक राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन कर विद्वतजनों एवं कार्यकतरओ को एकत्र कर यह समझने की कोशिश की थी कि इस गतिरोध को कैसे तोड़ा जाये. जाहिर है कि यह गतिरोध बना हुआ है.

सीपीआइ के मरहूम नेता चतुरानन मिश्र ने कुछ साल पहले मेनस्ट्रीम नामक पत्रिका में (फार लेफ्ट एक्सपेंशन इन द हिंदी रीजन, दिसंबर 23, 2006) बिहार एवं उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों के अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए बताया था कि किस तरह एकीकृत सीपीआइ ने जमीन का सवाल उठाते हुए दलितों एवं पिछड़ी जातियों में आधार बनाया था और फिर जब सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से डॉ लोहिया ने पिछड़ा पाये सौ में साठ का नारा दिया तो किस तरह वाम आंदोलन के आधार का क्षरण हुआ. उनका कहना था कि हम जाति व्यवस्था को ठीक से समझ पाने में, लोगों के दिलो-दिमाग पर उसकी पकड़ का आकलन करने में या उसके उन्मूलन के लिए आंदोलन खड़ा करने में असफल रहे हैं. दूसरी अहम बात मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ उनके स्वरूप और प्रकृति में आ रहे बदलाव का मसला है. नतीजों की चर्चा करते हुए जनसत्ता (11 दिसंबर 2013) में प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि 25 से 30 फीसदी मतदाताओं का एक ऐसा समूह आया है जो अराजनीतिक है.

युवा वर्ग के इस समूह को राजनीतिक विचारधारा, पार्टियों के नजरिये से कोई लेना देना नहीं है. इसमें ज्यादातर वे युवा हैं जिन्होंने कोई आंदोलन नहीं देखा है. वे 1991 के बाद देश में आये पूंजीवादी व्यवस्था में बड़े हुए और उन्हें बाजारवाद ने बहुत हद तक प्रभावित किया.

स्पष्ट है कि राजनीति में उनके सामने किसी रोल मॉडल की अनुपस्थिति के चलते ऐसे तबके पर नेता, राजनीतिक पार्टी की मार्केट पैकेजिंग का प्रभाव ज्यादा काम करता है. यह वह पीढ़ी है जिसने उस भारत में जनम लिया है जब आजादी के बाद हुए सबसे बड़े आंदोलन-जिसका फोकस पांच सौ साल पुराने एक प्रार्थनास्थल बाबरी मसजिद के विध्वंस पर था- बीत चुका है और उससे जनित बहुसंख्यकवादी चेतना को बोलबाला बढ़ा है. यह अकारण नहीं कि भारतीय जनतंत्र के इतिहास में एक काले धब्बे के तौर पर उपस्थित 2002 में गुजरात की घटनाओं के शिल्पकार कहे जानेवाले शख्स के विकास पुरुष में रूपांतरण पर उसे कोई गुरेज नहीं है.

तीसरी उल्लेखनीय बात टीवी-प्रिंट मीडिया का बढ़ता असर और पिछले कुछ सालों से सोशल मीडिया की भी एक जबरदस्त उपस्थिति, जो एक सशक्त प्रचारतंत्र के रूप में जुड़ गया है. अब फेसबुक पर भड़काऊ चित्रों को अपलोड करके किस तरह माहौल का विषाक्त किया जा सकता है. दंगों की स्थिति पैदा की जा सकती है. यह बात भारत ही नहीं दक्षिण एशिया की कई हालिया घटनाओं में देखने को मिल रही है. चेतनशील युवाओं का विशाल बहुमत इसी सोशल मीडिया के जरिये दुनिया को देख रहा है. उसे ही सच मान रहा है, इस सच को अन्य स्रोतों से सत्यापित करने की जहमत भी वह नहीं उठाना चाहता. उसके लिए नेताओं की लोकप्रियता टि¦टर पर उसके फालोअर्स की संख्या से तय हो रही है, बिना यह जाने की किस तरह इसके पीछे भी बाजार की शक्तियां काम कर रही है. अनेक खोजी विश्‍लेषणों या स्टिंग आपरेशंस में भी यह हकीकत बार-बार उजागर हुई है कि फॉलोअर्स कैसे बनाये जाते हैं.

चौथी अहम बात चुनावों में कॉरपोरेट तंत्र की बढ़ती भूमिका से है. यूं कहना गलत नहीं होगा कि एक तरह से यह अमेरिकी लोकतंत्र की स्थिति बन रही है, जहां कॉरपोरेट सम्राट कांग्रेस के सदस्यों के चुनावों से लेकर राष्ट्रपति के चुनावों को प्रभावित करते हैं. ऐसा नहीं कह सकते कि कॉरपोरेट क्षेत्र पहले प्रभावहीन था, मगर 1990 के पहले चली आ रही आर्थिक नीतियों के अंतर्गत सरकार ने ही उन पर बंदिशें लगा रखी थीं, जो स्थिति 1991 के नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ बदल गयी है.

अगर इन पांच राज्यों के बाहर देखें तो वाम धारा के संगठनों के अधिक प्रभाववाले इलाकों के तौर पर केरल, बंगाल एवं त्रिपुरा को देखा जा सकता है. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि ममता बनर्जी के नेतृत्व की तमाम कमियों के बावजूद वहां तीन दशक से अधिक वक्त सत्ता में रहा वाम नये सिरे से अपने आप को गोलबंद नहीं कर पा रहा है, नयी जमीन तोड़ता नहीं दिख रहा है. 2014 के चुनावों में इन तीनों राज्यों में उसका परफार्मेस भले ही 2009 के चुनावों से बेहतर होता दिखे, मगर जहां तक राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में वाम हस्तक्षेप की स्थिति का सवाल है तो उसमें कोई गुणात्मक अंतर आज की तारीख में संभव नहीं दिखता. संसदीय चुनावों का रास्ता अपनाये वाम से इतर हम क्रांतिकारी धारा के कम्युनिस्टों को देखें तो वह भी बेहतर स्थिति में नहीं दिखते. माओवादियों के नाम से सक्रिय उनका हिस्सा चुनावों के रणकौशलात्मक बहिष्कार की नीति पर ही चलता है, कुछ धड़े चुनावों में हिस्सेदारी भी करते हैं, मगर स्थानीय तौर पर असर छोड़ने के अलावा उनका हस्तक्षेप भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव छोड़ता नहीं दिखता.

क्या इसके मायने यही निकलते हैं कि वाम की विराट कही जानेवाली धारा हमेशा इसी तरह हाशिये पर बनी रहेगी? निश्चित ही नहीं. वाम विचारधारा का वजूद इस वजह से नहीं बना हुआ है कि चंद लोगों को उसके विचार अच्छे लगते हैं, बल्कि इसलिए कि वह पूंजी के बढ़ते संकेंद्रण एवं दूसरी तरफ बढ़ती मुफलिसी की स्थितियों पर टिके पूंजी के गतिविज्ञान से परे जाकर एक बेहद मानवीय, समावेशी समाज निर्माण का खाका पेश करता है. अपने आंदोलन की यह बढ़ती दुर्दशा उसके विचारधारा के वाहकों पर नयी जिम्मेदारियां ला खड़ी करती हैं कि वह समग्र स्थिति का आकलन करें और अपनी नयी रणनीति बनाये. अगर एनजीओ सर्कल से जन्म लिये आप जैसे प्रयोग-जिनके सामने आज भी भविष्य का कोई खाका नहीं है-जनता को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं तो एक तिहाई दुनिया को कभी अपने रंग में रंगाया वाम निश्चित ही भारत में रेडिकल रूपांतरण के लिए नयी जमीन जोड़ सकता है.

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