नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने एक पूर्व न्यायिक अधिकारी को 20 लाख रुपये का मुआवजा दिया है जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गयी थी, लेकिन बाद में ये आरोप गलत निकले.
शीर्ष अदालत ने गौर किया कि गुजरात उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि पूर्व न्यायिक अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं बनता. न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ हालांकि उच्च न्यायालय के इस मत से सहमत नहीं हुई कि चूंकि 53 वर्षीय अधिकारी आठ साल तक नौकरी से दूर रहे हैं, इसलिए इतने अधिक समय बाद उन्हें सेवा में वापस नहीं लाया जा सकता. पीठ ने अपने फैसले में कहा, उच्च न्यायालय ने एक बार जब यह व्यवस्था दे दी कि अपीलकर्ता (न्यायिक अधिकारी) के खिलाफ आरोप साबित नहीं हुए हैं तो उनके सम्मान और गरिमा को ध्यान में रखते हुए उन्हें सेवा में वापस लाया जाना चाहिए. हम व्यवस्था देते हैं कि अपीलकर्ता (अधिकारी) ने ऐसा कोई काम नहीं किया जो न्यायिक अधिकारी को शोभा नहीं देता. न्यायालय ने कहा कि उन्हें सेवा में वापस नहीं लाया जा सकता क्योंकि वह पहले ही सेवानिवृत्ति की उम्र को पार कर चुके हैं.
पीठ ने कहा, हमारा मत है कि क्योंकि अपीलकर्ता (अधिकारी) ने इन आठ वर्षों में काम नहीं किया है और यह तय करने में वाद का एक और दौर शुरू हो जायेगा कि इन वर्षों में उनकी क्या आमदनी हो रही थी. वेतन वापस देने की जगह हम उन्हें एकमुश्त 20 लाख रुपये की राशि प्रदान किये जाने का निर्देश देते हैं. इसने कहा कि उन्हें छह महीने के भीतर यह राशि मिल जानी चाहिए. शीर्ष अदालत ने यह आदेश पूर्व न्यायिक अधिकारी की याचिका पर दिया जो नवंबर 1981 में सेवा में नियुक्त हुए थे. जून 1992 से जून 1994 तक वह गुजरात में दीवानी न्यायाधीश और न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में काम कर रहे थे. उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों में कहा गया कि उन्होंने सात जमानत आदेश ऐसे दिये जो कानूनी प्रावधानों के खिलाफ थे. जांच के बाद उन्हें अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गयी. इसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसने व्यवस्था दी कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं बनता.