।।फरीद आलम।।
योग आज पूरी दुनिया में अपना परचम लहरा रहा है और हर साल 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है. भारत में इस पद्धति को दुनिया भर में बढ़ावा देने में यहां के सूफी संतों की भूमिका भी अहम निभायी है. योग छह हजार साल पुराने भारतीय संस्कृति का एक अहम हिस्सा है, जिसे अब विश्व योग दिवस के माध्यम से पूरी दुनिया स्वीकार कर चुकी है.
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सऊदी अरब समेत कई देशों में योग को खेल का दर्जा
सऊदी अरब समेत दुनिया के कई देशों ने अपने यहां योग को खेल का दर्जा दे चुके हैं. आधुनिक समय में पूर्ण स्वास्थ्य के लिए योग को जीवन शैली का अनिवार्य माना जा रहा है. वास्तव में यह पुरातन ज्ञानियों द्वारा ईमानदारी से मानवता के लिए अनुपम भेंट है, तभी तो पुराने समय से दुनिया भर के बुद्धिजीवि योग से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.
अल-बरूनी के फारसी अनुवाद ने योग को दुनिया में किया प्रसिद्ध
योगसूत्रों की रचना करीब 400 ईसा पूर्व महर्षि पतंजलि ने की. योगसूत्र मध्यकाल में सर्वाधिक अनूदित किया गया प्राचीन भारतीय ग्रन्थ है, जिसका लगभग 40 भारतीय भाषाओं तथा दो विदेशी भाषा प्राचीन जावा और अरबी में अनुवाद हुआ. 11वीं सदी में अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद किया. अल-बरुनी के इस अनुवाद ने पतंजली के योग-सूत्र का पूरे विश्व में प्रचार किया. उसने पतंजली के योग-सूत्र में लोगों की रुचि भी जगायी, लेकिन यह भी एक सच है कि पतंजलि के योग-सूत्र (संस्कृत और अल-बरुनी के अरबी अनुवाद दोनों में ही) में योग का जो रूप दिखायी देता है, वह आज के इस योग से बिलकुल अलग है, जिसे हम आज योग के रूप में जानते हैं.
दारा शिकोह की भी थी योग और वेदांत में दिलचस्पी
औरंगजेब के भाई दारा शिकोह की भी योग और वेदांत में दिलचस्पी थी, जिसकी वजह से उसके छोटे भाइयों ने उसपर धर्म-विरोधी होने का आरोप लगाया. उसे मुगल सिंहासन तक नहीं पहुंचने दिया. भारत में योग के साथ मुसलमानों का इतना गहरा संबंध रहा है कि आज ये कहने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आज हम योग का जो रूप देख रहे हैं, उसे आकार देने में मुसलमानों का भी उतना ही योगदान रहा है.
बहर-अल-हयात से लिया गया योग ही आज का योग
आज हम योग का जो रूप देख रहे हैं, असल में वह 16वीं शताब्दी के फारसी टेक्स्ट ‘बहर-अल-हयात’ से लिया गया है. ये अरबी के ‘हवद-अल-हयात’ का अनुवाद है. माना जाता है कि ‘हवद-अल-हयात’ संस्कृत के ‘अमृतकुंड’ का अनुवाद है. विद्वानों का मानना है कि ‘बहर-अल-हयात’ के लेखक सूफी शेख मोहम्मद गौथ ग्वालियरी ने उस समय के योगियों से बातचीत करके ये ग्रन्थ लिखा होगा, क्योंकि इसके पहले लिखे ग्रंथों में उन आसनों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता. उनके इस ग्रन्थ में आसनों के बारे में बड़ी ही खूबसूरती से बताया गया है. इस किताब में 21 योगियों द्वारा कठिन से कठिन आसन वर्णित किये गये हैं, जबकि पतंजलि के योग-सूत्र में आसनों की व्याख्या नहीं की गयी है. माना यह भी जाता है कि आज हम योग के जिन आसनों का अभ्यास कर रहे हैं, वह असल में फारसी पांडुलिपियों की देन है और यहीं से भारत में योग की शुरुआत मानी जाती है.
सूफी संतों की साधना में प्रचलित साधन
मथुरा के रामाश्रम सत्संग के गाफिल बरनी के हवाले से इसी आश्रम के परम संत डॉ चतुर्भुज सहाय जी साहेब अपने फेसबुक वॉल पर सूफी संतों की योग साधना के बारे में लिखते हैं कि सूफी साधना के मुख्यत: नौ अंग हैं. इसमें सबसे पहले तौबा यानी पाश्चात्ताप आता है. इसमें तीन चीजें हैं. पहला, अपने किये हुए पाप को समझना और उस पर शर्मिंदा होना, दो उस पाप को पूर्ण रूप से त्याग करना और तीसरा भविष्य में फिर कभी उस पाप को दोबारा न करने का दृढ़ संकल्प लेना.
सूफी संतों की साधना का दूसरा सबसे प्रमुख अंग जुहद है. जुहद का अर्थ इंद्रिय निग्रह करना या फिर विरक्ति है. तीसरा जिक्र है. जिक्र यानी जाप. यह दो प्रकार का होता है. पहला जिक्र जली यानी मुख से उच्चारण कर जप करना और दूसरा जिक्र खफी यानी मन ही मन जप करना. चौथा अंग फक्र है. फक्र मतलब गरीबी. गरीबी का अर्थ केवल धन-संपत्ति ही का अभाव नहीं, बल्कि इसमें इनकी इच्छा का भी अभाव भी होना आवश्यक है यानी हाथ भी खाली और हृदय भी खाली.
पांचवां अंग है मुराकबा. मुराकबा का मतलब ध्यान करना या फिर ध्यानावस्था. ध्यानावस्था के समय ईश्वर में ध्यान निरंतर बनाये रखना और इस बात की निगरानी करना कि कोई बुरा विचार हृदय में न आये. सूफी संतों की साधना का छठा अंग अमल-तसव्वुर हैं. इसका मतलब ईश्वर और चिंतन है. इसका सातवां अंग तजकिया-नफ़्स है. इसका मतलब अहम भाव को मिटाना है. इसका आठवां अंग तव्वकुल यानी ईश्वर में भरोसा और विश्वास पैदा करना है. सबसे आखिरी और नौवां अंग रिजा है. इसका मतलब संतोष या फिर ईश्वर की मर्जी में ही प्रसन्न रहना है. इसके साथ-साथ रोजा यानी उपवास आदि भी शामिल है.
सूफी संत सरहिंदी ने की लतायफे सित्तह की खोज
इसके साथ ही,सूफी संत शेख अहमद सरहिंदी ने ‘लतायफे सित्तह’ की खोज की थी, जो कंठ से नाभि के बीच में छह स्थान थे, जिसे योगियों ने ‘षडचक्र’ कहा है. जहां तक सूफी संतों के योग की बात है, तो पटना विश्वविद्यालय के शोधगंगा में इस बात की चर्चा की गयी है कि सूफियों में लताइफें सित्ता यानी छह लतीफे का सिद्धांत योग के इन्हीं सिद्धांतों के प्रभावाधीन है. सूफियों का मत है कि इन लतीफों को परमात्मा के सतत स्मरण द्वारा जागृत करना साधक के लिए आवश्यक है. इसमें लिखा गया है कि जिक्र आदि की विशेष कियाओं द्वारा सूफी संत एक के बाद एक लतीफे को जागृत करने में समर्थ होता है और अंत में उसे प्रकाश के दर्शन होते हैं. कहा जाता है कि जैसे-जैसे सालिक यानी साधक ऊपर की ओर बढ़ता जाता है, वह भिन्न-भिन्न रंगों को देखता है.
प्रकृति के नियमों के अनुपालन से जुड़ा है प्राणायाम
प्रकृति का अपना अनिवार्य नियम है, जिसे वह श्वासों के माध्यम से लागू करती है और इसका हम सभी को अनुपालन करना चाहिए, तभी हम दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकते हैं. जीवन प्रकृति के नियम से बनता है. जो श्वास हमारे स्वास्थ्य और जीवन का मूल है, उसी के विज्ञान के ‘प्राणायाम’ का विज्ञान कहते हैं. योग ‘प्राणायाम’ पर निर्भर करता है. यदि हम गहराई से विचार करें, तो पतंजलि का अष्टांग योग को कोई भी अंश मानवता के विरुद्ध नहीं है.
वास्तविक स्वरूप में आना ही योग
योग का अर्थ ‘मिलना’, ‘जुड़ना’, ‘जोड़ना’ या ‘संयुक्त होना’ होता है, जिससे आदमी अपने संपूर्ण विकारों को त्यागकर आत्मा में लीन हो जाता है, यही योग है. दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मुखौटों को उतारकर अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाना ही योग है. योग साधना के कई मार्ग हैं, जैसे-राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, संन्यासयोग, हठयोग, ध्यानयोग आदि.
सबसे श्रेष्ठ, सरल और बोधगम्य है पतंजलि योगदर्शन
पतंजलि योग दर्शन सबसे श्रेष्ठ, सरल और बोधगम्य है. महर्षि पतंजलि के अनुसार, योग शरीर, इंद्रियों और मन को पूर्णरूप से अनुशासित कर चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है, अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है. इसके लिए पतंजलि ने अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) का मार्ग बताया है, जिससे कोई भी साधक आसानी से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है. जहां ‘यम’ (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) के द्वारा व्यक्ति की सामाजिक शुद्धि होती है. वहीं, ‘नियम’ (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, और ईश्वर प्रणिधान) के द्वारा व्यक्ति की आंतरिक शुद्धि होती है.
आसन केवल शारीरिक व्याधियां दूर करने का साधन
यहां एक बात साफ है कि बिना यम और नियम का पालन किये कोई भी व्यक्ति योग का पूर्णरूप से लाभ नहीं प्राप्त कर सकता. आसन तो सिर्फ शारीरिक व्याधियां दूर करने का साधन मात्र है. योग दर्शन एक जीवन शैली है, जो अपने आप में पूर्ण, सार्वभौम एवं वैज्ञानिक है. इसका प्रयोग देश, काल, जाति और लिंग आदि की भिन्नता को ध्यान में रखे बिना किया जा सकता है. यह संपूर्ण मानव जाति के लिए अनमोल धरोहर है. दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि योग मानव जाति के कल्याण का एक सशक्त मार्ग है.