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पिछड़ता बिहार

-हरिवंश- विकास की दौड़ में बिहार 1989-90 में वहां पहुंचेगा, जहां देश 1980-81 में था. इस स्तर पर पहुंचने के लिए भी बिहार को साढ़े बारह हजार करोड़ रुपये की सातवीं योजना चाहिए. इस आर्थिक पिछड़ेपन के कारण ही आज बिहार में क्रूरता है, सामंती मनोवृत्ति है और सुरसा की भांति बढ़ती गरीबी है. अभी […]

-हरिवंश-

विकास की दौड़ में बिहार 1989-90 में वहां पहुंचेगा, जहां देश 1980-81 में था. इस स्तर पर पहुंचने के लिए भी बिहार को साढ़े बारह हजार करोड़ रुपये की सातवीं योजना चाहिए. इस आर्थिक पिछड़ेपन के कारण ही आज बिहार में क्रूरता है, सामंती मनोवृत्ति है और सुरसा की भांति बढ़ती गरीबी है. अभी भी यहां प्रति दो मिनट में एक बच्चा कुपोषण और विभिन्न रोगों से मर जाता है. संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के दक्षिण मध्य एशिया के उपनिदेशक के अनुसार एक दिन में यहां मरनेवाले बच्चों की संख्या 750 है. इनमें से एक तिहाई बच्चे दस्त से मरते हैं और एक तिहाई बच्चे छूत के विभिन्न रोगों से. इन्हें मात्र टीके लगा कर बचाया जा सकता है, लेकिन बिहार सरकार लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने में भी असफल रही है.

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि स्वतंत्र भारत के अन्य राज्य आगे बढ़ रहे हैं और बिहार विकास की पटरी पर विपरीत दिशा में दौड़ लगा रहा है! स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास की विसंगतियों का ही यह परिणाम है. भारतीय आर्थिक विकास की नयी प्रवृत्तियां (संपादक : डॉ जगन्नाथ मिश्र, विकास पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित) पुस्तक में इन्हीं विसंगतियों को ढूंढ़ने का प्रयास किया गया है. पुस्तक में प्रमुख अर्थशास्त्रियों के कुल 42 लेख हैं.

काफी अध्ययन-मनन के बाद तैयार किये गये इन लेखों से व्यावहारिक स्तर पर भारतीय योजनाओं की असफलताएं स्पष्ट होती हैं. पश्चिमी पद्धति भारत जैसे विकासशील देश के लिए अनुकूल नहीं है. इस कारण क्षेत्रीय स्तर पर विषमता बढ़ रही है. इस विषमता की जड़ है, केंद्र-राज्य वित्तीय संबंधों में. इस उलझे संबंध की विस्तार से जांच की है, डॉ मिश्र ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘न्यू डाइमेंशंस ऑफ फेडरल फाइनेंस इन इंडिया’ में, यह पुस्तक केंद्र एवं राज्यों के वित्तीय संबंधों के विभिन्न पहलुओं के बारे में बारीकी से बताती है. वस्तुत: सवाल अब उठ रहे हैं. लेकिन यह समस्या पुरानी है. के. कामराज जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने केंद्र सरकार से राज्यों के बीच करों के विभाजन के सिद्धांत को बदलने का आग्रह किया था. विपत्ति या आकस्मिक स्थिति में भी राज्यों को
निर्विकार हो कर केंद्र का मुंह ताकना पड़ता है.

मुख्यमंत्री राष्ट्रीय विकास परिषद के सदस्य होते हैं. लेकिन केंद्र सरकार की मरजी पर ही योजना के विभिन्न मदों का अंतिम रूप में आवंटन निर्भर है. संविधान में ‘केंद्र’ जैसा कोई शब्द नहीं. संविधान के नवम भाग में ‘संघ तथा राज्य के संबंध’ पर प्रकाश डाला गया है. उसमें कहीं केंद्रीय सूची की बात नहीं, संघीय सूची की बात है. राष्ट्रीय संतुलन कायम रखने के लिए संघ तथा राज्यों में संतुलन-सहयोग की आवश्यकता है. परिस्थिति एवं आवश्यकता के अनुसार इस संबंध में आवश्यक परिवर्तन के लिए डॉ मिश्र ने दलगत आग्रहों से ऊपर उठ कर आवश्यक दलीलें जोरदार ढंग से पेश की हैं.

केंद्र द्वारा राज्यों के साथ किये गये सलूक का ही परिणाम है कि सातवीं योजना में बिहार में प्रति व्यक्ति खर्च 731 रुपये होगा, जबकि देश में यह खर्च औसतन 1580 रुपये प्रति व्यक्ति होगा. केंद्रीय संस्थाएं प्राय: बिहार के साथ सौतेला व्यवहार करती हैं. ओड़िशा, मेघालय से भी कम प्रति व्यक्ति अग्रिम बैंकों ने बिहार में दिया है. 10 करोड़ की आबादी और अपार प्राकृतिक संसाधनों से युक्त इस राज्य के साथ ऐसा व्यवहार क्यों?

आंकड़े वस्तुत: नीरस होते हैं. इस कारण दर्द की बात अंकों या शब्दों में नहीं की जा सकती. लेकिन आधुनिक विकास मॉडल में विकास को तौलने का कोई मापदंड नहीं है. इन पुस्तकों में आवश्यक तथ्यों के साथ राज्यों के साथ, खास कर बिहार के साथ केंद्र द्वारा हो रहे भेदभाव को लेखक ने उजागर किया है.

डॉ जगन्नाथ मिश्र मूलत: अर्थशास्त्र के अध्यापक थे, बाद में राजनीति में आये. उन पुस्तकों में एक सफल अर्थशास्त्री की तरह डॉ मिश्र ने बेबाक सवालों को निर्भीक रूप से उठाया है. केंद्र के इस व्यवहार के संबंध में डॉ मिश्र अपने जन-जागरण अभियान में भी लोगों से बतियाते हैं. बिहार की पीड़ा-पिछड़ेपन का सवाल उठाते हैं. एक निर्भीक राजनीतिज्ञ की तरह डॉ मिश्र ने अगर अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में ही इन सवालों को पुरजोर ढंग से उठाया होता, इन सवालों को मुद्दा बना कर अपनी गद्दी छोड़ी होती, तो आज बिहार का रूप ही अलग होता. वस्तुत: आज की राजनीतिक संस्कृति की यह विवशता कि सही सवाल सही मौके पर नहीं उठाये जाते.

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