आजकल हाइपोथायरॉयड की समस्या बहुत तेजी से बढ़ी है. यदि यह रोग आपको पहले से है, तो प्रेग्नेंसी के दौरान कुछ सावधानियां रखनी जरूरी हो जाती हैं. थायरॉयड डिजीज के कारण प्रीमेच्योर बर्थ, प्रीएक्लेंप्शिया, गर्भपात और बच्चे का वजन कम होने का खतरा हो सकता है.
क्या हैं लक्षण
इस रोग के कारण गर्भवती को अत्यधिक थकान, वजन का तेजी से बढ़ना आदि की शिकायत हो सकती है. हालांकि ऐसे लक्षण प्रेग्नेंसी के दौरान सामान्य रूप से भी दिखते हैं. इस कारण रोगी को रोग के होने का एहसास नहीं भी हो सकता है.
इसके अलावा इस रोग के कारण कब्ज, ध्यान लगाने में समस्या या भूलने की समस्या हो सकती है. कुछ मामलों में मांसपेशियों में क्रैंप्स भी पड़ सकते हैं. हाइपोथायरॉयड के अवस्था की जानकारी इसकी जांच से होती है. इसे जानने के लिए ब्लड टेस्ट किया जाता है जिसमें थायरॉयड स्टीम्यूलेटिंग हॉर्मोन (टीएसएच) और थायरॉयड हॉर्मोन टी4 की जांच की जाती है.
गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव
जन्म लेने से पहले शिशु में खुद की थायरॉयड ग्रंथियां विकसित नहीं होती हैं. इस कारण शिशु इस हॉर्मोन के लिए पूरी तरह मां पर निर्भर रहता है. इसकी जरूरत शिशु को प्रेग्नेंसी के पहले तीन महीने में पड़ती है. इसका अर्थ यह हुआ कि इसकी जरूरत प्रेग्नेंसी के शुरुआती स्टेज में पड़ती है.
आमतौर पर जब तक महिला को खुद से गर्भधारण करने का पता चलता है, तब तक इसका रोल लगभग खत्म हो चुका होता है. हाइपोथायरॉयड के कारण दिमागी विकास में अड़चन आती है. हॉर्मोन की कमी का असर प्रेग्नेंसी की बाद की अवस्था में भी पड़ता है. अत: डॉक्टर के संपर्क में रहें.
कैसे होता है उपचार
इस रोग का उपचार कृत्रिम हॉर्मोन से होता है. इस हॉर्मोन को लीवोथायरॉक्सिन के नाम से जाना जाता है. यह हॉर्मोन थायरॉयड द्वारा बनाये जानेवाले हॉर्मोन टी4 के समान ही होता है. प्रेग्नेंसी का पता चलने के बाद डॉक्टर इसके डोज को अवस्था के अनुसार एडजस्ट करते हैं. इसके लिए डॉक्टर प्रेग्नेंसी के दौरान हर चार-छह सप्ताह में थायरॉयड फंक्शन टेस्ट करते हैं. प्रेग्नेंसी के दौरान इसके डोज को बढ़ाने की जरूरत पड़ सकती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि आयरन और कैल्शियम शरीर में थायरॉयड के अवशोषण को अवरुद्ध कर देते हैं. इसकी कारण लीवोथायरॉक्सिन लेने के बाद तीन-चार घंटे तक आयरन या कैल्शियम सप्लीमेंट का सेवन नहीं करना चाहिए.