साहिबाबाद की तंग गलियां जहां चूड़ियों का कारोबार बड़े पैमाने पर होता था, हमेशा ही मेरे आकर्षण का केंद्र रही हैं. इस बार बहुत दिनों बाद वहां जाना हुआ. भाई-भाभी ने तो जैसे रिश्तेदारी को विसर्जित ही कर दिया था, पर इस बार कुछ दफ्तर के काम से वहां का टूर बन गया. यह डर था कि अगर पतिदेव गये और उचित मेहमाननवाजी न की गयी तो फिर से एक खटास ताउम्र रह जायेगी. इसलिए मैंने अकेले ही जाने का फैसला किया. सोचा, अपने अपमान का घूंट पी लूंगी.
दरवाजा खोलते ही भाई ने स्वागत किया. “आ जाओ, बहुत दिनों बाद आयी. “भाभी करीब 20 मिनट बाद अपने बेडरूम से निकल कर एक फीकी मुस्कान बिखेरती हुई रसोई की ओर चली गयी. यह बात तो कब से जाहिर हो गयी थी कि वह भाई जो मेरी कहानियों का आनंद लिये बिना सोता नहीं था, उसके लिए रिश्तों की गरमाहट जाने कब की ठंडी हो चुकी थी. मेरा अपना कमरा मॉडर्न बाथरूम में तब्दील हो गया था. बरामदे के बीचोबीच जहां हम एक मोटी लकीर खींच कर कित-कित खेला करते थे, वहां दीवार खड़ी कर दो कमरे बना दिये गये थे.
आंगन की तुलसी जाने कब से सूखी पड़ी थी. हां, गमलों में कैक्टस के नयनाभिराम फूल ज़रूर आकर्षित कर रहे थे. मेरे विवाह के पहले हमारा यह साधारण-सा घर हम भाई-बहन के लिए महल से कम नहीं हुआ करता था. माता-पिता की तसवीर जिस दीवार पर टंगी रहती थी, वहां नक्काशी कर दी गयी थी. जाने कब से उनकी तसवीरें एक टेबुल पर पड़ी हुई थीं, जिस पर एक मोटी परत धूल की जमी हुई थी. मुझे लगा शायद सफाई के लिए उन्हें उतारा गया होगा.
सुबह उठते ही मैंने चूड़ियों की गलियों में जाने की इच्छा व्यक्त की. भाभी ने बताया- “अरी, अब वो गलियां कहां… उन्हें तो ध्वस्त कर बहुमंजिली कॉलोनी में बदल दिया गया है. “मैं सोचने लगी कि क्या पुरानी धरोहर यूं ही मिट जायेगी. हमारी आनेवाली पीढ़ियां किसी शहर के विकास में सर्वस्व बलिदान देनेवाली छोटी-छोटी गलियों और कस्बों के अस्तित्व को शायद किताबों में भी न पढ़ पायें.
तभी बाहर से कबाड़ीवाले की आवाज आयी. मैंने सुना भाभी अपने नौकर को कह रही थीं- टेबुल पर पड़ी सभी सामानों को दे दो, उन्हें रख कर बेकार ही घर में कचरा बढ़ता है. रामू कचरों की ढेर से मां-पापा की तसवीर अलग कर बाकी सामान बटोरने लगा. उसी समय भाभी वहां आयीं. उसने तसवीरें अलग देख कहा- “इन्हें क्यों अलग किया है ?”
“जी, पोंछ कर फिर टांग दूंगा. “
“कोई ज़रूरत नहीं, पिछले साल हांगकांग से लायी वाल हैंगिंग अब तक रखी हुई है. उसी के लिए तो दीवार खाली करवाई हूं”. अभी तक तो मैं शहर के पुनर्निर्माण पर स्तब्ध थी और अब माता-पिता की तसवीर को कचरे में तब्दील होते देख रो पड़ी. कैसे कोई इतना संवेदनहीन हो सकता है?
उन तस्वीरों को हाथ में ले कर मैं हाथों से ही धूल पोंछने लगी. मैंने भाभी को कहा- “मैं इन्हे ले जाऊंगी, भाभी. मेरे घर की कई दीवारें खाली हैं”. भाभी तो जैसे इसी मौके का इंतजार कर रहीं थीं. कहने लगीं- “हां, ठीक है. वैसे भी आप उनकी लाड़ली बिटिया थीं. उन्होंने मरने से पहले अपनी कीमती साड़ियां भी तो आपको ही दीं. मेरे हिस्से बची-खुची चीजें ही आयीं.”
मन कर रहा था उन्हें याद दिला दूं, कैसे मां के सभी गहनों पर बहू का हक बता कर हथिया लीं, पर मेरा कुछ कहना बात को ़बढ़ावा देना रहता. इसलिए मैंने उनकी बात अनसुनी करते हुए कहा- “मोना एक पोट्रेट बनाना चाहती थी नानी पर, अच्छा है उसे मां की सबसे अच्छीवाली तसवीर मिल गयी.” अपने बक्से में उन्हें रखते हुए लग रहा था कि मां- पापा के चेहरे पर एक प्यारी-सी मुस्कान उभरी और फिर लुप्त हो गयी. दो आत्माएं तृप्त हो गयी थीं.