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लाइलाज नहीं है कुष्ठ रोग, 6 से 12 महीने में पूरी तरह से हो सकता है ठीक, जानें बिहार-झारखंड में कुष्ठरोगियों की स्थिति

डॉ राजीव जॉय नेथन डिप्टी सुपरीटेंडेंट, द लेप्रोसी मिशन कम्यूनिटी हॉस्पिटल, दिल्ली लेप्रोसी के मरीज को छुआछूत, कोढ़ और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. यह सर्वथा गलत है. संक्रामक बीमारी होने के बावजूद यह छूने या हाथ मिलाने, उठने-बैठने या कुछ समय के लिए साथ रहने से नहीं फैलती है. यह संभव है […]

डॉ राजीव जॉय नेथन
डिप्टी सुपरीटेंडेंट, द लेप्रोसी मिशन कम्यूनिटी हॉस्पिटल, दिल्ली
लेप्रोसी के मरीज को छुआछूत, कोढ़ और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. यह सर्वथा गलत है. संक्रामक बीमारी होने के बावजूद यह छूने या हाथ मिलाने, उठने-बैठने या कुछ समय के लिए साथ रहने से नहीं फैलती है. यह संभव है कि लेप्रोसी पीड़ित व्यक्ति के साथ लंबे समय तक साथ रहने से परिवार के सदस्य इसकी चपेट में आ जाएं, लेकिन नियमित रूप से चेकअप कराने और समुचित बचाव करने से इसे पूरी तरह ठीक किया जा सकता है. इसलिए वैसे लोगों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास करें.
लेप्रोसी या कुष्ठ रोग एक हवा जनित संक्रामक रोग है, जिसे हैनसेन रोग भी कहा जाता है. यह रोग माइकोबैक्टीरियम लेप्रे बैक्टीरिया के फैलने से होता है. लेप्रोसी पीड़ित व्यक्ति के खांसने या छींकने पर उसके श्वसन तंत्र से निकलनेवाली जल की बूंदों में लेप्रे बैक्टीरिया होते हैं. ये बैक्टीरिया हवा के साथ मिलकर दूसरे व्यक्ति के शरीर में पहुंच जाते हैं.
स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुंच कर इन बैक्टीरिया को पनपने में करीब 4-5 साल लग जाते हैं. कई मामलों में बैक्टीरिया को पनपने (इन्क्यूबेशन) में 20 साल तक लग जाते हैं. प्राइमरी स्टेज पर लेप्रोसी के लक्षणों की अनदेखी करने से व्यक्ति अपंगता का शिकार हो सकता है. यह संक्रामक है, पर यह लोगों को छूने, साथ खाना खाने या रहने से नहीं फैलता है. लंबे समय तक संक्रमित व्यक्ति के साथ रहने से इससे संक्रमण हो सकता है, पर मरीज को यदि नियमित रूप से दवा दी जाये, तो इसकी आशंका भी नहीं रहती है.
क्या है लक्षण और कारण :
लेप्रोसी के प्राइमरी स्टेज को ट्यूबरक्यूलोइड कहा जाता है. इसमें लेप्रे बैक्टीरिया शरीर के हाथ, पैर, मुंह जैसे एक्पोज या खुले अंगों और उनकी पेरीफेरल नर्व्स या गौण तंत्रिकाओं को ज्यादा प्रभावित करता है. इसमें ब्लड या आॅक्सीजन की सप्लाई कम होने से प्रभावित अंग सुन्न होने लगते हैं.
शरीर की त्वचा पर पैच पड़ने लगते हैं या त्वचा का रंग से हल्का पड़ने लगता. वह जगह सुन्न होने लगती है. वहां का सेंसेशन खत्म हो जाता है. समुचित इलाज न कराने से पैच दूसरे अंगों पर भी होने लगते हैं. पैच वाली स्किन ड्राइ और हार्ड होने लगती है. किसी भी प्रकार की चोट लगने या दूसरे इन्फेक्शन होने पर उनमें अल्सर हो सकता है.
मरीज के विभिन्न अंग खासकर हाथ और पैर सुन्न होने से ठंडे-गर्म का एहसास नहीं होता. चोट का एहसास नहीं होता है. गर्म चीजों को उठाने या आग सेंकने से उनके हाथ जल जाते हैं. छाले पड़ जाते हैं. घाव हो जाता है, जिससे उनके अंदर की हड्डियां भी जलने लगती हैं और धीरे-धीरे छोटी हो जाती हैं.
वैसे ही पैरों के तलवे में सुन्न होने की वजह से मरीज के ज्यादा चलने पर, चोट लगने पर या पत्थर चुभने से घाव हो जाते हैं. इसका पता नहीं चल पाने पर घाव गंभीर होकर पैरों के शेप बदलने लगते हैं और विकृति आने लगती है.
आंखों को पहुंच सकता है नुकसान :
मरीज की आंखों में भी तकलीफ हो सकती है. लेप्री बैक्टीरिया उनकी आंख की पुतलियों की नर्व्स को अपनी चपेट में ले लेता है. इससे उसकी आंख झपक नहीं पाती है.
हमेशा खुली रहती है. खुली रहने की वजह से वह हवा के संपर्क में आने से ड्राई हो जाती है. उसमें धूल-मिट्टी या कोई भी कण जा सकता है. इसकी वजह से आंख लाल हो जाती है और उसमें पानी निकलने लगता है. दूसरे आंख में कुछ भी गिरने पर अमूमन हम रगड़ देते हैं, जिससे कार्निया पर चोट लग सकती है या इंफेक्शन हो जाता है.
लेप्रोसी के बैक्टीरिया अगर आंख के अंदर चले जाते हैं, तो आंख अंदर से भी प्रभावित हो सकती है. आंख में अंदर से लालीपन और दर्द होने लगता है. अल्सर की स्थिति आ सकती है, जिससे काॅर्निया सफेद हो जाता है और दिखना तक बंद हो जाता है. इस स्थिति को आईराइटिस कहा जाता है.
प्राइमरी स्टेज में इलाज से ठीक हो सकता है कुष्ठ रोग
कई बार लेप्रोसी की मेडिसिन में स्टेराॅयड होता है, उसकी वजह से भी मरीजों को कैटरैक्ट हो सकता है.
6 से 12 महीने में पूरी तरह ठीक हो सकता है कुष्ठ रोग :
अर्ली डिटेक्शन यानी समय पर लेप्रोसी के संक्रमण की पहचान और दवा का पूरा कोर्स लेने से इसका पूर्ण इलाज संभव है. यदि मरीज को शरीर के किसी भी अंग में लेप्रोसी पैच का अनुभव हो, जिसमें सेसेशन न हो, तो तुरंत डाॅक्टर से जांच करवाना चाहिए और मेडिसिन का पूरा कोर्स लेना चाहिए. आमतौर पर कुष्ठ रोग के मरीज के साथ भेदभाव किया जाता है. लेप्रोसी को भगवान का श्राप मानने की वजह से मरीज मानसिक तौर पर भी परेशान रहता है और डाॅक्टर को दिखाने से हिचकता है.
समाज भी उसे हेय दृष्टि से देखता है, जो बिल्कुल गलत बात है. यह बीमारी किसी को भी हो सकती है. लेप्रोसी की मेडिसिन सभी सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में बिल्कुल मुफ्त दी जाती है. जल्द डायगनोस होने, समुचित उपचार, जरूरी सावधानियों और मेडिसिन का कोर्स पूरा करके मरीज 6-12 महीने में ठीक हो जाता है.
रखें इन बातों का ध्यान
डॉक्टर मरीजों को कुछ सावधानियां बरतने के लिए भी कहते हैं, ताकि स्थिति गंभीर न हो.
मरीज सुबह उठ कर आईना के सामने बैठ कर अपने अंगों को परखें. कहीं पैच या छाला तो नहीं पड़ा. त्वचा में कहीं जख्म तो नहीं पड़ा. पैच की स्किन मोटी तो नहीं हुई है, आंखों में लालिमा या पानी तो नहीं आ रहा है.
यदि मरीज का हाथ-पैर सुन्न हो, त्वचा मोटी या खुरदरी हो रही हो, तो नहाने के बाद उन्हें गुनगुने पानी में थोड़ी देर रखें, फिर उसमें तेल से मालिश करें ताकि नमी बरकरार रहे.
अगर कहीं छाला हो, तो उसे साफ कपड़े से बांध दें. अगर परेशानी ज्यादा हो, तो तुरंत डाॅक्टर से संपर्क करें.
काम करते हुए कोई गर्म चीज पकड़नी हो, तो चिमटा, रूमाल या तौलिया से पकड़ें. संभव हो, तो हाथों में ग्लब्स पहन कर काम करें या हाथों पर कपड़ा बांध लें.
नुकीली चीजों से दूर रहें, बहुत जरूरी होने पर ही उसके संपर्क में आएं.
पैदल ज्यादा दूर तक न चलें, थोड़ी-थोड़ी देर पर काम करें. पर्याप्त आराम करें.
आंखों पर चश्मा लगाकर रखें, रात को सोते समय आंख पर साफ कपड़ा ढीला बांध कर सोएं, जिससे वह खुली न रहे.
हाइजीन का रखें ध्यान : लेप्रोसी आसानी से फैलने वाली डिजीज नहीं है. लंबे समय तक लेप्रोसी पीड़ित व्यक्ति के साथ रहने पर भी दूसरे को लेप्रोसी होने की आशंका नहीं होती है. यह छूने या साथ रहने से नहीं फैलती है. कुछ मामलों में लेप्रोसी के मरीज को क्रॉनिक ट्यूबरोक्लोसिस हो जाता है. उसके खांसने से लेप्रोसी का बैक्टीरिया हवा में फैलता है और दूसरे व्यक्ति तक पहुंच सकता है. मरीज के फैमिली मेंबर्स को साफ-सफाई या हाइजीन का ध्यान रखना जरूरी है. इलाज करानेवाले मरीज के फैमिली मेंबर्स का भी चेकअप कराते रहना जरूरी है. ताकि संक्रमण न हो.
रखें ख्याल : लेप्रोसी आनुवंशिक बीमारी नहीं है. शुरुआती अवस्था में इसे पूरी ठीक किया जा सकता है और मरीज को अपंगता से रोका जा सकता है.
लेप्रोसी के मरीजों को छुआछूत, कोढ़ और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ता है, जो सर्वथा गलत है. संक्रामक बीमारी होने के बावजूद यह छूने या हाथ मिलाने, उठने-बैठने या कुछ समय के लिए साथ रहने से नहीं फैलती.
उन्मूलन की दिशा में अग्रसर एनएलइपी
भारत सरकार की मिनिस्ट्री आॅफ हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर ने कुष्ठ उन्मूलन का कार्यक्रम 2005 में शुरू किया था. हालांकि, उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिल पायी है, फिर भी इस दिशा में उनका प्रयास सराहनीय है.
इसके पीछे मूल वजह थी कि लेप्रोसी के मामले प्राथमिक दौर में पता नहीं चल पाते हैं. इसी को देखते हुए भारत सरकार ने 2015 में नेशनल लेप्रोसी इराडिक्शन प्रोग्राम (एनएलईपी) शुरू किया. इसमें लेप्रोसी डिटेक्शन कंपेन और फोकस लेप्रोसी कंपेन शुरू की गयी.
इनका उद्देश्य घर-घर जाकर लेप्रोसी के मामले ढूंढना और उनका इलाज करवाना है. लेप्रोसी डिटेक्शन कैंपेन के अंतर्गत करीब 3.60 लाख गांवों में यह कार्यक्रम शुरू हुआ और यहां की 36 करोड़ की जनसंख्या में से अप्रैल 2016-मार्च 2017 तक करीब 2.5 हजार लेप्रोसी के नये मामले ढूंढने में सफल रहे. जिससे कुष्ठ के कारण होनेवाली अपंगता में कमी आयी. इस कार्यक्रम के तहत प्रति 1000 की आबादी वाले गांवों के लिए एक-दो आशा कार्यकर्ता रखे जाते हैं, जिन्हें लेप्रोसी के प्रति जागरूकता फैलाने और लेप्रोसी के नये मामले ढूंढने की ट्रेनिंग दी जाती है.
इसके लिए उन्हें 250 रुपये प्रति व्यक्ति दिये जाते हैं. आशा कार्यकर्ता समय-समय पर घर-घर जाकर लेप्रोसी के संदेहास्पद व्यक्ति को ढूंढ़ते हैं. उनकी जांच की जाती है और मामले पॉजिटिव पाये जाने पर समुचित उपचार किया जाता है. इसी तरह फोकस लेप्रोसी कंपेन में लेप्रोसी के कारण दिव्यांग हुए लोगों को ढूंढा जाता है. उनकी जांच इलाज और फिजियोथेरेपी मुहैया करायी जाती हैं. उन्हें जीवनयापन करने की ट्रेनिंग भी दी जाती हैं.
इनपुट : डॉ पुष्पा एम बेक, स्टेट लेप्रोसी ऑफिसर, झारखंड
बिहार-झारखंड में स्थिति
कुष्ठ रोग की बात की जाये, तो नेशनल लेप्रोसी इराडिक्शन प्रोग्राम के 2015 के आंकड़ों के अनुसार बिहार के 38 जिलों की कुल आबादी 11.35 करोड़ में प्रति 10,000 आबादी पर 0.91 की औसत था, जबकि झारखंड की 3.6 करोड़ आबादी में प्रति 10,000 पर औसतन 0.96 था. 2018 के आंकड़ों के अनुसार बिहार में यह औसत 1.18 प्रति 10,000 व्यक्ति हो गया है, जबकि झारखंड यह आंकड़ा 1.05 हुआ है. यानी 2015 के मुकाबले यहां लेप्रोसी के मामले बढ़े हैं.
इसलिए यह जरूरी हो जाता हैै कि आप भी इसके प्रति जागरूक हों और यदि आप ऐसे किसी मरीज को जानते हों, तो उन्हें तुरंत नजदीकी अस्पताल में ले जाकर उनका इलाज कराएं, ताकि समाज और पूरा देश इस बीमारी से छुटकारा पा सके.
जांच और उपचार
डब्ल्यूएचओ ने मरीज की जांच के लिए सिंपल तीन कार्डिनल लक्षण बनाये हैं. इनके आधार पर डाॅक्टर मरीज की जांच करते हैं. अगर मरीज को इन तीनों में से कोई लक्षण नहीं होते, तो लेप्रोसी को कंफर्म करने के लिए बाॅयोप्सी भी की जाती है.
मल्टी ड्रग थेरेपी (एमडीटी) द्वारा लेप्रोसी का इलाज किया जाता है. उम्र के हिसाब से मेडिसिन को दो भागों में बांटा गया है- एमडीटी एडल्ट और एमडीटी चाइल्ड.
इसमें राइफैम्पिसिन दवाई लेप्रोसी की प्राइमरी स्टेज में दी जाती है, जबकि एडवांस स्टेज में राइफैम्पिसिन के साथ क्लोफाजीन और डैपसोन भी दी जाती है. इसमें मरीज की स्थिति के आधार पर 6 से 12 महीने का कोर्स कराया जाता है. मरीज एमडीटी मेडिसिन का पहला डोज भी ले लेता है, तो उसके शरीर में मौजूद 99 प्रतिशत बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं.
बाकी मेडिसिन का कोर्स एक साल तक चलता है. इनके अलावा रीफापिसिन, आॅक्लोक्सासीन और मीनासाइक्लीन मेडिसिन भी मरीज को दी जाती है. प्राइमरी स्टेज पर ही इलाज शुरू कर दिया जाये और नियमित रूप से मेडिसिन ली जाएं, तो लेप्रे बैक्टीरिया में बीमारी फैलाने की क्षमता खत्म हो जाती है.
लेप्रोसी में मरीज की स्थिति जब गंभीर हो जाती है यानी जब कोई विकृति या अल्सर हो जाता है, हाथ टेढ़े हो जाते हैं या पैर लटक जाते हैं और चलने में तकलीफ होती है. तब उनकी सर्जरी की जाती है. आॅपरेशन के बाद डाॅक्टर की देखरेख में फिजियोथेरेपी की जाती है. कुछ महीनों बाद वह मरीज उस हाथ-पैर से पुनः काम करने योग्य हो जाता है.
बातचीत : रजनी अरोड़ा

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