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मूक-बधिर बच्चों का मुफ्त में भी हो सकता है इलाज, बिहार-झारखंड में चलाया जा रहा नि:शुल्क अभियान

मूक-बधिर बच्चों के इलाज के लिए बच्चों के उनके कान में डिवाइस (कॉकलीयर) का प्रत्यारोपण किया जाता है और फिर थेरेपी चलती है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि बच्चा की अधिकतम दो से ढाई वर्ष की उम्र में इलाज शुरू हो जाए.

रांची : मूक-बधिर बच्चों की बीमारी अब लाइलाज नहीं हैं और न ही बहुत खर्चीला. अत्याधुनिक तकनीक से बच्चों की मूक-बधिरता दूर की जा सकती है और इसके लिए अभिभावकों को अपनी जेब से पैसे भी नहीं खर्च होंगे. बिहार की राजधानी पटना में कार्यरत डॉ अभिनीत लाल कहते हैं कि सरकार और कई गैर-सरकारी संस्थाएं ऐसी बीमारियों के इलाज के लिए फंड की व्यवस्था कर रही हैं. ऐसे बच्चों का इलाज मुफ्त में संभव है. डॉ अभिनीत लाल कान, नाक, गला रोग (ईएनटी) विशेषज्ञ हैं. खुद भी पटना में रहकर बिहार के आर्थिक तौर कमजोर वर्ग के मरीजों का इलाज भी करते हैं.

डॉ अभिनीत के अनुसार, मूक-बधिर बच्चों के लिए एडीआईपी (असिस्टेंस टू डिसएबल्ड परशन्स फॉर परचेज या फिटिंग दि एड्स एंड एप्लायांसेज) के तहत इलाज की व्यवस्था की गई है. बिहार-झारखंड में मूक-बधिर बच्चों की दिव्यांगता दूर करने के लिए चलाए जा रहे इस अभियान के तहत पूरी तरह से नि:शुल्क इलाज का प्रावधान किया है. यदि कोई बच्चा पीड़ित है, तो उसके अभिवावक मुफ्त में परामर्श और मार्गदर्शन ले सकते हैं.

कैसे होता है इलाज

मूक-बधिर बच्चों के इलाज के लिए बच्चों के उनके कान में डिवाइस (कॉकलीयर) का प्रत्यारोपण किया जाता है और फिर थेरेपी चलती है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि बच्चा की अधिकतम दो से ढाई वर्ष की उम्र में इलाज शुरू हो जाए. डॉ अभिनीत का कहना है कि मूक-बधिर बच्चों की दिव्यांगता दूर करने का अभियान चल रहा है, जिसका मैं भी भागीदार हूं. उन्होंने कहा कि इस बीमारी और इसके इलाज के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए मुझसे कभी भी संपर्क कर सकते हैं.

ऑपरेशन के बाद दो साल तक दी जाती है थेरेपी

डॉ अभिनीत ने कहा कि ऑपरेशन के दो साल तक बच्चे को विशेष थेरेपी दी जाती है. उन्होंने बताया कि सही समय पर ऑपरेशन तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उसके बाद थेरेपी के लिए माता-पिता का सहयोग कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसे हम ऑडेटरी वर्बल ट्रेनिंग कहते हैं. उन्होंने इसमें आनेवाली खर्च के बारे में बताया कि इसके इलाज में वैसे तो इंप्लांट का खर्ज 6.5 लाख रुपये आता है और सर्जरी करने में 1 लाख का खर्च होते हैं. कुल मिलाकर 7.5 लाख रुपये लग जाते हैं, लेकिन अभी हमलोग केंद्र सरकार और गैर-सरकारी संस्थानों के सहयोग से पूरे बिहार-झारखंड राज्य में मूक बधिर बच्चे का ट्रीटमेंट बिल्कुल नि:शुल्क कर रहे हैं.

चार साल के बाद के समस्या का इलाज संभव नहीं

डॉ अभिनीत ने बताया कि चूंकि बच्चे का ब्रेन चार वर्ष के डेवलप हो जाता है और उसके बाद इंप्लांट लगाने का कोई फायदा नहीं होगा. इसलिए ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि अगर कोई बच्चा एक से डेढ़ वर्ष तक कुछ नहीं सुन रहा है या नहीं बोल पा रहा है, तो मां-बाप को उसे इलाज के लिए तत्काल रूप से आगे आना चाहिए. अक्सर परिवार के लोग ये सोचकर इंतजार करते हैं कि अभी छोटा बच्चा है जैसे-जैसे बड़ा होगा, वो बोलना शुरू करेगा, लेकिन तबतक काफी देर हो जाती है. इसलिए सही समय पर बहरेपन का पहचान और इलाज शुरू कराना आवश्यक हो जाता है.

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गैर सरकारी संस्थाएं भी कर रहीं काम

फिलहाल, बिहार -झारखंड में गैर सरकारी संस्था ‘हंस’ भी मूक-बधिर बच्चों के इलाज के लिए कार्य कर रही है. यह संस्था ऐसे बच्चे के इलाज के लिए अपनी तरफ से साढ़े पांच लाख रुपये की मदद करती है. कुछ राशि अभिभावक को देनी पड़ती है. इस संस्था के तहत बच्चों का ऑपरेशन पटना में किया जाता है. संस्था ऑपरेशन से पहले की सारी प्रक्रिया खुद ही ही पूरी करती है. सरकार से पैसे जुटाने लिए भी पहल करती है. अभिभावक को ज्यादा कुछ नहीं करना होता है.

Disclaimer: हमारी खबरें जनसामान्य के लिए हितकारी हैं. लेकिन दवा या किसी मेडिकल सलाह को डॉक्टर से परामर्श के बाद ही लें.

KumarVishwat Sen
KumarVishwat Sen
कुमार विश्वत सेन प्रभात खबर डिजिटल में डेप्यूटी चीफ कंटेंट राइटर हैं. इनके पास हिंदी पत्रकारिता का 25 साल से अधिक का अनुभव है. इन्होंने 21वीं सदी की शुरुआत से ही हिंदी पत्रकारिता में कदम रखा. दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद दिल्ली के दैनिक हिंदुस्तान से रिपोर्टिंग की शुरुआत की. इसके बाद वे दिल्ली में लगातार 12 सालों तक रिपोर्टिंग की. इस दौरान उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित दैनिक हिंदुस्तान दैनिक जागरण, देशबंधु जैसे प्रतिष्ठित अखबारों के साथ कई साप्ताहिक अखबारों के लिए भी रिपोर्टिंग की. 2013 में वे प्रभात खबर आए. तब से वे प्रिंट मीडिया के साथ फिलहाल पिछले 10 सालों से प्रभात खबर डिजिटल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. इन्होंने अपने करियर के शुरुआती दिनों में ही राजस्थान में होने वाली हिंदी पत्रकारिता के 300 साल के इतिहास पर एक पुस्तक 'नित नए आयाम की खोज: राजस्थानी पत्रकारिता' की रचना की. इनकी कई कहानियां देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.

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