manoj bajpayee :अपने किरदारों में रच बस जाना अभिनेता मनोज बाजपेयी की खासियत है. इनदिनों वह अपनी फिल्म इंस्पेक्टर झेंडे को लेकर सुर्ख़ियों में हैं.उनकी इस फिल्म,उससे जुड़ी तैयारियों और करियर पर उर्मिला कोरी की हुई बातचीत
बिहार से होते हुए भी आप ने कई यादगार मराठी किरदार ऑनस्क्रीन निभाए हैं ,भीखू मात्रे से भोंसले तक और अब इंस्पेक्टर झेंडे
मैं कहूंगा कि मैं एक एक्टर हूं तो मेरा काम है कि मैं किसी भी किरदार को अपना सौ प्रतिशत दूं. वैसे तीस साल से मैं महाराष्ट्र में हूं तो इसका जगह से एक रिश्ता बन गया है.मैं इनका गांव खेड़ा बहुत घुमा हूँ. मेरा मानना है कि जिस जगह रहते हो वहां के लोगों और जगह को देखो और समझो. मैंने महाराष्ट्र को बाय रोड बहुत ज्यादा देखा हुआ है. मराठी अलग -अलग जहां -जहां बोली जाती है. मैंने उस पहलु पर भी गौर किया है. फिल्म अलीगढ़ के प्रोफेसर और झेंडे सहित सभी मेरे मराठी किरदारों के बोलने का अंदाज अलग लगेगा क्योंकि मैं सभी को महाराष्ट्र के अलग -अलग जगह पर सेट करता हूं. इसके साथ ही जिस वर्ग से वह आते हैं.वह भी मराठी बोलने के अंदाज में बदलाव लाता है. इस बारीकी पर भी काम करता हूं तो मराठी किरदार होते हुए भी सभी अलग अलग हो जाते हैं . इसके अलावा बॉडी लैंग्वेज,बोलते हुए पॉज लेना ये सब पर भी काम होता है
यह रियल कहानी है तो कितना समय आपने इंस्पेक्टर झेंडे के साथ बिताया ?
ये उस वक़्त की कहानी है , जब झेंडे साहब 49 -50 साल के रहे होंगे. झेंडे साहब अभी 88 के हैं इसलिए फिल्म के निर्देशक चिन्मय ने मुझे मिलने भी नहीं दिया था. ये अच्छा भी था. चिन्मय के दिमाग में परिकल्पना थी कि ये कैसे होगा.मेरे दिमाग में भी कुछ बात आयी. हम दोनों ने मिल बांटकर किरदार को समझने की कोशिश की और अपने इमेजिनेशन से 49 -50 की उम्र में कैसे रहे होंगे. उसको लाने की कोशिश की.हां उनके बारे में आर्टिकल में पढ़ा और चिन्मय से भी समझा.आमतौर पर पुलिस ऑफिसर का मतलब गुस्सा है,लेकिन झेंडे साहब को गुस्सा नहीं आता है. चिन्मय ने बताया कि झेंडे साहब ने कभी बंदूक का इस्तेमाल नहीं किया था. वह किसी भी मिशन में अपने ओहदे से कम लोगों को साथ में लेकर चलते थे. सभी से उनका व्यवहार भाई जैसा होता था. ऐसा किरदार पुलिस वाले का मैंने कभी नहीं निभाया है.
पुलिसिया किरदार जब ऑफर होते हैं तो क्या टाइपकास्ट का डर नहीं लगता है ?
अब तक नहीं हुआ तो अब क्या ही होऊंगा टाइपकास्ट. पहले इसका डर होता था. लोग एक ही तरह से ना जाने. मुझे लगता है कि अब डायरेक्टर और प्रोड्यूसर सजग रहते हैं कि मनोज को उस तरह का किरदार ऑफर नहीं करना है, जिस तरह का वह किरदार कर चुका है.पुलिस में काम करने वाले हर इंसान का व्यक्तित्व एक जैसा नहीं होता है तो किरदार कैसे एक सा हो सकता है.
इनदिनों ओटीटी के बारे में कहा जा रहा है कि यहां क्वालिटी से ज्यादा क्वांटिटी पर काम हो रहा है ?
मैं इस बात को नहीं मानता हूं,लेकिन इसके साथ ही मैं ये भी कहूंगा कि चीजें थोड़ी प्रेडिक्टबिलिटी की तरफ जा रही हैं, ये एक फेज है. ये अपने आप चला भी जाएगा. ये फेज सारे मीडियम में आता है और इससे गुजरना पड़ता है. अभी दुनिया जिस रास्ते पर जा रही है. मेकर्स तो कंफ्यूज होंगे ही कि क्या कहानी कही जाए. जो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच जाए. इस कन्फ्यूजन के कारण ही ऐसा लग रहा है लेकिन ये जल्दी खत्म होगा.
क्या आपके लिए किसी प्रोजेक्ट को ना कहना आसान होता है या आप ना नहीं कह पाते ?
ना कहना सबसे ज्यादा आसान होता है क्योंकि जब आप ईमानदार होते हैं. वह सबसे अच्छी चीज होती है. आप किसी को भुलावे में लेकर नहीं जा रहे हैं. जो सही है. आप उसको बता रहे हो ताकि वह अपने आगे का रास्ता तय करे. अगर लटका कर रखूंगा तो ना उसके साथ न्याय करूंगा ना अपने साथ,तो मेरे लिए किसी प्रोजेक्ट को ना कहना सबसे आसान होता है.
राम गोपाल वर्मा के साथ फिर से भूत पुलिस में काम कर रहे हैं ,क्या अनुभव रहे हैं ?
वो मुझे जिस लाइन में खड़े होने को बोलेंगे.मैं उस लाइन में खड़ा हो जाऊंगा .मेरा ग्रेअटफुलनेस उनके प्रति बहुत ज्यादा है.उन्होंने जब मुझे कहानी सुनाई तो मैं दंग रह गया क्योंकि यह हॉरर कॉमेडी है और कैसे इन्होने सोचा कि मैं ये कर लूँगा. मैं फिल्म का एक शेड्यूल पूरा कर चुका हूं. जिस राम गोपाल वर्मा का सबको इन्तजार था. वह वापस आ गया है. नया वर्जन है. ये सत्या वाले से भी बेहतर है. पहले शेड्यूल में जिस तरह से उन्होंने मुझसे काम निकाला है ,मैं उसका शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे इतना कठिन रोल दिया ,वह कभी भी समझौता नहीं करते हैं. जिस तरह का उन्होंने मुझसे काम करवाया है. उसने मुझे दंग कर दिया। ऐसा कुछ काम हुआ है.उम्मीद है कि सारी फिल्म इसी स्पिरिट के साथ बन जाए. एक चीज तय है कि राम गोपाल वर्मा इज बैक

