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फिल्‍म रिव्‍यू : देश के कानून पर प्रहार ”कोर्ट”

II उर्मिला कोरी II फिल्म: कोर्ट निर्देशक: चैतन्य ताम्हने कलाकार: विवेक गोम्बर, वीरा साथीदार, गीतांजलिकुलकर्णी, प्रदीप जोशी, उषा बाने रेटिंग: साढे तीन सिनेमा के इतिहास में अब तक कई फिल्में कोर्टरूम ड्रामा के ईद गिर्द घूमती नजर आयी है. चैतन्य ताम्हने की फिल्म ‘कोर्ट’ इन फिल्मों से अलग है. अब तक हर कोर्टरूम ड्रामा में […]

II उर्मिला कोरी II

फिल्म: कोर्ट

निर्देशक: चैतन्य ताम्हने

कलाकार: विवेक गोम्बर, वीरा साथीदार, गीतांजलिकुलकर्णी, प्रदीप जोशी, उषा बाने

रेटिंग: साढे तीन

सिनेमा के इतिहास में अब तक कई फिल्में कोर्टरूम ड्रामा के ईद गिर्द घूमती नजर आयी है. चैतन्य ताम्हने की फिल्म ‘कोर्ट’ इन फिल्मों से अलग है. अब तक हर कोर्टरूम ड्रामा में यह बात दिखायी गयी है कि हमारे कानून में बहुत सारे लूप होल्स बहुत सारी परेशानियां हैं. चैतन्य ताम्हने की इस फिल्म में भी यह बात दिखायी गयी है लेकिन जिस रियालिस्टिक ढंग से वह ही इस फिल्म को खास बना देता है.

बहुत ही सिंपल तरीके से चैतन्य ने हमारे देश के कानून पर प्रहार किया है. यहां न तो वकीलों के बीच तू तू मैं मैं ना ही जज की ऑर्डर ऑर्डर लेकिन हर फ्रेम बहुत ही सटीक तरीके से फिल्म की प्रभावी कहानी को बयां कर जाता है. इस फिल्म की कहानी दलित एक्टिविस्ट और लोकगायक नारायण कुंबले की है. जिस पर आरोप है कि उसने अपने लोकगीत के जरिए गटर साफ करने वाले वासुदेव पवार को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया है.

नारायण कुंबले कभी वासुदेव पवार से मिला नहीं है. वासुदेव पवार एक शराबी है. शराब इसलिए पीता है क्योंकि नाले को साफ करते हुए उसकी गंध को वह झेल सके. वह गटर साफ करने के लिए अपनी सुरक्षा संसाधनों को ताक पर रखकर नाला साफ करता है. एक दिन उसकी मौत हो जाती है. मौत के दो दिन पहले वासुदेव की चॉल के पास नारायण कुंबले के लोकगीत का कार्यक्रम था. पुलिस उसे ही हत्या का जिम्मेदार मान लेती है और फिर शुरूहोती है कानून प्रक्रिया.

यह कहानी उन लोगों की है, जिनकी कहानी हम कभी जानना ही नहीं चाहते हैं. हमारे नाले गटरों को कौन साफ करता है. हम न तो जानते हैं ना तो जानना चाहते हैं. लोकगायक हमें सड़कों पर नाचने गाने वालों से अधिक नहीं मानते हैं. एक गीत में यह बात कही भी गयी है कि लोकगीत के इन गायकों को कलाकार कौन मानता है. हकीकत यही है हम इनकी अनदेखी करते हैं तो कानून कैसे उनका बचाव कर सकती है. उन्हें न्याय दे सकती है. यहां पैसे वाले मर्डर कर छूट जाता है लेकिन एक गरीब अगर बेगुनाह है तो भी वह बच नहीं सकता है.

अगर उसे बेल मिलती भी है तो रकम एक लाख होती है. एक गरीब आदमी एक लाख की बेल कैसे दे सकता है. यह फिल्म इस बात पर भी सवाल उठाती है कि हम भारतीय पूरी तरह से अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त नहीं हुए हैं. कई कानून, कई पाबंदियां ऐसी हैं जो देश की गुलामी से पहले से अब तक मान्य हैं. अंगरेजोंके बनाए नियम कानून कहीं न कहीं हमें आज भी हाक रहे हैं. फिल्म का कैमरावर्क इसकी यूएसपी में से एक है. जो कहानी के साथ बखूबी न्याय करता है.

हिंदी मराठी, गुजराती और अंगरेजी भाषा के मिक्सर वाली इस फिल्म के सभी कलाकारो ने अपने किरदार को जैसे आत्मसात कर लिया था. हां गीतांजलिकुलकर्णी इनमे सबसे ज्यादा ध्यान खिंचती हैं. अगर आप यथार्थवादी सिनेमा को पसंद करते हैं तो कोर्ट आपके लिए एक बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती है.

Prabhat Khabar Digital Desk
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