Mutual Fund: जहां कहीं कोई सोच भी नहीं सकता कि गांवों में माइक्रो एटीएम पहुंच जाएगा, म्यूचुअल फंड जैसे निवेश हो सकते हैं, वहां एक कमाल हो गया है. यह कहानी झारखंड से निकलकर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज पहुंचने वाली पहली और अब तक की इकलौती कंपनी के बारे में है. झारखंड अकूत खनिज संपदा से भरा हुआ है, देश ही नहीं दुनिया की कई बड़ी कंपनियां यहां संयंत्र लगाकर हर साल करोड़ों का व्यापार करती हैं. लेकिन झारखंड की माटी से निकली एकमात्र इस कंपनी के अलावा कोई कंपनी मार्केट में अब तक लिस्ट नहीं हो पाई है. कंपनी का नाम है– वेदांत एसेट्स.
ये SME कंपनी है. बीते 10-12 साल से झारखंड के गांवों में काम कर रही है. यहां की महिलाओं के लिए जान फूंकी हुई है. पीएम मोदी का एक सपना है– डिजिटल इंडिया. बस उसी सपने इस कंपनी को पंख लगा दिए. कंपनी उन गरीब-गुरबों तक पहुंच गई, जिसको देखकर अक्सर ही पैसा मुंह फेर लेता है. आइए आज आपकी मुलाकात इसी कंपनी के संस्थापक ललित त्रिपाठी कराते हैं. सवाल बिल्कुल वही रखे हैं, जो आपके मन में भी उठ रहे होंगे…
प्रश्न: जिस झारखंड में लोग जल, जंगल, माटी के लिए जान झोंके हुए हैं, आपको फाइनेंस की दुनिया में घुसने की प्रेरणा कहां से मिली?
ललित त्रिपाठी: फाइनांस की जहां तक बात है, तो हमारा देश कई शहरों में भारत और इंडिया (कमजोर और ताकतवर) में बंट गया है. हमलोग भारत वाले हैं, जो भारत के लिए काम करते हैं. कुछ लोग इंडिया में रहकर भारत की बात कर रहे हैं. समंदर के किनारे बैठकर इंडिया वाले भारत की बात कर रहे हैं. भारत का अपना अलग विचार है, अलग मजा और मिजाज है. हमलोग इसी सिलसिले में जमशेदपुर में काम कर रहे हैं और कोशिश यही है कि इसको किस तरह आगे बढ़ाया जाए. स्वरोजगार का काम हो या महिलाओं के उत्थान का काम हो, हमारी कोशिश है कि इसे फाइनेंशियल इन्क्लूजन के माध्यम से इम्प्रूव किया जा सके.
प्रश्न: बेहतर, पर महिलाओं के लिए क्यों? वो भी गांव में, जहां लोग पैसे लगाने से अक्सर घबराते हैं?
ललित त्रिपाठी: ऐसा है कि कुछ अलग हटकर करना था, जो अपनी लाइफ का सक्सेस हो. हमने कुछ अलग किया. जहां तक हमलों की बात है, तो हमलोग यहीं रांची शहर के अर्बन हैं. रांची में काफी चीजें हो रही हैं. 2019 में मुझे ख्याल आया कि हमें रूरल एरिया में मूव करना चाहिए. 2019 में आया तो लगा कि क्या चीज करें कि लोग हमसे जुड़ सकें. हमलोगों ने टेस्टिंग की कि फाइनेंशियल सर्विसेज में क्या किया जा सकता है? फाइनेंशियल सर्विसेज से महिलाएं जुड़ तो जाएंगी, लेकिन पैसा नहीं मिलेगा तो 6 महीने बाद हट जाएंगी. तब फिर लगा कि नहीं, बैंकिंग कॉरेस्पोंडेंट की शुरुआत करनी चाहिए. तब हमलोगों ने बैंकों के साथ टाइअप किया. फिस इसके बाद जेएसएलपीएस के पास गए. वहां पर स्किल डेवलपमेंट कोर्स होता है. झारखंड सरकार की ओर से महिलाओं को स्किल डेवलपमेंट के कोर्सेज कराए जाते हैं. उनको कोर्सेज करा तो दिए जाते हैं, लेकिन उनके पास रोजगार नहीं रहते. आजकल ये है कि जोड़ तो लेना आसान है, लेकिन उसे सस्टेन करना मुश्किल है. लाइवलीहुड को लंबे समय तक सस्टेन करना… लंबे समय तक डिटेन करना मुश्किल है. आजकल आदमी यही चाहता है कि दो, चार, छह महीने लोग आएं, फीता कटा और फोटो खिचाएं. लेकिन उसे लंबे समय तक सस्टेन करना, लंबे प्रोसेस को फॉलो करना… ये कठिन है. महिलाएं ग्रामीण परिवेश से आती हैं. उनको ट्रेनिंग देनी होती है, सिस्टम प्रभावी नहीं होता है और उनमें उतना कॉन्फिडेंस नहीं होता है. ये सब चैलेंजेज बहुत आते हैं. हमलोगों ने इस पर काम किया.
प्रश्न: आपने वेदांत मित्र केंद्र खोला हुआ है. पूरे झारखंड में कितने हैं?
ललित त्रिपाठी: 600…लगभग 600
प्रश्न: ये क्या काम करते हैं?
ललित त्रिपाठी: ये सारे महिलाओं को आइडेंटिफाइ करके, जो बैंकिंग सिस्टम से जुड़ी रहती हैं, उन्हें बैंकिंग सर्विसेज देते हैं. हमारे साथ में जो बैंक जुड़े हैं, उनकी सर्विसेज देते हैं… बैंक ऑफ इंडिया और झारखंड राज्य ग्रामीण बैंक एक और प्राइवेट बैंक है. उसके साथ में बहुत जल्द ही काम शुरू करने जा रहे हैं. बैंकिंग सर्विसेज में खाता खोलना, आधार कार्ड से पैसा देना, ट्रांजेक्शंस करना और बाकी बहुत सारे इन्वेस्टमेंट्स वगैरह हैं.
प्रश्न: गांवों में आपने यूपीआई पेंमेंट की शुरुआत कब की?
ललित त्रिपाठी: नहीं, यूपीआई पेमेंट तो नहीं. लेकिन हां, यूपीआई पेमेंट को इंटीग्रेट करके एक प्लेटफॉर्म बनाया है, जिसके माध्यम से लोगों को कैश आउट–कैश इन की सुविधा प्रदान करते हैं, जिसे पैसा निकासी और जमा कहते हैं. ये सब सर्विस है हमारा रूरल एरिया में, जिसमें है कि लोगों को पैसा जमा करना, पैसा निकालना, लोगों के पासबुक पेंडिंग है उसे अपडेट करना, नया खाता खोलना, आधार कार्ड से पैसे निकालना हो, माइक्रो एटीएम से पैसे निकालना हो या फिर क्यूआर कोड से पैसा निकालना हो, तो ये हमलोग कर रहे हैं. इसमें क्या है कि रेवेन्यू आता है. इसमें क्या होता है कि इसमें ऐसा मॉडल है कि कस्टमर से हम एक रुपया भी नहीं लेते हैं. ये सारा का सारा मॉडल चूंकि बैंकिंग सिस्टम का मॉडल है, तो इसमें हम जिस बैंक का रिलेशन यूज करते हैं, उस बैंक की एमपीसीआई की तरफ से इंटरबैंक फीस होती है, तो वही हमें मिलता है. तभी हम कस्टमर्स को फ्री सर्विस दे पाते हैं. कैश इन कैश आउट तो है ही. ये रूरल परिप्रेक्ष्य में ये हमारा है, लेकिन बहुत जल्द ही हम इससे दो कदम आगे बढ़कर और इससे हटकर महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ने जा रहे हैं.
प्रश्न: महिलाओं को स्वरोजगार से कैसे जोड़ेंगे?
ललित त्रिपाठी: पैसा है, तो ट्रांजेक्शन कर रहे हैं. पैसा आएगा कैसे? अभी आप देख रहे होंगे कि सारे स्टेट में सरकार के बीच में होड़ मची है कि महिलाओं को स्कीम के तहत पैसे दिए जा रहे हैं. कहीं लाडली योजना, कहीं कुछ योजना के तहत महिलाओं को कहीं 2000 रुपये…कहीं 2500 रुपये दिए जा रहे हैं. सरकार पर प्रेशर है, लेकिन ये बेस्ट मॉडल नहीं है. ये फ्रीबीज है, कब तक चलेगा. इस पैसे का सदुपयोग करके सिस्टम में दोबारा ला पाएं और रिवेन्यू जेनरेशन कर पाएं, तो ये मॉडल सस्टेन कर पाएगा. हमलोग उस पर काम कर रहे हैं. हम इस पर काम कर रहे हैं और हमें आशा है कि हम इस पर बहुत जल्द ही काम शुरू कर देंगे.
प्रश्न: महिलाओं को सरकार की ओर से दिए जाने वाले पैसे को आप रियूज कैसे करेंगे?
ललित त्रिपाठी: उससे प्रोडक्टविटी बनाया जाएगा, उससे रेवेन्यू बनाया जाएगा, स्वरोजगार किया जाएगा. यह बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है. इससे 50 लाख लोग जुड़े हुए हैं. अगर आप एक 2500 रुपये की बात करते हैं, मंईया सम्मान योजना की बात करते हैं, तब अगर 20 लोगों का समूह होता है, तो 50 हजार रुपये महीना होता है. 50 हजार रुपये से तो व्यवसाय नहीं हो सकता, तो हम बैंकों से बात कर रहे हैं कि हम उसको कम ईएमआई पर लोन कैसे दें और उस पैसे का काम में यूज किया जाए. बड़े सेल्फ हेल्प ग्रुप का डेवलपमेंट हो और इस पैसे का सदुपयोग करके बिजनेस में आए और रिसाइकल हो. हम इस प्रयास में जुड़े हुए हैं. देखते हैं कि इसे कैसे मुकाम तक लाया जा सकता है.
प्रश्न: वैश्विक महामारी कोरोना आपका इतना बड़ा नेटवर्क कैसे काम करता रहा?
ललित त्रिपाठी: कोविड एक बहुत बड़ा चैलेंज पीरियड था. कोविड की सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार की सब्सिडी यहां लोगों तक पहुंच रही थी और लोगों के पास पैसा निकालने के लिए जगह नहीं था. एक समय ऐसा आया कि हमारे सारे सेंटर्स चल रहे थे. लोगों को पैसा निकालने के लिए जगह चाहिए थी. वैसे समय में लोगों को पैसा निकालने के लिए खाते खोलने थे, तो हमारे सारे सेंटर्स चल रहे थे. मुझे याद है कि उस समय कई सेंटरों पर चार-पांच महीने में 20 हजार से अधिक खाते खुले. वो कोविड पीरियड बड़ा चैलेंजिंग था और हमें हमारे सारे सेंटर्स खुले रखने थे. यह हमारे लिए अच्छा लर्निंग पीरियड रहा. जहां पर हम प्रेजेंट थे, वहां काम हो रहा था, क्योंकि शहर में तो लोग क्यूआर कोड और दूसरे माध्यम से काम चला रहे थे, लेकिन रूरल एरियाज में लोगों को कैश चाहिए था. उस समय में बहुत अच्छे तरीके से काम हुआ और बहुत ही अच्छा अनुभव मिला. ईश्वर की कृपा से सबकुछ अच्छा ही रहा.
प्रश्न: कम पढ़ी–लिखी और अशिक्षित मानी जाने वाली गांव की महिलाओं के बीच आप कैसे काम करते हैं?
ललित त्रिपाठी: देखिए, ग्रुप बनाने में आजकल सरकार की ओर से काफी सारी योजनाएं चल रही हैं. कई योजनाएं हैं, सेल्फ हेल्प ग्रुप भी है. आपको एक बात बताएं, झारखंड में 2 लाख से ऊपर सेल्फ हेल्प ग्रुप हैं, बट सब प्रॉफिटेबल नहीं हैं. सबके सब चल रहे हैं, काम नहीं है. देखिए क्या है कि ऐज बिजनेस इंट्रेस्ट कि वी हैव मेक इट सेंस. हमारी कोई सरकार नहीं है और हमें कोई फोटो खिंचवाना नहीं है. मेन है कि बिजनेस सेंस बने और पैसा आए. हमारे साथ जो जुड़ें, उनके पास पैसा आए, रेवेन्यू आए. होस्ट होना चाहिए, मार्केट होना चाहिए. बनाने सौ लोग हैं. प्रोडक्ट बना लेते हैं, बिकता नहीं है. तो हमलोग वर्क कर रहे हैं. ग्रामीण चेहरा हैं और सरकार के साथ मिलकर ग्रामीण क्षेत्र में काम कर रहे हैं. हमलोग इस योजना पर काम कर रहे हैं. बहुत जल्द ही इसकी शुरुआत झारखंड से ही करेंगे.
प्रश्न: अभी तक आपके माध्यम से कितनी महिलाओं को स्वरोजगार मिल पाया?
ललित त्रिपाठी: लगभग 400-450 महिलाओं को रोजगार मिला है. वे हमारे साथ जुड़ी हुई हैं. महिलाओं की बात बताएं तो हमारे पास बेंगलुरु से कुछ लोग आए हुए थे. वे खूंटी में गए. रिमोट एरिया में गए, तो उनका पहला सवाल था कि इनके पास लैपटॉप तो दिख रहा है, पीसी नहीं है, तो लैपटॉप चार्ज कैसे करते होंगे? उस महिला ने उन्हें मुस्कुराते हुए छत पर ले गई. वह छत पर सोलर लगाई हुई थी. उन्हें विश्वास नहीं हुआ. यह सब देखकर वे दंग रह गए. मजाक नहीं कर रहा हूं. महिलाओं में जो जोश है न, वह अद्भुत है. हमलोग यहां कम्प्यूटर लगा है और दफ्तर में बैठकर बात कर रहे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में ऐसा नहीं है. वहां की महिलाएं जागरूक हो गई हैं, सशक्त हो गई हैं. सीख रही हैं और सीखने की कला और होड़ भी है. आगे बढ़ रही हैं. थोड़ा संसाधन की कमी है. उन्हें हैंड खोलने की जरूरत है, संसाधन की जरूरत है. निश्चित तौर पर वे आगे बढ़ेंगी.
प्रश्न: 600 केंद्रों के अलावा गांवों की महिलाओं के लिए आप और क्या कर रहे हैं?
ललित त्रिपाठी: आपको अभी बताया न कि ये सबकुछ हम महिलाओं के लिए ही कर रहे हैं. एक-दो महीने में हमारी योजना धरातल पर आ जाएगी. उसमें क्या है कि हमलोग महिलाओं के लिए ही शुरू कर रहे हैं. ये सशक्त होगा. मेन क्या है कि हम सेल्फ इंटरपेन्योरशिप पैदा करना चाहते हैं. हम बिना किसी के और सरकार के सहयोग के ये सबकुछ करना चाहते हैं. बिना सरकार की योजना, बिना सरकार के सहयोग के हम इसे अपने बलबूते पर करना चाहते हैं.
प्रश्न: झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बारे में आपका क्या कहना है?
ललित त्रिपाठी: अभी बहुत कुछ करना बाकी है. मैं अपनी बात कहूं, तो मैंने देखा है कि गांवों के लोग डेली वेजेज पर काम करने निकल जाते हैं या खेती करते हैं. तीसरा यह है कि वह सब माध्यम नहीं बना जहां पर काम किया जा सके. क्योंकि, देखिए यहां सबकुछ कागजों में है. स्किल्स की कमी नहीं है, लेकिन सही तरीके से काम करना, सही तरीके से चैनलाइज करना, सही तरीके से ट्रेनिंग देना… ये सब करना अभी बाकी है. सरकार की ओर से कुछ काम किया जा रहा है. कई जगहों पर कौशल विकास केंद्र चल भी रहा है, लेकिन इम्प्लॉयमेंट नहीं है. इम्प्लॉयमेंट सरकार का काम नहीं है. इम्प्लॉयमेंट देना है भी नहीं और इम्प्लॉयमेंट नहीं है. आपका काम सही तरीके से स्किल को ट्रेनिंग देकर फाइनेंस का इंतजाम करके आगे बढ़ना है. फाइनेंस के बिना कुछ भी संभव नहीं है. स्किल है और फाइनेंस नहीं है, तो काम नहीं चलेगा… फाइनेंस है और स्किल नहीं है, तो भी काम नहीं चलेगा. ये दोनों हैं, लेकिन मार्केट नहीं है, तो भी काम नहीं चलेगा. फिर इन सबका सम्मिश्रण बनाकर काम करने की जरूरत है.
प्रश्न: आप महिलाओं के विकास के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन बाकी लोगों के लिए क्या कर रहे हैं?
ललित त्रिपाठी: ये सब उसी का हिस्सा है. जब आप किसी इकोनॉमी पर काम करते हैं, तो उसमें सबकुछ समाहित होता है. और ये सच्चाई है कि कोई कुली घर से निकलकर आता है, लेकिन उसे यह पता नहीं है कि उसे मजदूरी मिलेगी या नहीं. चौराहे पर खड़ा रहता है. आज भी 21वीं सदी में वह अपने आपको बेचता है. कहीं न कहीं जब आप एक इको सिस्टम डेवलप करते हैं, तो उसमें ये सब समावेशित हो जाता है. यह सब सम्मिश्रण है, इको सिस्टम है और इको सिस्टम बनाना बहुत जरूरी है. मुझे लगता है कि जब आप एक इको सिस्टम बनाते हैं, ईमानदारी से प्रयास करते हैं, तो बाकी लोग देखते हैं और बाकी लोग भी काम करते हैं. और, ऐसा नहीं है कि ये कोई रॉकेट साइंस है. आज भी स्किल्स हैं, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि शहर में 10 कट्ठा में जमीन है और आप उस पर मकान बनाकर नदी-नाला बना लेते हैं, तब आप धनाढ्य कहे जाते हैं. गांव का वह आदमी जिसके पास आज दो एकड़, तीन एकड़ जमीन है, वह आज भी गरीब किसान है. यह बड़ा फर्क है, सोच का फर्क है. जिसके पास तीन एकड़ जमीन है, उसे पता नहीं है कि वह किस चीज पर बैठा हुआ है. आज वह बेचारा गरीब किसान है और शहर में जो 10 कट्ठा में घर बनाए हुए हैं, वे धनाढ्य कहे जा रहे हैं. पहले तो उन्हें यह समझना होगा कि तीन एकड़ जमीन रखने के बाद वह गरीब नहीं है. उन्हें यह नहीं पता कि वह क्या हैं. मैं आपको बताऊं कि जो लोकल्स हैं… गांव के लोग हैं, वे बहुत सीधे लोग हैं. उनके पास एक्सपोजर नहीं है. उन्हें खुद को एक्सपोज करने नहीं आता या उन्हें एक्सपोजर नहीं मिला. सीधे-सादे लोग हैं…खाते-पीते हैं, चले जाते हैं. उन्हें सही तरीके से ट्रेनिंग कराया जाए, उनके कॉन्फिडेंस को बिल्डअप कराया जाए और सबसे बड़ी बात है रेवेन्यू आए. रेवेन्यू आए तो वह ऑटोमैटिकली अपग्रेड होता है.
प्रश्न: हमारे यहां झारखंड में आमदनी का मुख्य जरिया खेती है. जो लोग खेती पर निर्भर हैं, उनके लिए आपकी राय क्या है?
ललित त्रिपाठी: वही बात है. अभी आप देख रहे हैं कि मिलेट्स हैं. अच्छे-अच्छे प्रोडक्ट्स हैं. अभी आप देख रहे होंगे कि लोग मिलेट्स पर आ रहे हैं. कई अच्छे चावल हैं. चावल 400 रुपये किलो बिक रहे हैं. नई चीजें आई हैं, लोग अवगत नहीं हैं. यहां पर लोग सही तरीके से उनको जोड़ा जाए, सही तरीके से सम्मिश्रण तैयार किया जाए तो चीजें बनती हैं. रासायनिक खादों का इस्तेमाल कम करके जैविक खादों का इस्तेमाल किया जा रहा है. ये हो रहा है. चेंजिंग आ रही है बट यही है कि ये अभी मास लेवल पर है. जब तक आप इसे सही तरीके से लेकर नहीं आएंगे, प्रोडक्टिविटी नहीं बढ़ेगी.
प्रश्न: आप अपने हिसाब से झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को किस स्तर पर ले जाना चाहते हैं?
ललित त्रिपाठी: मेरा यही मानना है कि यहां फसल बहुत अधिक होती है. कुकुंद है यहां. ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत चीजें हैं, जो बड़े लेवल पर किया जा सकता है. जैसा कि मैंने आपसे कहा कि डिसाइड करना कोई लेवल नहीं होता. यह जरूर है कि एक मॉडल हो, जो काम करे और सस्टेनेबल हो. सही तरीके से अप्लिकेबल हो. सब अपने आप दिखता है.
प्रभात खबर प्रीमियम स्टोरी: भारत को पीछे छोड़ने के लिए छाती पीट रहे हैं शहबाज शरीफ, लेकिन सच्चाई कर रही कुछ और ही बयां
प्रश्न: सरकार की ओर से किए गए कार्यों को आप किस नजरिए से देखते हैं?
ललित त्रिपाठी: देखिए, सरकार की अपनी योजना है. सरकार का अपना उद्देश्य होता है. सरकार की पॉलिसीज होती है. जहां तक बात है सरकार की तो सरकार की ओर से इनिशिएटिव और होना चाहिए था. सरकार की ओर संस्थाएं बहुत बन गई हैं और कार्य सीमित है. रियल इम्प्लीमेंट बहुत जरूरी है, ताकि फर्क आए. लोगों में फर्क आए. बहुत सारी योजनाएं… पॉलिसीज बनती हैं. इस प्रकार की फ्रीबीज वाली पॉलिसीज बनती हैं. फ्रीबीज योजना आपको वोट तो दे देगी, लेकिन सरकार की बैलेंसशीट पर इम्पैक्ट छोड़ जाएगी. ये इम्पैक्ट कहीं न कहीं आपके बजट को प्रभावित करेगा और बजट आपके राजस्व पर इम्पैक्ट डालेगा. अगर आप फ्रीबीज देते हैं, तो कहीं न कहीं से आपको उसके लिए रेवेन्यू देना ही पड़ता है. चूंकि, आपने कमिटमेंट किया हुआ है. एक मॉडल होना चाहिए, जहां आप पर बोझ न पड़े. बैलेंसशीट ऐसा हो और आपके पास ऐसी योजना भी हो और लोग आगे भी बढ़ें.
प्रभात खबर प्रीमियम स्टोरी: Shahzadi Case Dubai: दुबई में शहजादी को कैसे दिया गया मृत्युदंड, फांसी या फिर कुछ और?
Disclaimer: शेयर बाजार से संबंधित किसी भी खरीद-बिक्री के लिए प्रभात खबर कोई सुझाव नहीं देता. हम बाजार से जुड़े विश्लेषण मार्केट एक्सपर्ट्स और ब्रोकिंग कंपनियों के हवाले से प्रकाशित करते हैं. लेकिन प्रमाणित विशेषज्ञों से परामर्श के बाद ही बाजार से जुड़े निर्णय करें.