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Tarapur vidhaanasabha: तारापुर का जलियांवाला बाग, 15 फरवरी 1932, जब वंदे मातरम की गूंज पर बरसीं गोलियां

Tarapur vidhaanasabha: तारापुर… एक छोटा सा कस्बा, लेकिन इतिहास में दर्ज इसकी एक तारीख आज भी रगों में सिहरन भर देती है. 15 फरवरी 1932—जब थानाभवन के सामने ‘वंदे मातरम’ की गूंज पर गोलियों की बौछार हुई और 34 क्रांतिकारी मातृभूमि पर कुर्बान हो गए. यह सिर्फ गोलीकांड नहीं था, यह बिहार का दूसरा जलियांवाला बाग था.

Tarapur vidhaanasabha: तारापुर विधानसभा सीट आज भले चुनावी सरगर्मी में डूबी हो, लेकिन इसका अतीत आज़ादी के इतिहास में खून से लिखा गया है. 15 फरवरी 1932 को यहां जो हुआ, उसने पूरे बिहार को झकझोर दिया.

निहत्थे देशभक्तों पर अंग्रेजी हुकूमत ने अंधाधुंध गोलियां चलवाईं, 34 जवान शहीद हो गए और कई के शव गंगा में बहा दिए गए. यह घटना जलियांवाला बाग की याद दिलाती है, जहां निडरता, बलिदान और देशप्रेम की मिसाल कायम हुई.

क्या हुआ था उस रोज तारापुर में

बसंत का मौसम था. फरवरी की हल्की ठंड और सुनहरी धूप में तारापुर के लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लगे थे. लेकिन उस दिन की सुबह, जैसे किसी अनजाने इरादे से धीमे-धीमे बदल रही थी. पुराने लकड़ी के दरवाजों पर टंगी सांकले, जो हर रोज सुस्त पड़ी रहती थीं, अचानक खिंच्च-खांय की आवाज़ में गूंज उठीं. घरों के दरवाज़े खुलने लगे और आंगनों से निकलते कदमों के साथ ‘वंदे मातरम’ की गूंज फैलने लगी.

एक-एक, दो-दो लोग बढ़ते गए और देखते ही देखते यह टोलियां भीड़ में बदल गईं.अंग्रेजी हुकूमत को भी अंदाजा नहीं था कि आज तारापुर की गलियों में क्रांति की लहर उठने वाली है. भीड़ थानाभवन के सामने जुटी—बेखौफ चेहरे, गुस्से में भरी आंखें, हाथों में तिरंगे और मशालें. नारेबाजी आसमान तक पहुंच रही थी.

अंधाधुंध फायरिंग का आदेश

उस वक्त थाने के भीतर कलेक्टर ई.ओ. ली और एसपी डब्ल्यू.एस. मैग्रेथ मौजूद थे. पहले तो उन्होंने बाहर निकलना जरूरी नहीं समझा, लेकिन फिर अचानक वे निकले और आदेश दिया—“फायर!”
निहत्थे क्रांतिकारियों पर गोलियों की बरसात शुरू हो गई. बंदूकें आग उगल रही थीं, लेकिन मैदान में खड़े रणबांकुरे न डरे, न हिले. एक-एक कर लोग गिरते, लेकिन तिरंगा किसी भी हालत में जमीन पर नहीं गिरने दिया गया. कोई घायल होकर झुका तो दूसरा आगे बढ़कर झंडा थाम लेता. गोलियों से छिदते जिस्म, खून की धाराएं और होंठों पर बस एक ही शब्द—“वंदे मातरम!”

तिरंगे का फहराना और 34 शहादतें

गोलियों की बौछार के बीच मदन गोपाल सिंह, त्रिपुरारी सिंह, महावीर सिंह, कार्तिक मंडल और परमानंद झा ने थानाभवन के सामने तिरंगा फहरा दिया. लेकिन इस बर्बर गोलीकांड में 34 क्रांतिकारी हमेशा के लिए सो गए.
अंग्रेजों ने इतनी बेरहमी दिखाई कि कई शहीदों के शवों को सुल्तानगंज ले जाकर गंगा में बहा दिया. इनमें से सिर्फ 13 वीरों की पहचान हो पाई—विश्वनाथ सिंह, महिपाल सिंह, शीतल चमार, सुकुल सोनार, संता पासी, झोंटी झा, सिंहेश्वर राजहंस, बदरी मंडल, वसंत धानुक, रामेश्वर मंडल, गैबी सिंह, अशर्फी मंडल और चंडी महतो. बाकी 21 शहीद अज्ञात ही रह गए.

तारापुर का इतिहास और आज

15 फरवरी 1932 को तारापुर की धरती जलियांवाला बाग की तरह खून से लाल हुई थी. यह केवल एक गोलीकांड नहीं था, बल्कि आज़ादी के संघर्ष का वो पन्ना है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता.
आज, जब तारापुर अपनी राजनीति और लोकतंत्र का नया अध्याय लिखने जा रहा है, उसकी हवाओं में अब भी बिस्मिल का कलाम गूंजता है—
“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा.”

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Pratyush Prashant
Pratyush Prashant
कंटेंट एडिटर. लाड़ली मीडिया अवॉर्ड विजेता. जेंडर और मीडिया में पीएच.डी. . वर्तमान में प्रभात खबर डिजिटल के बिहार टीम में काम कर रहे हैं. साहित्य पढ़ने-लिखने में रुचि रखते हैं.

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