21.1 C
Ranchi

लेटेस्ट वीडियो

Sitamarhi Vidhaanasabha: सीतामढ़ी, जनकनंदिनी की धरती पर नक्सल धमक और आज़ादी का बिगुल

Sitamarhi Vidhaanasabha: जहाँ एक ओर माता सीता का उद्भव हुआ, वहीं दूसरी ओर इस मिट्टी ने आज़ादी के रणबांकुरों को जन्म दिया और बाद में नक्सली हिंसा की आग भी देखी.

Sitamarhi Vidhaanasabha: सीतामढ़ी—यह नाम सुनते ही हिंदू जनमानस में माता सीता की जन्मभूमि की छवि उभरती है. उर्विजा कुंड, जानकी मंदिर और पुनौरा धाम से जुड़ी कथाएँ इसे पवित्रता का प्रतीक बनाती हैं. लेकिन यही धरती कभी खून से भी लाल हुई थी.

यहाँ आज़ादी की लड़ाई में वीरों ने फांसी के फंदे को चूमा और आज़ादी के बाद नक्सली हिंसा ने लोगों को दहला दिया. सीतामढ़ी का यह द्वंद्व—एक ओर आध्यात्मिक आस्था, दूसरी ओर हिंसक विद्रोह—हमें सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर इस ज़मीन की तक़दीर इतनी उलझी हुई क्यों रही?

1971: सीतामढ़ी में पहली नक्सली दस्तक

22 नवंबर, 1971। तारीख़ जिसने सीतामढ़ी को पहली बार नक्सली हिंसा से परिचित कराया. यह वही दौर था जब नक्सलबाड़ी की गूँज पूरे बिहार तक पहुँच चुकी थी. रीगा प्रखंड का रेवासी गाँव उस दिन चीख़ों और दहशत में डूब गया.

सैकड़ों की संख्या में हथियारबंद उपद्रवियों ने गाँव पर धावा बोला. सुरेश प्रसाद सिंह, राजेश्वर प्रसाद सिंह और उमेश प्रसाद सिंह—तीनों सहोदर भाइयों को बेरहमी से मार डाला गया. महिलाएँ घायल हुईं, घर लूटे गए और पूरे गाँव में आतंक का राज कायम कर दिया गया.

इससे पहले भी उपद्रवी किसानों की फसल लूट रहे थे. पुलिस ने जब अवैध कटाई रोकने के लिए 20 लोगों को पकड़ा, तो प्रतिशोध में यह कत्लेआम हुआ. कहा जाता है कि यह गिरोह माओवादी विचारधारा से प्रभावित था. उनका मकसद साफ था—डर पैदा करना और इलाके पर वर्चस्व कायम करना. रेवासी का यह रक्तरंजित कांड सीतामढ़ी की राजनीतिक-सामाजिक दिशा बदलने वाला साबित हुआ.

सीतामढ़ी : नक्सलवाद के लिए उर्वर भूमि क्यों?

अगर भूगोल और समाज दोनों के नजरिए से देखें तो सीतामढ़ी नक्सलवादियों के लिए आदर्श ज़मीन रही है. नेपाल से लगी लंबी खुली सीमा, नदियों से घिरे दियारा इलाके, बाढ़ और गरीबी से जूझता समाज और बेरोजगारी की मार झेलते युवा. इन परिस्थितियों ने नक्सलियों को न सिर्फ सुरक्षित पनाहगाह दी, बल्कि संगठन बढ़ाने के लिए उर्वर जमीन भी मुहैया कराई. 1972 में जब सीतामढ़ी जिला बना, लोगों ने विकास के सपने देखे, लेकिन दशकों बाद भी यह इलाका उपेक्षा और पिछड़ेपन के दंश से ही जूझ रहा है. यही उपेक्षा हिंसा की आग को हवा देती रही.

नक्सली गतिविधियों की पराकाष्ठा तब दिखी जब 31 मार्च 2007 को सैकड़ों माओवादी रीगा प्रखंड पर टूट पड़े. प्रखंड कार्यालय, थाना और बैंक पर एक साथ हमला हुआ. मनिहारी पुल को उड़ाकर जिला मुख्यालय से संपर्क काट दिया गया. दिसंबर में उन्होंने महिंदवारा पुलिस आउटपोस्ट को भी उड़ा दिया. प्रशासन हक्का-बक्का रह गया और लोग खौफजदा.

इसके बाद 2010 में बेलसंड ने वही मंजर देखा। पाँच सौ से अधिक माओवादी कदम चौक पर उतरे और पुलिस पर हमला कर दिया. छह जवान घायल हुए. उसी साल अक्टूबर में चुनाव के दौरान बूथ नंबर 166 पर धावा बोलकर उन्होंने ईवीएम जला डाली. यह लोकतंत्र को सीधी चुनौती थी. इन वारदातों ने साफ कर दिया कि सीतामढ़ी अब सिर्फ एक धार्मिक-आध्यात्मिक ज़मीन नहीं रही, बल्कि हिंसक राजनीति का अखाड़ा भी बन चुकी है.

आजादी का दौर : जब सीतामढ़ी से गूँजा ‘भारत छोड़ो’

लेकिन सीतामढ़ी की पहचान सिर्फ नक्सली हिंसा तक सीमित नहीं है. यह मिट्टी उन सपूतों की भी गवाह रही है जिन्होंने अंग्रेजों को सीधी चुनौती दी.

डॉ. रामाशीष ठाकुर 1905 में समस्तीपुर में जन्मे, लेकिन कर्मभूमि बनाई सीतामढ़ी को, डॉक्टर बने, पर दिल में आज़ादी की आग थी. असहयोग आंदोलन में शामिल हुए, जेल गए, और 1937 में सीतामढ़ी से विधायक बने. सनातन धर्म पुस्तकालय और राधाकृष्ण गोयनका कॉलेज की स्थापना में उन्होंने अहम भूमिका निभाई. भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र से सम्मानित किया.

सुंदर खतवे : पहलवान से क्रांतिकारी बने शहीद

पुपरी थाना के रघरपुरा गाँव के पहलवान सुंदर खतवे ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका. 27 अगस्त 1942 को सुरसंड में तिरंगा फहराया, विदेशी कपड़े जलाए और नारे लगाए—“अंग्रेजो भारत छोड़ो।” जवाब में अंग्रेजों ने गोलियां चलाईं, गिरफ्तारी हुई और अंततः बनौली गाँव में बरगद के पेड़ से उन्हें फांसी पर लटका दिया.

आज वह जगह ‘शोले चौक’ के नाम से जानी जाती है, लेकिन अफसोस—न कोई स्मारक बना, न उनके परिवार को सम्मान मिला. उनका पोता आज भी मजदूरी करके जीवन गुज़ार रहा है.

सीतामढ़ी की कहानी जितनी पवित्र है, उतनी ही पीड़ादायक भी. यहाँ सीता जन्मभूमि की आस्था है. यहाँ डॉ. रामाशीष ठाकुर और सुंदर खतवे जैसे स्वतंत्रता सेनानी हैं. यहाँ रेवासी का नरसंहार और रीगा-बेलसंड के नक्सली हमले भी हैं. एक ही धरती पर सीता की कोमलता, आज़ादी का जुनून और नक्सली हिंसा का खून… यह विरोधाभास बताता है कि सीतामढ़ी का इतिहास सिर्फ मंदिरों और तीर्थों से नहीं, बल्कि संघर्षों और बलिदानों से भी लिखा गया है.

आज जब हम सीतामढ़ी की यात्रा करते हैं, तो देखते हैं—जनकनंदिनी का मंदिर है, लेकिन उसके आसपास गरीबी और बेरोजगारी भी है. यहाँ आज़ादी की लड़ाई की कहानियाँ हैं, लेकिन शहीदों के परिवार गुमनामी में जी रहे हैं. यहाँ विकास के वादे हैं, लेकिन उपेक्षा की हकीकत भी है.

यही सवाल उठता है—क्या यह ज़मीन सिर्फ इतिहास और जनश्रुति में ही चमकती रहेगी, या कभी अपने लोगों के जीवन में भी उजाला लाएगी?

Also Read: Bihar Chunav 2025: 14 टीम, 18 दिन और 243 सीटें… नीतीश कुमार के ‘225 मिशन’ का बिगुल

Pratyush Prashant
Pratyush Prashant
कंटेंट एडिटर. लाड़ली मीडिया अवॉर्ड विजेता. जेंडर और मीडिया में पीएच.डी. . वर्तमान में प्रभात खबर डिजिटल के बिहार टीम में काम कर रहे हैं. साहित्य पढ़ने-लिखने में रुचि रखते हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

संबंधित ख़बरें

Trending News

जरूर पढ़ें

वायरल खबरें

ऐप पर पढें
होम आप का शहर
News Snap News Reel