Riga Vidhaanasabha: सीतामढ़ी जिले का रीगा ब्लॉक सीमा से सटा हुआ इलाका है. नेपाल के गौर-बैरगनिया गलियारे से भारत में प्रवेश करते ही सबसे पहले यही प्रखंड आता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब सीमा से जुड़े गांवों को ‘भारत का पहला गांव’ कहकर नई पहचान दी, तो रीगा भी चर्चा में आ गया. लेकिन यह पहचान अभी तक विकास में नहीं बदल पाई है.
1932 में यहां स्थापित हुई रीगा चीनी मिल कभी हजारों किसानों और कामगारों की जीवनरेखा थी. आज हालत यह है कि यह मिल साल 2019 से बंद है और लाखों लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं. हालांकि अब इसके फिर से शुरू होने की उम्मीद जगी है.
सीमा पर बसा ‘भारत का पहला गांव’
रीगा ब्लॉक की सबसे बड़ी पहचान यह है कि यह नेपाल से जुड़ा भारत का पहला गांव है. पहले इसे देश का आखिरी प्रखंड कहा जाता था, मगर अब इसे पहली बस्ती के रूप में देखा जाता है. सीमावर्ती इलाका होने के बावजूद रीगा का विकास हमेशा अधूरा रहा. सड़कें टूटी-फूटी, कनेक्टिविटी कमजोर और उद्योग-धंधे बंद. नतीजा यह हुआ कि लोगों की पहचान ‘भारत का पहला गांव’ तो बनी, मगर हकीकत में वे बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझते रहे.
रीगा शुगर मिल की शुरुआत
रीगा का असली औद्योगिक इतिहास 1932-33 में शुरू हुआ, जब अंग्रेज व्यापारी जेम्स फिनले ने यहां रीगा चीनी मिल की स्थापना की. लखनदेई नदी के किनारे बनी यह फैक्ट्री उस दौर में आधुनिक उद्योग का प्रतीक थी.
1934 के भूकंप में मिल को भारी नुकसान हुआ, लेकिन मरम्मत कराकर इसे फिर चालू किया गया. धीरे-धीरे यह इलाके की सबसे बड़ी मिल बनी, जो हजारों किसानों का गन्ना खरीदती और हजारों कामगारों को रोजगार देती थी.
1950 में अंग्रेजों ने यह मिल बांगुर ब्रदर्स को बेच दी. बाद में उन्होंने इसे धनुका परिवार को सौंप दिया. ओमप्रकाश धानुका ने इस मिल के संचालन के लिए अपनी निजी संपत्ति तक बेच डाली. एक वक्त ऐसा आया जब आर्थिक तंगी के बावजूद वे कर्मचारियों और किसानों को सहारा देने के लिए अपना घर तक गिरवी रख बैठे. धानुका परिवार के संघर्ष की वजह से यह मिल लंबे समय तक चलती रही और सीतामढ़ी, शिवहर, मुजफ्फरपुर तक के किसानों की जीवनरेखा बनी.
किसानों की धड़कन बनी मिल
रीगा मिल से सीधे तौर पर 700 कर्मचारी जुड़े थे—350 स्थाई और 350 अस्थाई. इसके अलावा करीब 40 हजार गन्ना किसान हर साल इसका सहारा थे. उनके परिवारों समेत लगभग 5 लाख लोग इस मिल पर निर्भर रहते थे. किसानों से गन्ना खरीदना, मजदूरों को रोजगार देना, व्यापारियों को बाजार उपलब्ध कराना—रीगा चीनी मिल एक पूरे इकोसिस्टम की तरह थी.
2013 से 2017 तक लगातार बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओं ने इस मिल की कमर तोड़ दी. गन्ने की फसल चौपट हुई, उत्पादन घट गया और मुनाफा तेजी से गिरा. इसके अलावा केंद्र सरकार से मिलने वाली सब्सिडी भी नहीं मिली। वादा था कि प्रति क्विंटल चीनी पर 13.88 रुपये की सहायता दी जाएगी, लेकिन यह रकम अन्य मिलों को दे दी गई. नतीजा यह हुआ कि कर्मचारियों की तनख्वाह रुक गई, किसानों का बकाया बढ़ने लगा और धीरे-धीरे मिल घाटे में चली गई.
2019 आते-आते मिल पूरी तरह बंद हो गई. अचानक हजारों लोग बेरोजगार हो गए और गन्ना किसानों की फसल का कोई खरीदार नहीं बचा. रीगा के छोटे दुकानदार, वाहन मालिक, मजदूर और कारोबारी—सभी प्रभावित हुए. 40 हजार किसान और करीब 5 लाख लोग रोज़गार और रोटी की समस्या में फंस गए.
नए मालिक और नई उम्मीद
20 दिसंबर, 2024 में एनसीएलटी (कोलकाता बेंच) ने इस बंद मिल को मेसर्स निरानी शुगर लिमिटेड को सौंप दिया. यह कंपनी कर्नाटक के बड़े उद्योगपति मरूगेश आर. निरानी की है, जो खुद किसान परिवार से आते हैं और पहले से 12 चीनी मिलें चला रहे हैं. फिलहाल इसकी 11 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता है, जिसे बढ़ाकर 20 मेगावाट किया जाएगा. सरकार को भी बिजली आपूर्ति करने की योजना है.
रीगा की कहानी हमें यह भी याद दिलाती है कि पहचान और इतिहास जितने महत्वपूर्ण होते हैं, उतना ही जरूरी है विकास और रोज़गार. वरना ‘भारत का पहला गांव’ कहलाने के बावजूद लोग मजबूरी में ही जीते रहेंगे.
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