Parbatta Vidhaanasabha: यहां से पाँच दिन के मुख्यमंत्री भी निकले, यहां की मिट्टी ने शहीद अरविंद जैसे जांबाज सपूत को भी जन्म दिया और यही ज़मीन नील की खेती और अंग्रेज़ी जुल्म के खिलाफ़ आंदोलन का गवाह भी रही.
पाँच दिन का मुख्यमंत्री: परबत्ता का अनोखा राजनीतिक इतिहास
1967 का विधानसभा चुनाव परबत्ता सीट के लिए ऐतिहासिक रहा. कांग्रेस को यहाँ हार का सामना करना पड़ा. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के प्रत्याशी सतीश प्रसाद सिंह ने निर्दलीय एल.एल. मिश्रा को 13,860 वोट से हराकर जीत दर्ज की.
सतीश प्रसाद सिंह का राजनीतिक सफर बेहद दिलचस्प रहा. वे जमीन का टुकड़ा बेचकर चुनाव लड़ते थे और तीसरे प्रयास में जीतकर विधायक बने. लेकिन उनका नाम इतिहास में इसलिए दर्ज है क्योंकि वे बिहार के मुख्यमंत्री बने—सिर्फ़ पाँच दिनों के लिए.
1969 में पार्टी की आंतरिक खींचतान और बगावत के चलते सतीश प्रसाद सिंह मुख्यमंत्री बने. पर अपने नेता की शंका दूर करने के लिए तीन दिन बाद ही इस्तीफा दे दिया. वे पाँच दिन भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर न रह सके. 1969 के अंत में विधानसभा भंग हुई और पुनः चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस प्रत्याशी जगदंब प्रसाद मंडल ने उन्हें हरा दिया.
शहीद अरविंद झा: परबत्ता का अमर सपूत
परबत्ता सिर्फ़ राजनीति तक ही सीमित नहीं है. यह वीरों की धरती भी है. मुरादपुर गांव के अरविंद झा की शहादत पर आज भी पूरा क्षेत्र गर्व करता है. 2 मई 1975 को जन्मे अरविंद झा ने दानापुर से 1991 में सेना ज्वाइन की और 24 RR रेजिमेंट में शामिल हुए. 31 दिसंबर 2001 को आतंकवादियों से मुठभेड़ में उन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया.
सांसद रेणु कुमारी ने उनके नाम पर द्वार और स्मारक बनाने की घोषणा की थी, लेकिन वादे पूरे न हुए. अंततः उनके पिता ने अपने जीवन के अंतिम समय में खुद अपने खर्च से स्मारक का निर्माण कराया. शहीद अरविंद की गाथा आज भी क्षेत्र के युवाओं को देशभक्ति का जज़्बा देती है.
नील की खेती और अंग्रेज़ी जुल्म की गवाही
परबत्ता सिर्फ़ राजनीति और शौर्य तक सीमित नहीं है, यह अंग्रेज़ी शासन के अन्याय का भी गवाह है. यहाँ नील की खेती बड़े पैमाने पर होती थी. देवरी पंचायत के अररिया गांव में आज भी नील कोठी के भग्नावशेष खड़े हैं, जिनकी मोटी दीवारें अंग्रेज़ी जुल्म की कहानियाँ कहती हैं.
यह वही दौर था जब किसानों को जबरन नील की खेती करनी पड़ती थी. आज़ादी के 75 साल बाद भी ये खंडहर हमें याद दिलाते हैं कि परबत्ता के लोग भी उसी दमन का शिकार हुए थे, जैसा चंपारण के किसान हुए.
ग्रामीण बताते हैं कि प्रशासन ने इसे संरक्षित करने की कभी कोशिश नहीं की. जबकि यह स्थान आने वाली पीढ़ियों को इतिहास से जोड़ने के लिए एक जीवंत संग्रहालय बन सकता था.
स्वतंत्रता संग्राम में गोगरी–परबत्ता की भूमिका
स्वतंत्रता आंदोलन में गोगरी और परबत्ता क्षेत्र की भूमिका बेहद अहम रही. यहां हजारों कार्यकर्ता और स्वयंसेवक सक्रिय थे. महेशखूंट, गोगरी और नयागांव में स्थायी आश्रम बने, जहाँ से आंदोलन संचालित होते थे.
1930 के दशक में यहाँ शराब और विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना दिया गया. सैकड़ों कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए.
महेशखूंट स्टेशन पर शराब के ड्रम रोकने से लेकर तार काटने, सरकारी दफ्तरों में तालाबंदी और रेल पटरियाँ उखाड़ने तक आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया. 14 अगस्त 1930 को अगुवानी घाट पर अंग्रेज़ी सिपाहियों ने गोलियाँ चलाईं, जिसमें कई लोग मारे गए. 24 अगस्त को गोगरी में हुए गोलीकांड में 40 से 50 लोग शहीद हो गए और सैकड़ों घायल हुए.
कन्हैयाचक, डुमरिया खुर्द, भरतखंड और गोगरी जैसे गांवों ने देश को सुरेश चंद्र मिश्र, सूर्य नारायण शर्मा, शालिग्राम मिश्र, दीनानाथ मिश्र और मुरली मनोहर प्रसाद जैसे स्वतंत्रता सेनानी शहीद हो गए.
भले ही इनका नाम इतिहास की किताबों में बड़े अक्षरों में न हो, लेकिन इनके बलिदान ने आजादी की नींव को मज़बूत किया.
आजादी की साँस और अधूरी जिम्मेदारी
आज हम आज़ाद भारत में साँस ले रहे हैं, लेकिन परबत्ता के नील कोठी जैसे ऐतिहासिक चिन्ह उपेक्षा के शिकार हैं.जहाँ एक ओर वीर शहीदों और सेनानियों की गाथाएँ गर्व से सुनाई जाती हैं, वहीं स्मारकों और ऐतिहासिक धरोहरों की देखरेख में प्रशासन की लापरवाही स्पष्ट झलकती है.
परबत्ता का इतिहास बहुरंगी है—यहाँ राजनीति की नाटकीय कहानियाँ हैं, शहीदों की शौर्यगाथाएँ हैं और स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालाएँ भी. पाँच दिन के मुख्यमंत्री से लेकर शहीद अरविंद झा और गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों तक—परबत्ता की धरती हमें बताती है कि छोटी-सी जगह भी राष्ट्रीय इतिहास में कितनी बड़ी भूमिका निभा सकती है.
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