Daraunda Assembly constituency: बिहार की सियासत में दरौंदा विधानसभा सीट एक ऐसी कहानी है, जहां राजनीति पारिवारिक विरासत से शुरू होकर बगावत और सत्ता परिवर्तन की मिसाल बन चुकी है. 2008 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई इस सीट पर जदयू की जगमतो देवी ने 2010 में पहली जीत दर्ज की. लेकिन राजनीति का यह सफर सिर्फ एक चुनावी जीत तक सीमित नहीं रहा — यह आगे चलकर एक परिवार की सत्ता से जनप्रतिनिधि की बगावत तक की यात्रा बन गया.
क्या है राजनीतिक इतिहास ?
जगमतो देवी के निधन के बाद 2011 में उपचुनाव हुआ, जिसमें उनकी बहू कविता सिंह ने जदयू के टिकट पर जीत हासिल की और 2015 में फिर इस जीत को दोहराया. लेकिन 2019 का साल दरौंदा की राजनीति के लिए निर्णायक साबित हुआ. जब कविता सिंह सीवान से लोकसभा चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचीं, तो खाली हुई सीट पर हुए उपचुनाव ने नया मोड़ लिया. एक स्वतंत्र उम्मीदवार करणजीत सिंह उर्फ व्यास सिंह ने पारंपरिक सियासी धारा को तोड़ते हुए विजय हासिल की. न केवल उन्होंने चुनाव जीता, बल्कि बाद में भाजपा का दामन थामकर मुख्यधारा की राजनीति में अपनी जगह भी पक्की की.
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क्या है मौजूदा हालात ?
2020 के विधानसभा चुनाव में करणजीत सिंह भाजपा के उम्मीदवार बने और वामपंथी दल माले के प्रत्याशी अमरनाथ यादव को हराकर दरौंदा सीट पर दोबारा कब्जा जमाया. यह जीत सिर्फ किसी एक व्यक्ति की नहीं थी, बल्कि एक नई राजनीतिक सोच की थी जो पारिवारिक राजनीति से हटकर जन समर्थन और क्षेत्रीय मुद्दों पर टिकी थी.