chakai vidhan sabha: बिहार की चकाई विधानसभा सीट कोई आम चुनावी क्षेत्र नहीं है. यह एक ऐसी राजनीतिक ज़मीन है, जहां एक ओर श्रीबाबू के परिवार की सत्ता की परंपरा रही है तो दूसरी ओर फाल्गुनी यादव जो बिना पार्टी के सहारे जनसमर्थन की ताकत दिखाई. यहां दो परिवारों ने दशकों तक सत्ता संभाली—लेकिन बीच-बीच में जनता ने यह भी जता दिया कि सिंहासन वंश का नहीं, विश्वास का होता है.
चकाई का पहला अध्याय: श्रीबाबू से शुरू होती विरासत
1962 में जब पहली बार चकाई विधानसभा सीट पर चुनाव हुए, तो सोशलिस्ट पार्टी के लखन मुर्मू ने जीत दर्ज की. लेकिन कहानी ने असली मोड़ तब लिया जब बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह—श्रीबाबू—झाझा के बाद चकाई पहुंचे और 1967 और 1969 में यहां से विधायक चुने गए. चकाई से ही उन्होंने मंत्री पद भी संभाला और इसी सीट ने राज्य को चंद्रशेखर सिंह के रूप में एक और मुख्यमंत्री दिया.
चकाई से मुख्यमंत्री की उड़ान
चंद्रशेखर सिंह, जो पहले झाझा से तीन बार विधायक रह चुके थे, 1962 में वहां से चुनाव हार गए. लेकिन 1972 में उन्होंने चकाई से जीत हासिल की. यही सीट आगे चलकर उन्हें मुख्यमंत्री पद और फिर केंद्र में पेट्रोलियम मंत्री बनने की सीढ़ी बनी.
बगावत का बिगुल: जब फाल्गुनी ने तोड़ा खानदानी किला
चकाई की सत्ता पर कब्जा सिर्फ श्रीबाबू और चंद्रशेखर सिंह के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा, लेकिन 1977 में एक नाम उभरा जिसने सबको चौंका दिया—फाल्गुनी यादव. न पार्टी, न संगठन, सिर्फ जनसमर्थन. निर्दलीय चुनाव लड़कर उन्होंने दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की परंपरा को पहली बार रोका. वे 1977, 1980 और फिर 1995 में इस सीट से विधायक बने. उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सावित्री देवी ने भी इस विरासत को आगे बढ़ाया और 2015 में राजद के टिकट पर विधायक बनीं.
वापसी और विस्तार: श्रीबाबू की तीसरी पीढ़ी सत्ता में
फाल्गुनी यादव के प्रभाव के बाद फिर से श्रीबाबू के परिवार की वापसी हुई।.उनके बेटे नरेंद्र सिंह ने 1985, 1990 और 2000 में चकाई से जीत दर्ज की और बिहार सरकार में मंत्री भी बने. आगे चलकर उनके बेटे सुमित कुमार सिंह ने 2010 और 2020 में चुनाव जीता. वे आज भी बिहार सरकार में मंत्री हैं. यहां तक कि उनके दूसरे बेटे अभय सिंह भी 2005 में चकाई से विधायक रह चुके हैं.
एक सीट, दो परिवार और लोकतंत्र की ज़मीनी कहानी
अब तक चकाई में 15 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से 13 पर इन्हीं दो परिवारों का कब्जा रहा है. यह आंकड़ा साफ बताता है कि चकाई की राजनीति रिश्तों, बगावत की अनोखी मिसाल है. चकाई सिर्फ एक विधानसभा सीट नहीं, बिहार की राजनीति का आइना है—जहां सत्ता की गाथा खानदानों से चलती है, लेकिन जनता जब चाहे उसे बदल भी सकती है. यह कहानी बताती है कि लोकतंत्र में बाप का नाम काफी नहीं, लोगों का भरोसा सबसे बड़ी पूंजी है.

