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मलेरिया का जोखिम कम करने में मिली कामयाबी

मलेरिया का प्रकोप पहले के मुकाबले भले ही कम हो गया है़ लेकिन, इस बीमारी के समूल नाश के लिए वैज्ञानिकों और मेडिकल विशेषज्ञों की दिमागी जंग अभी जारी है़ हाल में जीन वेरिएशंस पर आयी रिपोर्ट कई सकारात्मक नतीजों की उम्मीद जगाती है़ विशेषज्ञों का दावा है कि इससे मलेरिया के खिलाफ पूर्ण रूप […]

मलेरिया का प्रकोप पहले के मुकाबले भले ही कम हो गया है़ लेकिन, इस बीमारी के समूल नाश के लिए वैज्ञानिकों और मेडिकल विशेषज्ञों की दिमागी जंग अभी जारी है़ हाल में जीन वेरिएशंस पर आयी रिपोर्ट कई सकारात्मक नतीजों की उम्मीद जगाती है़ विशेषज्ञों का दावा है कि इससे मलेरिया के खिलाफ पूर्ण रूप से प्रतिरक्षा मुहैया कराने में सफलता मिलेगी़
दूसरी ओर, करीब सालभर पहले किये गये सेल ट्रांसप्लांट के बेहतर नतीजे आने से भविष्य में डायबिटीज के इलाज की नयी राह खुल सकती है. कैसे मिलेगी मलेरिया के खिलाफ समग्र प्रतिरक्षा और डायबिटीज के इलाज में किस तरह से हासिल हुई है कामयाबी, बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ आलेख …
शोधकर्ताओं ने एक सामान्य जीन संस्करण की पहचान की है, जिसका संबंध इनसान की लाल रक्त कोशिकाओं से पाया गया है. इसकी खासियत है कि यह मलेरिया के खिलाफ प्रतिरक्षा मुहैया कराने में मददगार साबित होगा. इस खोज ने उन तथ्यों पर नये तरीके से फोकस किया है, जिससे यह पता चलता है कि किन कारणों से हमारा शरीर इस घातक बीमारी से लड़ने के लिए विकसित हुआ है, जो हजारों वर्षों तक हमारी प्रजातियाें को खत्म करता आ रहा है. लिहाजा, इस नयी खोज से इस बीमारी से बचाव और उपचार के लिए नयी राह की तलाश की जा सकती है.
मूल रूप से ‘साइंस’ पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के हवाले से ‘साइंस एलर्ट’ के एक आलेख में बताया गया है कि इंगलैंड में वेलकम ट्रस्ट सेंटर फॉर ह्यूमैन जेनेटिक्स के शाेधकर्ताओं ने एक इंटरनेशनल टीम के नेतृत्व में सब-सहारा अफ्रीका के जातीय समूह के जीनोम सिक्वेंस के हजारों उदाहरणाें को साझा करते हुए विभिन्न रक्त कोशिका के खास निशान और बीमारियों के बीच संबंधों को समझने में कुछ हद तक कामयाबी हासिल की है.
दरअसल मलेरिया बीमारी प्लाज्मोडियम जीवाणु से संबंधित एकल कोशिका जीव की पांच प्रजातियों के कारण होता है, जो मच्छरों के काटने से फैलता है और किसी इनसान की लाल रक्त कोशिकाओं या इरिथ्रोसाइट्स के जरिये उसे अपनी चपेट में लेता है. लाल रक्त कणिकाओं में अचानक से दर्द बढ़ना इस बीमारी का प्रमुख लक्षण है. इसके अलावा, तेज बुखार, पसीना निकलना, शरीर ठंडा पड़ जाना और दर्द होना इसके अन्य लक्षण हैं.
वैक्सिन का निर्माण
इरिथ्रोसाइट्स की सतह पर खास केमिकल रिसेप्टर्स की पहचान करते हुए परजीवी उसके आसपास रहते हैं और जटिल किस्म के प्रोटीन पैदा करते हुए उससे जुड़े रहते हैं. फिलहाल मेडिकल विशेषज्ञ इसी खास प्रोटीन को समझते हुए सक्षम मलेरिया वैक्सिन के निर्माण में जुटे हुए हैं.
वास्तव में हमारे पास दर्जनों इरिथ्रोसाइट रिसेप्टर्स हैं, जिनमें से दो के बारे में कोई आशंका नहीं है. ‘ए’ और ‘एबी’ रक्त समूह वालों के लिए यह अनुकूलित है. इसके अलावा भी अन्य रक्त समूहों के लिए इसे अनुकूलित बनाया जा सकता है.
प्लाज्मोडियम की सभी प्रजातियों पर इस रिसेप्टर्स को टारगेट नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए, प्लाज्मोडियम विवेक्स डफी नामक एक रिसेप्टर्स के लिए दिखता है, जिसमें डफी से जुड़े प्रोटीन का इस्तेमाल किया गया है.
प्लाज्मोडियम फैल्सीपेरम
ज्यादा घातक
एक सामान्य जन्मजात उत्परिवर्तन का मतलब यह है कि पश्चिम अफ्रीका की आबादी के 95 फीसदी में डफी रिसेप्टर्स इसके बारे में अंदाजा नहीं लगा सके हैं. यही कारण है कि दक्षिण अमेरिका और एशिया में प्लाज्मोडियम विवेक्स को उभरने में क्यों मदद मिलती है. इसके लिए प्लाज्मोडियम फैल्सीपेरम प्रजातियों पर नजर रखने की जरूरत है, जिस कारण यह संक्रमण उच्च रूप से फैलता है. वर्ष 2015 में मलेरिया के कारण दुनियाभर में करीब पांच लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. इसमें से ज्यादातर लोगों की मौत प्लाज्मोडियम फैल्सीपेरम की चपेट में आने से हुई थी.
ग्लाइसोफोरीन जीन्स के आसपास के क्षेत्रों की पहचान
हालांकि, इस संबंध में शोधकार्य वर्ष 1977 से ही जारी है, जब लोगों में दुर्लभ ‘जीवाइपीए’ उत्परिवर्तन देखा गया था और पी फैल्सीपेरम के खिलाफ ये प्रतिरक्षी पाये गये थे. लेकिन, हालिया अध्ययन में जांबिया, बर्किना फासाे, कैमरून और तंजानिया जैसे देशों के 765 लोगों के जीनाेम्स को सिक्वेंस किया गया था और इनकी तुलना पूर्व में संबंधित जीनोम प्रोजेक्ट से की गयी थी.
जेनेटिक सूचना के इस व्यापक सैंपल से शोधकर्ताओं ने ग्लाइसोफोरीन जीन्स के आसपास के क्षेत्रों की पहचान की है, जिनकी नकल की गयी थी. इसमें 27 प्रकार की विविध कॉपियां सामने आयी हैं. सब-सहारा इलाके में कॉपियों की विविधता के फैलाव से कमोबेश पूर्व में किये गये अध्ययन के नतीजों को रेखांकित किया गया है, जिसमें उनके रक्त कोशिका के ग्लाइसोफोरीन में विविधता पायी गयी.
इनमें से एक खास कॉपी, डुप्लीकेशन 4 (डीयूपी 4) का संबंध गंभीर मलेरिया संक्रमण के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता पायी गयी है, जिससे इस बीमारी के जोखिम को 40 फीसदी तक कम किया जा सकता है. शोधकर्ताओं ने अपनी शोध रिपोर्ट में लिखा है कि यह विविधता गंभीर मलेरिया के जोखिम को 40 फीसदी तक कम करता है.
हाइब्रिड रिसेप्टर की नकल से आता है बदलाव
हालांकि, इस रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है कि यह विविधता कैसे परजीवियों को अपनी चपेट में लेने के लिए बाधा उत्पन्न करता है, लेकिन विशेषज्ञों का यह मानना है कि हाइब्रिड रिसेप्टर की नकल से संभवत: उनके मेंब्रेन के स्वाभाविक गुणों में बदलाव आता होगा, जिससे पी फैल्सीपेरम को ये कोशिकाएं बनाने से रोकता होगा.
डीयूपी 4 वेरिएशन महज कुछ ही अफ्रीकियों में पाया गया था, जिससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या यह उत्परिवर्तन हाल ही में हुआ है और इसे अभी तक फैलने का माैका नहीं मिला है, या फिर यह केवल खास प्रकार के प्लाज्मोडियम फैल्सीपेरम के खिलाफ ही प्रतिरक्षा मुहैया कराता है.
इनसान और मलेरिया का इतिहास बहुत लंबा है. इसलिए इस बात से कोई आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि हमारी कोशिकाएं इन परजीवियों के साथ होनेवाली रेस में घुलमिल गयी हों. लिहाजा, प्रत्येक फाइंडिंग में एक नयी प्रक्रिया सामने आती है.
इतिहास के पन्नों में अनेक राजा-महाराजाओं, योद्धाओं आदि के बारे में लिखा गया है कि उनका निधन मच्छर-जनित बीमारियों से हुआ था, जो इस तथ्य के सबूत हैं कि यह बीमारी हजारों सालों से इस धरती पर लोगों की जान की दुश्मन बनी हुई है. इनसानों और परजीवियों के साथ इस लड़ाई में कभी-कभार लोगों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी होती है. खैर, हजारों वर्षों की जद्दोजहद के बाद आखिरकार हमें मलेरिया के खिलाफ जारी लड़ाई में कामयाबी मिलती हुई प्रतीत हो रही है.
डायबिटीज के मरीजों को नहीं होगी इंसुलिन के इंजेक्शन की जरूरत
मेडिकल क्षेत्र में कई बार खास तौर पर इलाज के दौरान अलग तरह के और दिलचस्प नतीजे भी सामने दिख जाते हैं. यदि कोई इलाज यदि केवल अस्थायी रूप से कारगर होता है, तो इस बात की बेहद कम संभावना है कि मरीज की जिंदगी में उल्लेखनीय बदलाव आ सकता है और यही कारण है कि यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी के डायबिटीज रिसर्च इंस्टीट्यूट से आयी हालिया खबर कुछ दिलचस्प है.
सकारात्मक रहे पिछले वर्ष के ट्रांसप्लांट के नतीजे
एक वर्ष पहले एक महिला को इंसुलिन पैदा करनेवाली आइलेट कोशिकाएं ट्रांसप्लांट की गयी थी, जिसके भीतर टाइप वन डायबिटीज पनपने लगा था. ये कोशिकाएं उम्मीद के मुताबिक काम कर रही हैं. अब उसे इंजेक्शन के जरिये इंसुलिन लेने की जरूरत नहीं है या उसके लिए इंसुलिन पंप की अब कोई जरूरत नहीं रही. ओमेंटम के इस्तेमाल से ट्रांसप्लांट की जगह पर पेट में पैदा होनेवाले फैटी मेंब्रेन से संबंधित जटिलताओं से निबटने में शाेधकर्ताओं ने पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल किया.
मूल रूप से ‘फ्यूचरिज्म’ में प्रकाशित इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस शोधकार्य का दीर्घावधि उद्देश्य पैन्क्रियाज-मिमिकिंग मिनी-ऑर्गन के लिए सूटेबल लोकेशन की पहचान करना है, जिसे बायोहब कहा जाता है. मरीज की प्रतिक्रिया के आधार पर आेमेंटम इस कार्य के लिए बिलकुल आदर्श स्पॉट की तलाश कर सकता है.
इस प्रत्यारोपण से पहले, मरीज की पूरी जिंदगी डायबिटीज के अासपास घूमती रहती थी. इस शोध अध्ययन के प्रमुख लेखक डेविड बाइडल के हवाले से इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मरीज के जीवन की गुणवत्ता पर इस बीमारी का गंभीर असर था. उसे अपनी शारीरिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए अपने अभिभावकों की मदद लेनी पड़ती थी. बिना अपने पिता के साथ वह कहीं भी घर से बाहर नहीं जा सकती थी.
दुर्भाग्यवश डायबिटीज के कारण उसकी जिंदगी बेहद मुश्किल हो चुकी है. अमेरिकी सेंटर फॉर डीजिज कंट्रोल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका की आबादी का करीब 9.3 फीसदी हिस्सा डायबिटीज की चपेट में है और इनमें से करीब 28.7 फीसदी लोगों को अपनी बीमारी को नियंत्रित करने के लिए इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है.
यदि समय रहते इसका समग्रता से इलाज न कराया जाये, तो इससे अनेक बीमारियां पैदा हो सकती हैं. इससे दृष्टिहीनता और उच्च रक्त चाप के साथ नर्व के क्षतिग्रस्त होने या यहां तक कि मृत्यु का जोखिम भी पैदा होता है.
करोड़ों लोगों को होगा फायदा
अमेरिका में इस खास मरीज की आइलेट कोशिकाओं के ट्रांसप्लांट की कामयाबी और उसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से ऐसे लाखों मरीजों की जिंदगी को सामान्य बनाने में मदद मिल सकेगी, जो इस बीमारी के कारण अपना जीवन एक बोझ समझते हैं.
इस ट्रांसप्लांट के सफल नतीजों से इस दिशा में एक बड़ी उम्मीद जगी है कि अब वह दिन दूर नहीं जब डायबिटीज के मरीज भी सेहतमंद जिंदगी पायेंगे. विशेषज्ञों का कहना है कि इस अध्ययन ने विविध तरीकों से ट्रांसप्लांट की एक नयी उम्मीद जगायी है.

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