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छठ : युवाओं को आपस में जोड़नेवाला सांस्कृतिक बंधन

छठ का परंपरागत पर्वों से भिन्न मिजाज का होना भी है युवाओं में इसके सहज आकर्षण का कारण अनीश अंकुर संस्कृतिकर्मी बिहार के युवा फिल्मकार नीतीन चंद्रा का वीडियो सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय हो रहा है. राज्य के बाहर रह रहे एक आधुनिक युवा दंपत्ति को छठ की प्रेरणा देनेवाले इस वीडियो में मशहूर […]

छठ का परंपरागत पर्वों से भिन्न मिजाज का होना भी है युवाओं में इसके सहज आकर्षण का कारण
अनीश अंकुर
संस्कृतिकर्मी
बिहार के युवा फिल्मकार नीतीन चंद्रा का वीडियो सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय हो रहा है. राज्य के बाहर रह रहे एक आधुनिक युवा दंपत्ति को छठ की प्रेरणा देनेवाले इस वीडियो में मशहूर लोकगायिका शारदा सिन्हा का स्वर भी इसका आकर्षण है.
छठ के अवसर पर बिहार से बाहर रहनेवाले युवा बड़ी तादाद में ट्रेनों में लद कर अपने गृहप्रदेश आते हैं. ये युवा और किसी पर्व में आयें या न आयें, पर छठ उनके लिए जैसे अपने प्रदेश की अस्मिता से जुड़ा त्योहार प्रतीत होता है. राज्य के बाहर बिहार के नाम पर उत्पीड़न व पहचान का संकट झेल रहे युवाओं को छठ प्रादेशिक गौरव का बोध जगाता है. इन्हीं वजहों से बिहार तथा बाहर में रह रहे युवाओं को जोड़नेवाले सांस्कृतिक बंधन का काम करता है छठ. पलायन तथा छठ की लोकप्रियता में एक सीधा संबंध है जिसके केंद्र में युवा हैं. छठ पूजा युवाओं को बिहार की याद दिलाती है.
बिहार में हर साल नये-नये गायकों के गाये सीडी खास छठ के मौके पर लांच किये जाते हैं जिसमें गानेवाले गायक ज्यादातर युवा ही होते हैं.
छठ के संबंध में इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं कि यह जनसामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों से रची गयी उपासना पद्धति है. इसके केंद्र में धर्मग्रंथ नहीं, बल्कि किसान व ग्रामीण जीवन है. यह संभवत: इकलौता पर्व है, जिसमें पंडे-पुरोहितों की आवश्यकता नहीं होती. ईश्वर और भक्त के बीच कोई बीच का आदमी नहीं होता. सूर्य पत्यक्ष देवता के रूप में सामने होते हैं और लोग उनको अर्घ देते हैं. छठ का परंपरागत पर्वों से भिन्न मिजाज का होना भी है युवाओं में इसके सहज आकर्षण का कारण है.
इधर, कई वर्षों से गंगा व घाटों के किनारों की सफाई में सरकार रुचि लेने लगी है. पर अधिकांशत: ये काम समाज द्वारा किया जाता है, जिसमें सर्वाधिक प्रमुख भूमिका युवकों की होती है.
नगरों में सड़कों व गलियों की सफाई, व्रतियों के गुजरनेवाले रास्तों पर लाइट लगाने व सजाने , नदी-तालाब-पोखर किनारे के स्थलों की निगरानी के लिए युवा सरकार की राह नहीं देखते. हर मुहल्ले में सफाई का प्रबंधन का कार्य ‘छठ पूजा समिति’ एवं ‘छठ युवा क्लब’ जैसी संस्थाओं के हाथों में होता है. यह युवाओं में इसकी लोकप्रियता का सूचक है. शहरों में गंदगी का रोना रोनेवाले भी छठ के मौके पर युवाओं को इस कसक के साथ धन्यवाद देना नहीं भूलते. ‘काश हमारे युवा हर दिन ऐसे ही सफाई पर ध्यान देते’’. यह लगभग स्थापित मान्यता है कि छठ में अपराध काफी कम जाते हैं.
छठ एक ऐसा पर्व है जातीय बंधन को, कुछ ही दिनों के लिए ही सही, ढ़ीला करता है . ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव भूला कर एक दूसरे से सहयोग करते हैं, जो बिहार जैसे जातियों में बंटे समुदाय में आपसी संवाद कायम करता है.
छठ के एक पारंपरिक गीत में इसकी झलक है-
छोटी रे मोटी डोमिन बेटी के लामी केश
सुपवा ले आहिए रे डोमिन
छोटी रे मोटी मालिन बेटी के लामी केश
फुलवा ले आहिए रे मालिन अरघ के बेर
गीत में डोमिन, मालिन जैसी जातियों की महत्ता को रेखांकित किया गया है.
प्रकृति से निरंतर दूर होते जा रहे हमारे युवाओं को बांस की बहंगी, केले का घौद, बांस का सूप, हल्दी के पौधे, चावल, गेंहू, कद्दू, अदरख, नारियल, नींबू , ईख की दिव्य सुगंध उनको प्रकृति के पास लौटने की प्रेरणा देता है. पेड़-पौधों से जोड़नेवाला कोई दूसरा ऐसा त्योहार नजर नहीं आता.
डिजिटल क्रांति से समाज में आये खुलेपन के बावजूद युवक-युवतियों के मिलने-जुलने पर सामंती बंदिशें, कुलीन पहरा अब भी कायम हैं. छठ सूर्य को अर्घ देने के बहाने दोस्त एक दूसरे से मिलते हैं. यह पर्व हर वर्ग, उम्र को एक दूसरे से मिलने का स्पेस मुहैया कराता रहा है. इन वजहों से भी युवाओं को छठ का बेसब्री से इंतजार रहता है.
छठ के गीत ही हैं मंत्र
चंदन तिवारी
लोक गायिका
छठ के गीत ही मंत्र हैं. यही छठ की खासियत है और यही इसका महत्व भी है. संपूर्ण समाज को एक सूत्र में बांधने की ताकत इन गीतों में है. यही कारण है कि छठ को लेकर समाज का हर तबका खास तरह से आकर्षित होता है.
यह कहना है है बिहार की लोक गायिका चंदन तिवारी का. नवोदित गायिकाओं में उनकी खास पहचान है. उनका कहना है कि छठ पूजा में किसी मंत्र और धार्मिक कथा की कोई भूमिका नहीं है. यह प्रकृति के साथ जीवन गुजारने का पर्व है. प्रकृति को आडंबर परहेज है. यह वास्तिवक अर्थों में पूजा है.
घर में मेरी मम्मी छठ का त्योहार करती रही हैं. हम छोटे थे, तो उन्हें छठ करते हुए, गीतों को गाते हुए सुना करते थे. तब उन गीतों का असली अर्थ समझ में नहीं आता था. थोड़ी समझ बनी तो लगता है कि इन गीतों में जीवन, समाज और प्रकृति के प्रति जो भाव है, वह अद्भूत है. इसमें समाज की कुशलता का आह्वान है. यह तभी होगा जब प्रकृति को हम ठीक रखेंगे.
इस पर्व की विशेषता सामूहिकता भी है. जिंदगी की भाग-दौड़ के बीच यही एक त्योहर है जिसमें सब लोग अपने घर पहुंचना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि सब मिलकर यह पर्व मनायें. यह आस्था है छठी मइया के प्रति.
छठगीत
छठ के मौके पर गंगा पर चंदन तिवारी की आवाज में गाया गया गीत
गंगा जी के ऊंच अररिया
देखत निक लागेला हो
ए गंगा मइया तारी तर खाड़
कोसिला रानी केवट के जगावेली हो
कीय गंगा सांझे जे जागेली
कीय गंगा आधी रात हो
ए केवटा कीय गंगा जागसु भिनुसार
कहब दुख आपन हो
नाही गंगा सांझे जे जागे ली
नाही गंगा आधी रात हो
ए कोसिला गंगा जागेली भिनुसार
कहिह दुख आपन हो
सात बालक रात दिहले
उहो के छीन लिहले नु हो
ए गंगा मइया आठवें गरभ अवतार
त केहू के भरोसा नइखे हो
सात बालक राम दिहलें
से उहो छीन लिहले नु हो
ए कोसिला आठवें गरभ
राम जनम लिहें अयोध्या के मालिक हो
जाहुं मोरी गंगा मइया राम जरिहें
अयोध्या के मालिक हो
ए गंगा मइया सोनवे मढ़ाइब राउर घटिया तर
रूपे लागी राउर सीढ़िया नु हो
छठ के चलते बेलसंड से मुंबई पहुंच गया
यादों में छठ
पंकज त्रिपाठी
अभिनेता, बॉलीवुड
यादें याद आती है, यादें किसी दिल-ओ-जानम के चले जाने के बाद आती है. इस वाक्य में जानम की जगह मैं अगर मेरे गांव की यादों को जगह दूं, तो यादों के पिटारे से काफी कुछ निकल जायेगा.
इनमें ही छठ की यादें भी हैं. सर पर दउरा लेकर घाट जाना, पूजा के बाद गन्ना, ठेकुआ खाना, नये कपड़े पहनना वगैरह-वगैरह. मेरा गांव गोपालगंज के बेलसंड में है. मेरा घर फूस का था. मां (हेमवंती देवी) हर साल छठ करती थीं. छत न होने के कारण पटाखा फोड़ने के लिए घाट ही सबसे बेहतर जगह हुआ करता था क्योंकि गांव के गलियारे में हर जगह पुआल रखे होते थे. हर साल मैं छठ का इंतजार करता था. नये कपड़ों के साथ तरह-तरह के पकवान व फल मिलते थे. उस वक्त हल्की ठंड शुरू हो जाती थी. स्वेटर कंबल पहन कर मैं घाट जाता था. मुझे ठंड का मौसम बहुत पसंद है. एक बार सुबह-सुबह ठंड ज्यादा लग रही थी, मैं घाट पर जाना नहीं चाहता था. मां ने बताया कि छठी मैया नाराज हो जायेंगी. मैं डर के मारे तुरंत उठ कर घाट जाने के लिए तैयार हो गया. उस वक्त को याद करके आज तक हंसता हूं.
ऐसा नहीं है कि मुंबई में छठ नहीं होता. यहां भी भव्य रूप से छठ मनाया जाता है. लेकिन छोटे तालाब, नदी में छठ करने का मजा कुछ और होता था. इस पार से उस पार तक के लोग छठ करते दिखते थे. हम इधर से रॉकेट छोड़ते थे, तो दूसरी तरफ से मेरे दोस्त रॉकेट छोड़ते थे. लेकिन किसी का रॉकेट एक-दूसरे के पास नहीं पहुंचता था. रॉकेट कितना ऊंचा गया, इसके लिए हम कंपीटीशन करते थे.
फिलहाल मैं मुंबई में हूं. छठ को मिस कर रहा हूं. हर साल छठ के वक्त घर जाता था. इस साल छठ के ही दिन पुणे में शूटिंग की डेट फिक्स है. वहां जूली-2 का क्लाइमेक्स शूट होनेवाला है. फिलहाल ‘बरेली की बरफी’ फिल्म की शूटिंग करने के लिए लखनऊ में व्यस्त हूं. मैं खरना तक लखनऊ में ही शूट करुंगा. यहां आयुष्मान खुर्राना, कीर्ति सनौन व राजकुमार राव अश्विनी अय्यर (डायरेक्टर) मेरे साथ हैं. छठ को लेकर काफी बातें होती हैं.
यहां सबको पता है कि मैं इस साल छठ पर घर नहीं जा सकूंगा.
इस बार का छठ मेरे घर के लिए काफी खास है. मेरी मां, मेरी भाभी को छठ दे रही हैं. अब मेरी भाभी (रीता तिवारी, शिक्षिका) हर साल छठ करेंगी. इस साल सभी पटना में ही रह कर छठ करेंगे. मुझे दुख है मैं वहां नहीं हूं.
अभिनेता बनने का बीजारोपण गांव में हुआ : मेरे एक्टर बनने के पीछे छठ पर्व का बड़ा योगदान है. मेरे गांव बेलसंड में छठ खत्म होने के बाद (पारन यानी दूसरे दिन) नाटक खेलने की परंपरा थी. नाटक में एकाध रोल मुझे मिल जाता था. मैंने जिस साल से नाटक करना शुरू किया था, उसके दूसरे साल के बाद कुछ एक रोल ऐसे मिले, जो अभी भी याद है. पहले साल कुछ मिनटों का ही रोल मिला था. उस जगह बेहतर रूप से गंभीर नाटक का मंचन होता था. उसमें गांव के ही डायरेक्टर व गांव के ही एक्टर एक्ट करते थे.
मैंने तीन-से-चार सालों तक लगातार नाटक किया. उसमें ही दूसरे साल के नाटक में मैं पहली बार लड़की बना था. गांव में लड़कियां नाटक व डांस के लिए नहीं आती थीं. लड़के ही लड़की का रोल करते थे. मुझे एक्टिंग का शौक वहीं से लगा. कह सकते हैं, वहीं पर मेरे अंदर अभिनेता बनने का बीजारोपण हुआ था. वहां छठ में नाटक खेलने की परंपरा इसलिए भी थी कि गांव से बाहर रह रहे लोग छठ पर्व में घर लौटते थे. सभी कमा कर आते थे, तो चंदा के रूप में कुछ रुपये भी देते थे. इस कारण नाटक खेलने का सारा खर्च आसानी से निकल जाता था. अब वह परंपरा खत्म हो चुकी थी. मेरी तमन्ना है कि मैं वहां वापस जाऊं और उस परंपरा को शुरू करुं.
ऐतिहािसक सूर्य मंदिर
अलग-अलग काल खंडों में होती रही है सूर्य की पूजा
वैसे तो सूर्य की उपासना के त्योहार की बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश के पूर्वी इलाकों में खास अहमियत रही है, पर देश में अनेक ऐसे स्थान हैं, जहां सूर्य की आराधना होती रही है. इन क्षेत्रों में स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर इस बात के प्रमाण हैं कि अलग-अलग काल खंडों में वहां सूर्य की पूजा होती रही है. आइए, जानते हैं ऐसे कुछ प्राचीन महत्व वाले सूर्य मंदिरों के बारे में.
सूर्य मंदिर, मोढ़ेरा
अहमदाबाद से लगभग 100 किलोमीटर दूर इस मंदिर का निर्माण सम्राट भीमदेव प्रथम ने 1526 ई में कराया था. सोलंकी सूर्यवंशी थे. वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे. इसलिए उन्होंने सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था. इसकी शिल्प कला अनोखी है. इसके निर्माण में जुड़ाई के लिए कहीं भी चूने का इस्तेमाल नहीं किया गया है. ईरानी शिल्पकला वाले इस मंदिर को तीन हिस्सों में बनाया गया है. पहला हिस्सा गर्भगृह, दूसरा सभा मंडप और तीसरा सूर्य कुंड है.
गर्भगृह के अंदर की लंबाई 51 फुट 9 इंच तथा चौड़ाई 25 फुट 8 इंच है. मंदिर के सभा मंडप में कुल 52 स्तंभ हैं. इन स्तंभों पर बेहतरीन कारीगरी से विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों और रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों को उकेरा गया है. इन स्तंभों को नीचे की ओर देखने पर वह अष्टकोणीय और ऊपर की ओर देखने पर वह गोल दृश्यमान होते हैं. इस मंदिर का निर्माण कुछ इस तरह किया गया कि इसमें सूर्योदय होने पर सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भगृह को रोशन करे. अलाउद्दीन खिलजी ने अपने आक्रमण के दौरान मंदिर को काफी नुकसान पहुंचाया और मंदिर की मूर्तियों की तोड़-फोड़ की. वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को अपने संरक्षण में ले लिया है.
कोणार्क सूर्य मंदिर
कोणार्क स्थित यह मंदिर रथ के आकार में बनाया गया है. इसका निर्माण राजा नरसिंहदेव ने 13वीं सदी में करवाया था. इसका शिल्प अनोखा है. हिंदू मान्यता के अनुसार सूर्य देवता के रथ में बारह जोड़ी पहिये हैं और रथ को खींचने के लिए उसमें सात घोड़े हैं. रथ के आकार में बने कोणार्क के इस मंदिर में भी पत्थर के पहिये और घोड़े हैं. इसे देखने के लिए दुनिया भर से पर्यटक यहां आते हैं. यहां की सूर्य प्रतिमा पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सुरक्षित रखी गयी है और अब यहां कोई भी देव मूर्ति नहीं है. पूर्व दिशा की ओर जुते हुए मंदिर के सात घोड़े सप्ताह के सातों दिनों के प्रतीक हैं. 12 जोड़ी पहिये दिन के चौबीस घंटे दर्शाते हैं, वहीं इनमें लगी आठ ताड़ियां दिन के आठों प्रहर की प्रतीक स्वरूप है.
मार्तंड : आठवीं शताब्दी में निर्माण
जम्मू कश्मीर के पहलगाम से निकट अनंतनाग में स्थित इस मंदिर का निर्माण मध्यकालीन युग में सातवीं से आठवीं शताब्दी के दौरान हुआ था. सूर्य राजवंश के राजा ललितादित्य ने इस मंदिर का निर्माण एक छोटे से शहर अनंतनाग के पास एक पठार के ऊपर किया था. इसमें 84 स्तंभ हैं जो नियमित अंतराल पर रखे गये हैं. मंदिर की राजसी वास्तुकला इसे अलग बनाती है. बर्फ से ढके हुए पहाड़ों की पृष्ठभूमि के साथ केंद्र में यह मंदिर करिश्मा ही कहा जायेगा. इस मंदिर से कश्मीर घाटी का मनोरम दृश्य भी देखा जा सकता है. कारकूट वंश के राजा हर्षवर्धन ने ही 200 साल तक मध्य एशिया सहित अरब देशों पर राज किया था.
झालरापाटन
राजस्थान में झालरापाटन का सूर्य मंदिर अपनी प्राचीनता और स्थापत्य वैभव के कारण कोणार्क के सूर्य मंदिर और ग्वालियर के ‘विवस्वान मंदिर’ की याद दिलाता है. मंदिर की बाहरी व भीतरी मूर्तियां वास्तुकला का जीवंत उदाहरण हैं. गुंबदों की आकृति को देखकर मुगल कालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला का स्मरण हो जाता है. ‘झालरों के नगर’ के नाम से प्रसिद्ध झालरापाटन का हृदय स्थल यहां का सूर्य मंदिर हैं. इस मंदिर का निर्माण नवीं सदी में में नागभट्ट द्वितीय द्वारा कराया गया था. मंदिर का सर्वोच्च शिखर 97 फीट ऊंचा है. शिखरों के कलश और गुंबज मनमोहक है. गुंबदों की आकृति को देख कर मुगल कालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला का स्मरण हो जाता है.
रनकपुर
रनकपुर सूर्य मंदिर राजस्थान के रणकपुर नामक स्थान में अवस्थित यह सूर्य मंदिर, नागर शैली में सफेद संगमरमर से बना है. भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता यह सूर्य मंदिर जैनियों के द्वारा बनवाया गया था जो उदयपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित है. इसे 13वीं सताब्दी में बनाया गया था जिसे किसी कारणवश फिर से 15वीं शताब्दी में बनवाया गया. मंदिर के बहुभुजीय दीवार पर योद्धाओं, घोड़ों, और खगोलीय पिंडों के नक्काशीदार चित्र उस युग के लोगों की कलात्मकता दर्शाते हैं. इस मंदिर में भगवान सूर्य अपने रथ पर सवार दिखाये गये हैं. देश भर से भक्त बड़ी संख्या में भगवान सूर्य का आशीर्वाद लेने के लिए यहां आते हैं
उन्नाव का सूर्य मंदिर
मघ्य प्रदेश के उन्नाव में स्थित इस सूर्य मंदिर का नाम बह्यंय देव मंदिर है. यह विश्वास किया जाता है कि उनाव मंदिर प्राग एतिहासिक काल का है. लगभग चार सौ वर्ष पुराने इस ऐतिहासिक सूर्य मंदिर में संतान की चाहत रखने वाले श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है. इस मंदिर में भगवान सूर्य की पत्थर की मूर्ति है, जो एक ईंट से बने चबूतरे पर स्थित है.
जिस पर काले धातु की परत चढ़ी हुई है. इसके साथ 21 कलाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सूर्य के 21 त्रिभुजाकार प्रतीक मंदिर पर अवलंबित है. बताया जाता है कि विगत 50 वर्षों में यहां आनेवाले श्रद्धालु अब तक इतना घी चढ़ा चुके हैं कि घी को रखने के लिए कुओं का निर्माण करवाना पड़ा. वह भी एक या दो कुंए नहीं बल्कि पूरे नौं कुएं हैं. इस मंदिर में शुद्ध घी चढ़ाने की परंपरा लगभग 400 साल पहले से शुरू हुई. मान्यता हैं कि घी के चढ़ावे में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करने पर उन्हें शाप लगता है और कुष्ठ और चर्म रोग आदि बीमारियां हो जाती हैं. यहां रथयात्रा का आयोजन किया जाता है.

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