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सामाजिक मूल्यों को स्थापित करना जरूरी

रंजना कुमारीनिदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च हम भेदभाव के बहुत भयानक दौर से गुजर रहे हैं. लड़का-लड़की के बीच के फर्क समाज में लड़कियों के प्रति हिंसा के लिए ज्यादा जिम्मेदार है. लैंगिक असमानता का उन्मूलन इतना आसान भी नहीं है. पीढ़ियों से जारी इस असमानता को खत्म करने के लिए तीन स्तरों पर तैयारी […]

रंजना कुमारी
निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च

हम भेदभाव के बहुत भयानक दौर से गुजर रहे हैं. लड़का-लड़की के बीच के फर्क समाज में लड़कियों के प्रति हिंसा के लिए ज्यादा जिम्मेदार है. लैंगिक असमानता का उन्मूलन इतना आसान भी नहीं है. पीढ़ियों से जारी इस असमानता को खत्म करने के लिए तीन स्तरों पर तैयारी की जरूरत है.
सबसे पहले स्तर पर परिवार आता है. हर परिवार को चाहिए कि लड़के की परवरिश ऐसी हो, ताकि वह लड़की या औरत को समझ सके. दूसरी बात, अगर उसकी परवरिश मार-पीट या घरेलू हिंसा के बीच होगी, तो ऐसा परिवार उस लड़के की मानसिकता खराब करने के लिए काफी है कि औरतें कमजोर होती हैं.
हिंसा का शिकार वे मांएं धीरे-धीरे सचमुच खुद को कमजोर मान लेती हैं और बजाय बेटी को मजबूत बनाने के वे अपने बेटे पर निर्भर हो जाती हैं कि आगे चलकर वह उसका साथ देगा. यहीं से भेदभाव पैदा होता है, लड़कियां कमजोर होती चली जाती हैं और लड़कों का मनोबल बढ़ता जाता है कि वह तो मर्द है, जो औरत से मजबूत है. परिवार के इस रवैये को बदलने की जरूरत है, ताकि लड़का-लड़की में कोई फर्क न हो और दोनों एक-दूसरे का सम्मान करना सीखें.
दूसरे स्तर पर स्कूल आता है. स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था में ऐसी नीतियों और मूल्यों को मजबूती से रखने की जरूरत है, ताकि बच्चे जीवन मूल्य और सही-गलत का फर्क समझ सकें. उन्हें गुड टच और बैड टच से आगे की सीख भी देनी चाहिए कि स्कूल के बाहर किसी भी जगह वे जायें, वहां अपने मूल्यों को साथ लेकर जायें. उन्हें संविधान का हवाला देकर सिखाया जाये कि हर नागरिक बराबर है, भले ही वह किसी भी जाति-धर्म का हो या फिर अमीर या गरीब हो.
मानवीय मूल्यों को बच्चों में आत्मसात कराने की जिम्मेदारी स्कूलों की ही है. इसलिए स्कूलों को चाहिए कि अपने यहां पढ़नेवाले बच्चों को यांत्रिक न बनने दें, बल्कि मानवीय मूल्यों का निर्वहन करनेवाला बनायें. ऐसा होगा, तो यही बच्चे आगे चलकर एक बेहतरीन और मूल्यों वाले समाज का निर्माण करेंगे.
तीसरा स्तर है शासन और प्रशासन का. देश और राज्यों में शासन करनेवाले महानुभावाें को चाहिए कि वे ऐसी नीतियां बनायें, ताकि पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं के लिए रोजगार की उपलब्धता बढ़ायी जा सके. रोजगार न होने की हालत में युवा इधर-उधर भटकते हैं और उनके दिल-दिमाग में एक नकारात्मकता जन्म लेने लगती है, जिससे वे गलत रास्ते अख्तियार कर लेते हैं.
अगर सभी पढ़े-लिखे युवाओं को नौकरियां मिलें और बाकी युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जाय, तो मैं समझती हूं कि ये सारे युवा जिम्मेदारी महसूस करेंगे कि उन्हें अपना काम अच्छे से करना है. युवाओं को रोजगार में व्यस्त होने का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि उनके अंदर नकारात्मकता कम हो जायेगी और वे खुद में जिम्मेदार बनते जायेंगे. यह स्थिति एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकती है. दूसरी बात प्रशासन की है.
मैं बहुत हैरत में हूं कि हैदराबाद में पुलिस एनकाउंटर में चारों आरोपियों के मारे जाने पर लोग जश्न मनाने लगे. यह बेहद दुखद है. एनकाउंटर को सही माननेवाला समाज लोकतांत्रिक नहीं हो सकता. इस जश्न का अर्थ है कि लोगों को कानून पर भरोसा नहीं है, सीधे आरोपियों को गोली मारे जाने पर ही भरोसा है. यह स्थिति हिंसा को और बढ़ायेगी ही.
आरोपी चाहे जितना ही जघन्य क्यों न हो, कानून और अदालत के जरिये ही उसे सजा मिलनी चाहिए. इसलिए प्रशासन को भी चाहिए कि कम से कम कानून को हाथ में न ले और लोगों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहे. अगर प्रशासन और कानून तत्परता से पीड़ितों को न्याय देंगे, तभी समाज का भरोसा अदालतों पर होगा.
कुल मिलाकर देखें, तो परिवार, स्कूल, शासन और प्रशासन सब लोग अपनी जिम्मेदारी निभायेंगे, तभी संभव है कि युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति और औरतों के प्रति सम्मान का भाव पैदा होगा. बीते अरसों में देश में सामाजिक मूल्यों का जिस तरह से पतन हुआ है, वह बेहद चिंता का विषय है. इन मूल्यों को फिर से स्थापित करने की सख्त जरूरत है.

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