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धर्मद्रोही कहलाये, विरोध झेला, पर अभियान से पीछे नहीं हटे गांधी

अरविन्द कुमार स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता निवारण के मुद्दे को एक बड़े आंदोलन के रूप में स्थापित किया. उनका मानना था कि अस्पृश्यता हमारे समाज का सबसे बड़ा कलंक है और यदि हम इस कलंक को नहीं मिटा पाते हैं तो हमारे द्वारा हासिल की गयी आजादी भी अधूरी रहेगी. आज […]

अरविन्द कुमार

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता निवारण के मुद्दे को एक बड़े आंदोलन के रूप में स्थापित किया. उनका मानना था कि अस्पृश्यता हमारे समाज का सबसे बड़ा कलंक है और यदि हम इस कलंक को नहीं मिटा पाते हैं तो हमारे द्वारा हासिल की गयी आजादी भी अधूरी रहेगी.
आज ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति’ से संबंधित विभिन्न विमर्शों के बीच यह लगभग स्थापित हो गया है कि मनुष्य जब तक स्वयं किसी समस्या का अनुभव नहीं करता है, उसकी वास्तविक संवेदना से जुड़ नहीं पाता है. गांधी जी भी इससे अछूते नहीं हैं. भारत में रहते हुए उन्होंने सामाजिक विभेद एवं अस्पृश्यता के दंश को शायद उतनी गहराई से अनुभव नहीं किया होगा जितना दक्षिण अफ्रीका (सन् 1893) पहुंचने के बाद.
वहां उनके साथ जब काले नस्ल में जन्म लेने के कारण गोरे नस्ल के लोगों द्वारा दुर्व्यवहार एवं अभद्रता की गयी तब वे काफी आहत हुए और नस्लीय अथवा जातीय विभेद के दर्द को महसूस किया. 1915 में गांधी भारत वापस आये तथा 1916 में अस्पृश्यता के मुद्दे को कांग्रेस कार्यसमिति में ठोस रूप से उठाया. वह स्वयं मैला ढोने वालों की बस्ती में रहे तथा उनकी समस्याओं को नजदीक से महसूस किया.
लोगों के मन से घृणा एवं आपसी विभेद मिटाने के लिए उन्होंने सेवाग्राम में अपना शौचालय स्वयं साफ करने एवं अपना मैला स्वयं ढोने की प्रथा की शुरुआत की.
‘चंपारण सत्याग्रह’ के दौरान गांधी जी द्वारा बिहार की पहली ऐतिहासिक यात्रा की गयी. उस काल में लंबे बिहार प्रवास के दौरान उन्होंने महसूस किया कि छुआछूत एवं सामाजिक विभेद की समस्या न सिर्फ ग्रामीण एवं अशिक्षित बिहार में वरन शहरी एवं संभ्रांत बिहार में भी समान रूप से प्रचलन में है. उन्होंने ‘नील सत्याग्रह’ के साथ अस्पृश्यता निवारण विचारधारा को भी जम कर प्रचारित किया.
लंबे समय तक महात्मा गांधी ने अन्य आंदोलनों के साथ अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम को व्यक्तिगत प्रयास से जारी रखा, जिसमें उनका सबसे ज्यादा जोर समझा-बुझाकर लोगों के हृदय परिवर्तन पर था. अस्पृश्यता के प्रश्न पर उनकी सोच और कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव तब आया जब पूना पैक्ट (सन् 1932) के दौरान डॉ आंबेडकर ने कड़े शब्दों में अपनी स्वानुभूति उनसे साझा की.
उन्होंने कहा – “आज सवर्ण हिंदू हरिजनों के साथ ऐसा निंदनीय व्यवहार करते हैं, फिर भी आप हिंदुओं के साथ रहने को हमें क्यों कहते हैं? वे लोग हमारी जाति के लोगों को सार्वजनिक स्थानों में जाने तक नहीं देते.
भगवान के मंदिर में उनके दर्शन तक करने की हमें छूट नहीं. यहां तक कि मद्रास में कहीं-कहीं जिस रास्ते से सवर्ण हिंदू चलते हैं, उस रास्ते से हरिजन जा नहीं सकते.
उन लोगों के लिए अलग रास्ता बना है और यदि हरिजन चलें तो नियम है कि अपने गले में घंटी लटकाकर चलें ताकि उसकी आवाज से सवर्ण समझ जाएं कि कोई हरिजन आ रहा है. इस पर वे लोग किनारे ही नहीं हो जाते, बल्कि हजारों-हजार गालियों की बौछार करते हुए उस बेचारे हरिजन का तिरस्कार यह कहते हुए करते हैं कि सवेरे-सवेरे इस चांडाल को देखना पड़ा.
इसी तरह कम और वेश सारे देश में यही अवस्था है.” (नथमल सिंघानिया, बापू जी की देवघर यात्रा, संपादक : हेतुकर झा, जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान, बिहार सरकार, संस्करण: 2015, पृष्ठ 09) इसके बाद गांधी जी ने अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम को एक आंदोलन के रूप में खड़ा किया. ‘हरिजन सेवक संघ’ (30 सितंबर, 1932) की स्थापना की.
7 नवंबर, 1933 से 29 जुलाई , 1934 तक देश के विभिन्न प्रांतों एवं विभिन्न क्षेत्रों का दौरा किया. बिहार यात्रा की शुरुआत 22 अप्रैल, 1934 को हुई. इस दिन खगड़िया एवं मानसी स्टेशनों पर उनके स्वागत एवं समर्थन में भारी भीड़ जमा हुई.
वहां से वे समस्तीपुर एवं पटना होते हुए आरा तथा बक्सर पहुंचे. इस यात्रा के दौरान उन्हें हर जगह कट्टरपंथी सनातनियों का जबरदस्त विरोध झेलना पड़ा, उन्हें काले झंडे दिखाये गये, उनकी कार के आगे लेटकर उनका रास्ता रोकने की कोशिश की गयी, उनके सामने ‘धर्मद्रोही गांधी वापस जाओ’ के नारे लगाये गये. बावजूद इसके आमजन पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं दिखा.
गांधी की सभाओं में भारी संख्या में लोगों ने आकर उनका समर्थन एवं हौसला अफजाई किया. इस संदर्भ में गांधी जी की देवघर यात्रा (26 अप्रैल, 1934) का जिक्र बहुत जरूरी है. हरिजनों के मंदिर प्रवेश के प्रश्न पर जब गांधी देवघर जा रहे थे तब जसीडीह स्टेशन पर कट्टरपंथी सनातनियों एवं पंडों द्वारा न सिर्फ उन्हें भद्दी गालियां दी गयीं वरन उनकी कार पर जानलेवा हमला किया गया. ड्राइवर की सूझबूझ एवं सौभाग्यश उनकी जान बच गयी. इस प्रकार की घटनाएं गांधी को न डरा सकीं न उन्हें कर्तव्य पथ से डिगा सकीं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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