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विकराल होता सोशल मीडिया और बुनियादी चुनौतियां

शालिनी जोशी वरिष्ठ पत्रकार सू चना के इस युग में मोबाइल, कंप्यूटर और दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी में बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा है, चाहे वे सरकार और सार्वजनिक संस्थान हों या निजी कंपनियां या आम नागरिक. इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि कंप्यूटर नेटवर्क और मोबाइल संप्रेषण इस भूमंडलीय […]

शालिनी जोशी

वरिष्ठ पत्रकार
सू चना के इस युग में मोबाइल, कंप्यूटर और दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी में बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा है, चाहे वे सरकार और सार्वजनिक संस्थान हों या निजी कंपनियां या आम नागरिक. इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि कंप्यूटर नेटवर्क और मोबाइल संप्रेषण इस भूमंडलीय दौर के वाणिज्यिक, औद्योगिक, राजनीतिक और सामाजिक कार्यकलापों को चलाने के लिए अनिवार्य हैं. कोई भी प्रौद्योगिकी मूल्यनिरपेक्ष नहीं होती. नये मीडिया तकनीक की भी अपनी संस्कृति है. इसे तीन मुख्य लक्षणों से समझा जा सकता है.
पहला शारीरिक गतिविधि का स्थान इलेक्ट्रॉनिक कमांड ने ले लिया है, दूसरा सभी गतिविधियों को समान प्रक्रिया और उपकरणों से चालित किया जा रहा है और तीसरा समय और दूरी की अवधारणा का लोप हुआ है.
डिजिटल संचार के स्वरूप में ही ये अंतर्निहित है कि हम सभी निजी घटनाओं और व्यवहार को सार्वजनिक करते रहें. निजी और सार्वजनिक स्पेस के इस विलय में हर चीज प्रदर्शनीय और प्रदर्शित है. हम ये भूल रहे हैं कि जीवन के पलों को जीना भी है, सिर्फ उन्हें साझा करना ही उद्देश्य नहीं है.
सोशल मीडिया नेटवर्किंग जिसे आम बोलचाल में सोशल मीडिया कहा जाता है, उस पर आभासी गतिविधियां वास्तविक जीवन के हर पक्ष पर हावी हैं और उन्हें डोमिनेट कर रही हैं. हम उस स्थिति में पहुंच रहे हैं कि जो कोई और जो कुछ सोशल मीडिया पर नहीं होगा, उसका अस्तित्व ही गौण समझा जायेगा. ज्ञान और मेधा अब डाटा, सूचना, फोटो और प्रतीकों में सिमट गयी है और माना जाने लगा है कि जिसके पास ये सब है वही ताकतवर है.
सोशल मीडिया की सत्ता संरचना और सांस्कृतिक राजनीति को समझना आवश्यक है. नेटवर्क सोसायटी की अवधारणा देनेवाले अमेरिकी चिंतक मैनुअल कासल कहते हैं कि इंटरनेट एक ऐसा मंच है जहां व्यक्ति, समूह और संस्थान अपनी आवाज और संदेशों को साझा करने के लिए असमान रूप से प्रतियोगिता कर रहे हैं और इस बात के लिए भी संघर्षरत हैं कि साइबर संसार का आकार और रूप कैसा होगा.
इतालवी उपन्यासकार और मीडिया चिंतक उम्बेर्तो इको ने इसके दूसरे आयाम की ओर इशारा करते हुए कहा था कि यह एक वैसा ही मंच है, जैसा कि मयखाने में जाकर कोई भी शेक्सपियर को गाली दे सकता है.
इको का इशारा इस मीडिया के सतहीपन और अ-गंभीरता की ओर था लेकिन अब सोशल मीडिया से जुड़ी चिंता सिर्फ सतहीपन की ही नहीं है, बल्कि अपने आकार, संप्रेषण, प्रयोग और व्यवहार में ये विकराल बनता जा रहा है.
यह सही है कि लोगों को अपनी बात रखने का मंच मिल गया, लेकिन यह देखना जरूरी है कि इस बात को कौन रख रहा है और कैसे रखा जा रहा है. चुनावों ने यह तो साबित कर ही दिया है कि सोशल मीडिया बहुमतवाद का पोषण करता है.
हम सोशल मीडिया का इस्तेमाल क्यों करते हैं? क्या अपने अहम के लिए और खुद को महत्वपूर्ण दिखाने के लिए? सोशल मीडिया पर दी गयी प्रतिक्रिया की क्या प्रासंगिकता है.
अगर चुनिंदा संवेदनशील और सार्थक पोस्ट्स को छोड़ दें, तो सोशल मीडिया कमोबेश किसी भी संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे पर सुचिंतित विमर्श की बजाय तूतू मैंमैं के कोलाहल में बदल जाता है. फिर ट्रोलिंग शुरू हो जाती है और कई लोग आव देखा न ताव, सनसनीखेज संदेशों को फॉर्वर्ड कर देते हैं या शेयर कर देते हैं.
ऐसे गैरजिम्मेदाराना रवैये के प्रदर्शन से सोशल मीडिया की एक प्रभावशाली संवाद मंच के रूप में सार्थकता खत्म होती रहती है. ऐसी बहसें अक्सर सोशल मीडिया पर ही शुरू होती हैं और वहीं खत्म हो जाती है.
जनसरोकारों से जुड़ा मुद्दा बेशक पूरे शोर और धमाकों के साथ सोशल मीडिया पर अवतरित होता है, लेकिन वह एक लंबी लड़ाई या बड़े आंदोलन का रूप नहीं ले पाता है, क्योंकि आंदोलन के लिए धरातल पर एक सतत् तैयारी की जरूरत होती है, लेकिन वह वर्चुअल (आभासी) ताप वहां वास्तविक ऊर्जा में तब्दील ही नहीं हो पाता. फिर यही लगता है कि लोकतंत्र में धरातल पर जिस असहमति के साहस की जरूरत होती है सोशल मीडिया एक तरह से उसे कमजोर कर रहा है.
सोशल मीडिया पर फेक न्यूज के प्रसार की रोकथाम हो भी न पायी थी कि अब ‘डीप फेक’ की चुनौती सामने है. इसे आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस सॉफ्टवेयर से तैयार किया जा रहा है, जहां तस्वीरों और वीडियो को मनचाहे तरीकों से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है. इसकी प्रोग्रामिंग ऐसी की गयी है कि एल्गोरिदिम के अनुसार ये सॉफ्टवेयर किसी व्यक्ति का चेहरा अन्य व्यक्ति के चेहरे पर चिपकाता ही रहेगा.
भारत जैसे देशों में जहां डिजिटल साक्षरता कम है वहां कुछ ही लोग इस तथ्य से वाकिफ हैं कि एल्गोरिदम के सिद्धांत और व्यवहार ने हमें अपनी डिजिटल आदतों का कितना गुलाम बना दिया है. हो सकता है कि आनेवाले चंद साल में हालात पर काबू करना कठिन हो जाये. उस चुनौती से निबटने की कोई तैयारी नहीं है.
हाल में सरकार ने केरल के वृत्तचित्र महोत्सव में प्रख्यात वृत्तचित्र फिल्मकार आनंद पटवर्धन की डॉक्युमेंट्री ‘रीजन’ दिखाने पर पाबंदी लगाई तो सुप्रीम कोर्ट ने ये कहकर इस पाबंदी को हटा दिया कि यह फिल्म पब्लिक डोमेन में पहले से उपलब्ध है और इसे लोग देख ही रहे हैं इसलिए सरकार का यह तर्क बेबुनियाद है कि इसे दिखाने से कानून और व्यवस्था पर खतरा होगा.
कोर्ट का आशय यह है कि चूंकि फिल्म पहले ही यूट्यूब पर अपलोड हो चुकी है और देखी जा रही है, तो ऐसे में उसे महोत्सव में दिखाये जाने से कैसे रोका जा सकता है. इससे सोशल मीडिया की प्रभावी भूमिका का भी पता चलता है.

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