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प्रभात शुंगलू वरिष्ठ पत्रकार और संस्थापक-संपादक, द न्यूजबाज, यूट्यूब चैनल बराक ओबामा से डोनाल्ड ट्रंप तक सबने न्यू मीडिया और नयी टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल किया. न्यू मीडिया अपनी मौजूदगी का ऐहसास जबरदस्त तरीके से करा रहा है. साल 2014 के लोकसभा के चुनावों नें भारत ने सोशल मीडिया की मौजूदगी का बड़ा ऐलान किया. […]

प्रभात शुंगलू

वरिष्ठ पत्रकार और संस्थापक-संपादक,
द न्यूजबाज, यूट्यूब चैनल
बराक ओबामा से डोनाल्ड ट्रंप तक सबने न्यू मीडिया और नयी टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल किया. न्यू मीडिया अपनी मौजूदगी का ऐहसास जबरदस्त तरीके से करा रहा है. साल 2014 के लोकसभा के चुनावों नें भारत ने सोशल मीडिया की मौजूदगी का बड़ा ऐलान किया. लगा कि कैंपेन जमीन पर नहीं फेसबुक और ट्विटर पर लड़े जा रहे थे. आलम यह है कि ट्रंप हों या मोदी, अपने मन की बात लोगों तक पहुंचाने का सरल और सुलक्ष माध्यम उन्होंने ढूंढ़ लिया है. वह है सोशल मीडिया.
देश-दुनिया में तेजी से बदलाव आ रहे हैं. टेक्नोलॉजी इन बदलाव में बड़े पैमाने में सहयोग दे रही है. बदलती टेक्नोलॉजी ने मीडिया को लोगों के और करीब ला दिया है.
इंटरनेट ने सूचना की दूरी मिटायी है. लेकिन सोशल मीडिया ने उपभोक्ता को ही मीडिया बना दिया है. अब उसे किसी थर्ड पार्टी की जरूरत नहीं है. किसी अखबार, टीवी चैनल, मीडिया वेबसाइट की जरूरत नहीं है.
अब उसे अपनी बात रखने के लिए कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की च्वाॅइस है. और किसी हद तक एक बड़े तबके तक अपनी बात पहुंचाने का बेरोक-टोक साधन भी. जन-आंदोलन से लेकर, विचार और विमर्श, फिल्म से लेकर बागबानी तक, स्पोर्ट्स से लेकर आध्यत्म तक. बस उसे अब अपने मुताबिक सही बक्से में टिक लगाना है.
सूचना क्रांति वाकई क्रांति ले आयी है. इंटरनेट खबर के उन स्रोतों को भी करीब लाया, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. टेक्नोलॉजी ने अब उस सूचना की खान को मोबाइल में समेट दिया है. स्मार्टफोन अब केवल दूरभाष का माध्यम नहीं रह गया है. अब इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स इंटरनेट डेटा के इस्तेमाल का ही चार्ज कर रहे हैं. स्मार्टफोन पर बात जितनी मनमर्जी कीजिये.
अखबार सुबह आता है और टीवी का प्राइम टाइम देर रात. रेडियो है भी और नहीं भी. मगर मीडिया के ये तीनों ही पारंपरिक माध्यम वन-वे स्ट्रीट हैं. आप देख तो सकते हैं, पढ़ तो सकते हैं, मगर उससे सहमति या असहमति नहीं दिखा सकते.
उसकी बात को सुन तो सकते हैं, पढ़ सकते हैं, मगर अपनी नहीं कह सकते. लेकिन डिजिटल मीडिया ने यह शिकायत दूर कर दी. आज हर इंसान किसी की बात सुने या न सुने, अपनी बात लोगों तक जरूर पहुंचाना चाहता है. इसके लिए उसके पास टेक्स्ट से लेकर यूट्यूब जैसे ऑडियो-वीडियो के कई प्लेटफॉर्म भी हैं.
सोशल मीडिया का रूप कुछ मायनों में लगातार बदलता जा रहा है. कुछ साल पहले तक इंस्टाग्राम एप्प आप नजरअंदाज कर सकते थे. आज अगर वह आपके मोबाइल पर डाउनलोडेड एप्प का हिस्सा नहीं, तो अपने दोस्तों के बीच आपका सोशल स्टेटस ही खतरे में है. सभी सोशल मीडिया प्रोडक्ट अपने-अपने फीचर ऑफर कर रहे हैं, जो उन्हें एक-दूसरे से अलग करते हैं.
स्मार्टफोन और उसके साथ ही सोशल मीडिया एप्स का एडिक्शन उफान पर है. लेकिन टेक्नोलॉजी जैसे-जैसे हमारे जीवन का एक हिस्सा बनती जा रही है, उसके दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं. सोशल मीडिया फेक न्यूज का भी अड्डा बन रहा है. अब चूंकि सूचना के अनेक स्रोत हैं, इसलिए सच और झूठ, सही और फेक न्यूज में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है.
फेक न्यूज का यह बाजार किस तरह से इंटरनेट पर अपनी जड़ें जमा चुका है, इसका अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि अब इसकी वजह से समाज में भाईचारा और सौहार्द भी खतरे में पड़ गया है. आपके व्हाॅट्सएप्प पर एक गलत सूचना आपको उत्तेजित करने के लिए काफी है.
और चूंकि मल्टिपल सोर्स के बावजूद सही-गलत का आकलन करने की क्षमता कम हो रही है, इसलिए सामाजिक विषमता बढ़ाने में टेक्नोलॉजी और न्यू मीडिया के बुरे नतीजे भी सामने आ रहे हैं. गूगल वाले तो अब लोगों तक वर्कशॉप के जरिये फेक न्यूज को पहचानने के तरीके भी बता रहे हैं.
सोशल मीडिया के तंबू की एक विशेषता यह है कि उस तंबू में बहुत से अलग-अलग मेज और कुर्सियों के समूह हैं, और सब अपने विचारों के मुताबिक, अपने-अपने सच-झूठ और तमाम कहानियों के साथ उस टेबल पर आये अपने टाइप के लोगों का स्वागत कर रहे हैं.
एक इको चैंबर बन रहा है, जिसमें आपको आपकी अपनी ही आवाज सुनायी दे रही है. या फिर उन लोगों की, जो आपकी तरह ही सोच रखते हैं. अब तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी आपको वही मुहैया करा रहा है, जो आप देखना चाहते हैं. उनका एलगॉरिदम अब आपके अनुसार चल रहा है. यानि एक फिल्टर बबल बन रहा है और आप उसी में कैद हो कर रह जा रहे हैं.
टेक्नोलॉजी अगर समाज को नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखती है, तो उसके इस्तेमाल के नये, कंस्ट्रक्टिव तरीके तैयार करने पड़ेंगे. वर्ना मीडिया का स्वरूप जिस तेजी से बदल रहा है, उससे दुनिया सिमटकर भले ही छोटी हो जाये, मगर ये टेक्नोलॉजी दूसरों को सुनने, समझने की क्षमता को जरूर कुंद कर देगी, हमें ज्यादा असहिष्णु और अलोकतांत्रिक बना देगी.

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