आरफा खानम शेरवानी
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अपनी भलाई के लिए सही खबरें खरीद कर पढ़िए और देखिए
आरफा खानम शेरवानी सीनियर एडिटर, द वायर, हिंदी हमारे पारंपरिक मीडिया माध्यमों में जिस तरह का नैतिक पतन हुआ है और लोग भी कहने लगे हैं कि मीडिया अब सरकार की भाषा बोलने लगा है, उसका भोंपू बन गया है, इसलिए उसके बायप्रोडक्ट के रूप में यानी नतीजे के रूप में डिजिटल मीडिया का मुखर […]
सीनियर एडिटर,
द वायर, हिंदी
हमारे पारंपरिक मीडिया माध्यमों में जिस तरह का नैतिक पतन हुआ है और लोग भी कहने लगे हैं कि मीडिया अब सरकार की भाषा बोलने लगा है, उसका भोंपू बन गया है, इसलिए उसके बायप्रोडक्ट के रूप में यानी नतीजे के रूप में डिजिटल मीडिया का मुखर होना लाजमी था. जो खबरें मुख्यधारा के मीडिया में नहीं आ पा रही हैं, वे खबरें डिजिटल मीडिया में आ रही हैं.
जाहिर है, वेब मीडिया का उदय होना ही था. वेब पत्रकारिता यानी वेब मीडिया की बात करें, तो इसके उभरने की तीन मुख्य वजहें हैं- पहली वजह तकनीकी है, दूसरी सामाजिक है और तीसरी राजनीतिक है.
वेब मीडिया के उदय की तकनीकी वजह यही है कि अब वेब मीडिया ही पत्रकारिता का भविष्य बनने जा रहा है. कयोंकि अखबार-पत्रिकाएं, न्यूज चैनल और रेडियो को पढ़ा-देखा-सुना जाना घट रहा है और इंटरनेट से चलनेवाला वेब मीडिया लोगों को हर तरह की सूचनाएं आसानी से और तुरंत मुहैया करा रहा है. इसलिए इसका भविष्य उज्ज्वल है. वेब मीडिया के उदय की सामाजिक और राजनीतिक वजहें एक साथ जुड़ी हुई हैं.
भय, लालच और विचारधारा के चलते जिस तरह से सत्ता और सरकार का राजनीतिक इंस्ट्रूमेंट बनकर मुख्यधारा का मीडिया काम करता नजर आ है, और आम आदमी की आवाज वहां सुनायी ही नहीं दे रही है, इसलिए जरूरी था कि गरीबों, मजदूरो, महिलाओं, युवाओं, किसानों आदि की आवाज कहीं सुनायी दे. यही काम वेब मीडिया ने किया है. पहले मीडिया गरीब आदमी की आवाज हुआ करता था, लेकिन अब वही मीडिया एक ताकतवर सत्ता का बयान बन गया है.
अब चूंकि लोकतंत्र में वंचितों की आवाज तो आयेगी ही, इसलिए जब मुख्यधारा का मीडिया उस आवाज को नहीं सुनायेगा, तब इसके नतीजे की शक्ल में वेब मीडया या न्यू मीडिया उन आवाजों को लोगों तक पहुंचायेगा ही. सूचनाएं पानी की तरह होती हैं, वे अपना रास्ता निकाल लेती हैं. अगर मुख्यधारा का मीडिया सूचनाओं को रोकेगा, तो वे न्यू मीडिया के जरिये बहने लगेंगी, और बह ही रही हैं. न्यू मीडिया की यही सार्थकता है.
न्यू मीडिया के कई आयाम हैं, जिनमें वेब मीडिया एक है. जब न्यूज और व्यूज की कई सारी वेबसाइटें आने लगीं, तो बहुत से लोग कहने लगे कि जिसको देखो, वही वेबसाइट खोल लेता है और गलत खबरें और सूचनाएं फैलाने लगता है.
यह हास्यास्पद बात है. क्योंकि आज तो पूरा मुख्यधारा का मीडिया ही गलत सूचनाएं फैला रहा है. फेक न्यूज सिर्फ झूठी खबरों को फैलाना ही नहीं है, बल्कि अच्छी खबरों को छुपाना-दबाना भी झूठ फैलाना है, क्योंकि जब सच्ची खबर दब जायेगी तो उसकी जगह झूठी खबर ही लोगों के बीच पहुंचेगी.
आज टीवी चैनलों पर जो रिपोर्टिंग हो रही है, उसका 90 प्रतिशत आप देख लीिजये, वह सब फेक न्यूज है. वो तो भला हो वेब मीडिया का, जो मुख्यधारा की तमाम फेक न्यूज का पर्दाफाश कर रहा है. फेक न्यूज के लिए डिजिटल मीडिया को दोषी मानना गलत है, क्योंकि इससे कोई भी छोटा-बड़ा मीडिया बचा नहीं है.
अंतर यह है कि अखबार और टीवी के जरिये संगठित तरीके से फेक न्यूज फैलायी जाती है, जबकि डिजिटल मीडिया के जिरये कोई भी एक व्यक्ति फेक न्यूज को फैला सकता है. इसपे नियंत्रण के लिए मैं कभी नहीं चाहूंगा कि सरकार कुछ करे, बल्कि निगरानी का यह काम प्रेस काउंसिल, ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन और पत्रकार गिल्ड को आगे आकर अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए.
आज सूचनाएं बल्कि में लोगों के पास पहुंच रही हैं, इसलिए सही-गलत का पता नहीं चल पाता. इसके लिए जरूरी है कि वेब मीडिया का पाठक और दर्शक कई स्रोतों से किसी सूचना को जाकर परखे, तभी भरोसा करे.
मैं तमाम सूचनाओं की बात नहीं कर रही, बल्कि वे खबरें, जिनसे लोगों के रोजगार और जीवन जुड़े हुए हैं, उन्हें तोड़ने-मरोड़ने का ज्यादा खतरा है, इसलिए कई स्रोतों से इनकी जानकारी लेनी चाहिए. मैं अपनी मिसाल दूं, तो जब कोई खबर ब्रेक होती है, तो मैं कम से कम पांच-छह वेबसाइट पर उस खबर को देखती हूं, क्योंकि पांच-छह वेबसाइट के लोग एक ही कमरे में बैठकर कोई साजिश नहीं कर रहे होते हैं.
एक अच्छा तरीका यह भी है कि पाठक यह देखे कि उस खबर के नीचे बाइलाइन है या नहीं, रिपोर्टर का नाम है तो उसका गूगल पर नाम सर्च करके देखिये कि उसने कितनी विश्वसनीय खबरें दी हैं. दूसरा तरीका यह है कि जिस वेबसाइट पर खबर चल रही है, उसकी सत्यता के बारे में दर्शक-पाठक जानकारी हासिल करे. यह कोई मुश्किल काम नहीं है, एक जागरूक नागरिक के लिए यह जरूरी है.
वेब मीडिया का भविष्य तो है, लेकिन इसके साथ चुनौतियां पैसे को लेकर हैं. हालांकि, मुख्यधारा का मीडिया भी तंगी से जूझ रहा है और इसका एक बड़ा हिस्सा सरकारी विज्ञापनों से चलता है, इसके बावजूद रेवेन्यू का मॉडल उसके पास भी नहीं है.
वेब मीडिया के पास भी अभी सस्टेनेबल रेवेन्यू मॉडल नहीं है, इसलिए इसे पब्लिक फंडिंग की जरूरत होती है. जनता आज जिस तरह अखबार और केबल के पैसे देती है, उसी तरह आनेवाले दिनों में वेब मीडिया से खबरें लेने के लिए उसे पैसे देने होंगे, तभी यह सर्वाइव कर सकेगा.
जनता को यह काम अपनी भलाई के लिए करना ही होगा. अंग्रेजी में एक कहावत है- ‘देयर इज नो फ्री लंच’, क्योंकि जो चीज आपको मुफ्त मिलेगी, वह किसी न किसी दबाव और किसी न किसी रंग में रंग कर ही आपको मुफ्त दी जायेगी, जिसका असर बहुत भयानक हो सकता है. यह चीज आज हम देख भी रहे हैं. इसलिए जनता अगर खुद की भलाई चाहती है, तो उसे हर चीज खरीदने की तरह खबरों को भी खरीदना पड़ेगा. आखिर वह अखबार और केबल के पैसे देता है न? तो फिर वेब मीडिया के लिए क्यों नहीं दे सकता?
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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