मैं एक बलुआ प्रस्तर : आठवीं किस्त – उषा किरण खान
इस साम्राज्यवाद के जन्म के साथ हमारी माताओं और बहनों का अवमूल्यन तेजी से होने लगा. पुरुष की इच्छा पर है. वह जो चाहे करे, वह युवती स्त्री को छोड़ कर संन्यास ले ले. उसकी इच्छा का कोई मोल नहीं. किसी विवाहित स्त्री को, शिशु को छोड़ कर संन्यास हो जाने का उदाहरण तो नहीं सुना. सिद्धार्थ गौतम ने अपनी युवती पत्नी सद्य: प्रसूता को बिना उससे विचार किये छोड़ दिया. स्वयं बुद्ध हो गये.”यह सामाजिक व्यवस्था थी गुरुवर!” समाज मनुष्य बनाता है, यह क्या मानवीय व्यवस्था थी ?”
”गौतम बुद्ध बन गये. विश्वधर्म की स्थापना की.”
”उसी समय नगर वधू पुष्पगंधा थी, अंबपाली थी. वे क्या स्त्रियां नहीं थी ?” सचमुच वे सर्वश्रेष्ठ रूपवति, गुणवती किशोरी थीं जिन्हें परिवार का सुख न मिला. यदि स्त्री के लिए घर आश्रम विहित था, यदि संतानवती होना गति था तब क्यों नहीं उन्हें वह जीवन मिला ? क्यों गणाध्यक्ष द्वारा उन्हें सार्वजनिक घोषित कर दिया गया ?
यह स्त्री की भावनाओं का उनके स्त्रीत्व का अवमूल्यन है. छठी सदी बीसी आते-आते स्त्रियां दुख भूलने के लिए सोने हीरे के आभूषण गढ़वाने लगीं. पत्थर, वृक्ष, जल-थल की पूजा करने लगीं. कुछ वैदिक कुछ पौराणिक कुछ टुटपुंजिया साधुओं श्रमणों के कहे देव-देवी पूजने लगीं. यह सब कुंठा ही तो थी. थेरी गाथाओं में दिव्यावदान में किसी कृषक स्त्री का प्रवेश नहीं दिखता. कारण क्या था कारण यही था कि उनको शृंगार कर किसी को रिझा कर बांधने की जरूर नहीं थी. वे तब भी बंधन-मुक्त थीं. बंधन में उच्च वर्ग की, उच्च जाति की जो सम्मानित कही जाती थीं वे ही थीं. यह विचारणीय है कि साधु संत, उपदेशक अवतारों की शरण में कृषक स्त्रियां क्यों नहीं गयी कभी ?
”आपने मेरी आंखे खोल दी गुरुवर ? साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ गयी स्त्रियां. शत्रुओं को परास्त करने के लिए सुना है विषकन्या बना दी जाती है. उनका स्वयं का जीवन कितना दुखद और भयावह है ? स्त्री क्या प्रत्येक प्रकार के प्रयोग की समिधा है ? यह मुझे विचलित करता है.”
”ठीक कह रहे हो भुवन, ऐसे राज्य को किस प्रकार कल्याणकारी राज्य कहा जा सकता है ?”
”प्रभु स्वयं गौतम बुद्ध ने स्त्रियों को बुद्ध बनने के बाद भी दोयम दर्ज का माना.”
”हां, बहुश्रुत कथा है कि आम्रपाली ने भगवान हो चुके बुद्ध को जब अपने यहां भोजन पर आमंत्रित किया और उनके संघ के समक्ष प्रस्तुत हुई तब उन्होंने न सिर्फ अपनी आंखें मूंल दी बल्कि शिष्यों से भी आंखें मूंद लेने को कहा. आम्रपाली ने कारण जानना चाहा तब उन्होंने उत्तर दिया-तुम्हारे सौंदर्य के ताप को सह न पायेंगे. आम्रपाली ने उनसे तर्क किया.”
”प्रभु स्त्री के सौंदर्य से भय कि अपने आप से भय ? परिव्राजक होना इतना आवश्यक क्यों था कि माताओं का अपमान करने की स्थिति उत्पन्न होती है.”
”कालक्षेप से बुद्ध ने स्त्रियों को संघ में आने की अनुमति दी. वे भी परिव्राजिका हुई. उनकी माता, पत्नी और आम्रपाली, सुजाता सभी थेरी हुई. थेरी गाथाओं में इनके उद्गार सीधी सादी तुकवंदियों में मिलती है पर है बड़ी मर्मस्पर्शी. सुनोगे ?”
”सुनूंगा प्रभु.”
तो सुनो-आम्रपाली की एक कविता-
गहरे घने जंगल में
कोयल की कूक की तरह
मेरी मीठी आवाज में
उम्र के साथ दरारें पड़ चुकी हैं
झुर्रियों से भरी मेरी काया
अबकमनीय नहीं रहीं
देह की सच्चाई बदल चुकी है
मायावी वस्तुओं के इस ढेर को
एक दिन भरमरा कर गिरना ही था
मुझे तलाश है उसकी
जो क्षण भंगुरता से परे है
मुझे उस सत्य की तरफ ले चले तथागत
आम्रपाली एक ग्रामीण षोडषी थी जब नगरवधू के लिए चुनी गयी. उसके एक पदक्षेप पर गणाधिपतियों के मुकुट भूलंठित होते थे. वह एक गर्वोन्नत रूपसी थी. आयु विहीन होने पर रूपजीवाओं की यही तो नियति है. उसे सौंदर्यहीन होना स्वीकार नहीं होता. अत: तथागत की शरण में शांति पानी चाहती थी जहां शरीर को नहीं आत्मा के सौंदर्य की परख होती.”
”गुरुवर, आम्रपाली के सौंदर्य को हम उकेर सकते हैं, चंवर-वाहिनी की मूर्ति में.”
”तनिक रुको पुत्र ? सुजाता को क्यों भूल जाते हो जो कारक बनी बुद्धत्व की ? जिसने वृक्ष देवता समझ खीर खाने को दिया ?”
”गुरुवर, सुना सुजाता एक बड़े सेठ की पुत्रवधू थी जो बेहद सनकी और झगड़ालू थी: उसने तपस्वी को ही साक्षात वृक्षदेव समझ लिया और पहली बार बुधत्व का दर्शन किया.” क्रमश: