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खोरठा के ‘माणिक’!… शिवनाथ प्रमाणिक

दीपक सवाल मांय-माटी एवं भाषा-संस्कृति के ‘वास्तविक चिंतकों’ में एक प्रमुख नाम है शिवनाथ प्रमाणिक ‘माणिक’. यूं तो इनकी मूल पहचान खोरठा के कवि-साहित्यकार के रूप में है. लेकिन, खोरठा भाषा के उन्नयन के साथ-साथ संपूर्ण मानव समाज के प्रति इनकी चिंता ने इनके नाम को अधिक ऊंचाई दिया है. यकीनन, यही कारण रहा है […]

दीपक सवाल

मांय-माटी एवं भाषा-संस्कृति के ‘वास्तविक चिंतकों’ में एक प्रमुख नाम है शिवनाथ प्रमाणिक ‘माणिक’. यूं तो इनकी मूल पहचान खोरठा के कवि-साहित्यकार के रूप में है. लेकिन, खोरठा भाषा के उन्नयन के साथ-साथ संपूर्ण मानव समाज के प्रति इनकी चिंता ने इनके नाम को अधिक ऊंचाई दिया है. यकीनन, यही कारण रहा है कि समाज से लेकर सरकार तक ने इन्हें मान-सम्मान देने एवं इनकी योग्यता-अावश्यकता को स्वीकारने में कभी कोई संकोच नहीं किया है.

यूं देखें तो, खोरठा भाषा-साहित्य आंदोलन की कमान जब-तक डॉ एके झा के हाथों में रही, इसकी मजबूती को लेकर सब आश्वस्त रहे. हालांकि, अलग-अलग कालखंड में इसकी बागडोर खोरठा के अन्य भाषा विद्वानों ने भी संभाली. लेकिन, एके झा के समय में खोरठा भाषा को एक नयी ऊंचाई मिली.

इनकी भाषा विद्वता के सब कायल थे और वे सर्वमान्य भी थे. यही वजह थी कि 29 सितंबर 2013 को उनके निधन के साथ ही खोरठा भाषा आंदोलन का नेतृत्व किन हाथों में होगा, यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल बनकर उभरा था. तब हर किसी की नजर जिस शख्सियत पर गयी, वे शिवनाथ प्रमाणिक ‘माणिक’ ही थे.

खोरठा साहित्य जगत में श्रीनिवास पानुरी एवं एके झा की तरह ही शिवनाथ प्रमाणिक भी काफी स्थापित नाम हैं. बल्कि, यह कहना उपयुक्त होगा कि खोरठा भाषा-साहित्य के क्षेत्र में एके झा के बाद शिवनाथजी का ही नाम लिया जाता है. निश्चय ही, यही कारण रहा कि समूचे खोरठा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली एवं खोरठा-साहित्य व संस्कृति के विकास के लिए 30 वर्षों से कार्यरत-संघर्षरत संस्था ‘खोरठा साहित्य-संस्कृति परिषद्’ के निदेशक (नेतृत्व) की जिम्मेदारी डॉ झा के गुजरने के बाद शिवनाथ प्रमाणिक को ही मिली.

इससे पूर्व वे इसके उपनिदेशक थे. बतौर निदेशक एवं उपनिदेशक वे अपनी जिम्मेदारियों को कितना उठा सके, यह चर्चा का अलग विषय हो सकता है. लेकिन, एक साहित्यकार, मानववादी कवि व भाषा चिंतक के रूप में वे खोरठा जगत के लिए एक मील का पत्थर साबित हुए हैं.

डॉ रामदयाल मुंडा, डॉ एके झा, बीपी केसरी, एके रॉय व शिबू सोरेन को अपना प्रेरणास्रोत मानने वा ले शिवनाथजी को खोरठा के सिद्धहस्त जनवादी कवि, रचनाकार, साहित्यकार एवं प्र खर वक्ता के रूप में जाना जाता है.

हिंदी में भी इनकी अच्छी पैठ है. साथ ही, बांग्ला, उर्दू व संस्कृत का भी खासा ज्ञान है. खोरठा साहित्य व संस्कृति का अलाव जगाने में इनकी अहम् भूमिका रही है. इन्होंने खोरठा साहित्य की समृद्धि के लिए विभिन्न विधाओं में अनेक पुस्तकें भी लिखीं. पिछले कई दशक से जनवादी तेवर के साथ रचनाकर्म को बड़े ही कुशल कारीगर की तरह निभाते रहे हैं.

शिवनाथजी का जन्म 23 जनवरी 1950 को बोकारो शहर से सटे बैदमारा गांव में हुआ.

इनका आरंभिक जीवन काफी कठिनाई भरा रहा. चूंकि, लेखन में रुचि बचपन से थी, सो कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया. इनकी कविता, लेख, लघुकथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगा. लेकिन, तब हिंदी में ही लिखा करते थे. 1984 में ‘खोरठा मागधी की मुहबोली’ शीर्षक से इनका एक लेख धनबाद से प्रकाशित एक दैनिक अखबार में छपा. इसे पढ़कर एके झा इनसे काफी प्रभावित हुए.

वे खुद इनसे मिले और खोरठा लेखन के लिए इन्हें प्रेरित किया. फिर तो शिवनाथजी खोरठा लेखन के क्षेत्र में ऐसा जुड़े, कि इस भाषा के उन्नयन के लिए पूरी तरह से समर्पित ही हो गये. इनके ही विशेष प्रयास से 1984 में ‘बोकारो खोरठा कमिटी’ तथा 1993 में ‘खोरठा साहित्य-संस्कृति परिषद्’ का गठन हुआ.

खोरठा सम्मेलनों की शुरुआत करने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है. 1984 में अपने पैतृक गांव बैदमारा में पहला खोरठा सम्मलेन का आयोजन किया. आकाशवाणी रांची से खोरठा का पहला स्वरचित गीत इनका ही प्रसारित हुआ था.

इनकी पहली पुस्तक ‘रुसल पुटुस’ 1985 में प्रकाशित हुई. 1987 में मौलिक प्रबंध काव्य ‘दामुदरेक कोराय’ प्रकाशित हुआ. 1998 में इनका चर्चित खोरठा काव्य संकलन ‘तातल आर हेमाल’ छपा. 2004 में इनकी एक और पुस्तक सामने आयी – ‘खोरठा लोक साहित्य’. इसका मूल आलेख तो हिंदी में है, लेकिन खोरठा लोक गीत, लोककथा पर इसमें काफी अच्छा खोजपूर्ण लेख है. यह पुस्तक सिविल सेवा की तैयारी करने वाले प्रतियोगी छात्रों के लिए भी काफी उपयोगी साबित हुई है.

2012 में प्रकाशित खोरठा का प्रथम मौलिक महाकाव्य ‘मइच्छगंधा’ से भी इन्हें काफी ख्याति मिली. ‘खोरठा लोक कथा’, ‘खोरठा गइद पइद संगरह’ और ‘बेलंदरी’ जैसी पुस्तकों के संपादन में भी इनकी मुख्य भूमिका रही. खोरठा के मुखपत्र ‘तितकी’ के सलाहकार संपादक भी हैं. श्री मानिक पर्यटन प्रेमी भी है.

देश के महत्वपूर्ण क्षेत्रों का भ्रमण कर चुके हैं. इनकी हिमालय यात्रा भी चर्चित थी. इन यात्राओं पर इनकी एक पुस्तिका (माटी के रंग) भी प्रकाशित हुई है. इन्हें खोरठा के प्रथम गजलगो के रूप में भी जाना जाता है.

भाषा साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए इन्हें जगह-जगह सम्मानित होने का मौका भी मिला. जमशेदपुर की साहित्यिक संस्था ‘काव्यलोक’ ने ‘काव्य भूषण’ से नवाजा. चतरा की संस्था ‘परिवर्तन’ ने ‘परिवर्तन बिसेस’ तथा ‘अखिल झारखंड खोरठा परिषद्’ (भेंडरा) ने ‘सपूत सम्मान’ से सम्मानित किया. 2007 में झारखंड सरकार के खेलकूद व संस्कृति विभाग तथा 2008 में शिक्षा मंत्री से सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं.

खास बात यह भी रही है कि शिवनाथजी ने बोकारो स्टील प्लांट के राजभाषा विभाग में नौकरी करते हुए भी खोरठा भाषा, साहित्य व संस्कृति अांदोलन में अगुवा की भूमिका पूरी कुशलता से निभायी और पूर्ण समर्पित भी रहे. अब वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं. उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं.

लेकिन, उनकी सक्रियता कम नहीं हुई है. वही जोश और उत्साह आज भी देखने को मिलता है. वे जेपीएससी, जेएसएससी, जैक, जेटेट समेत अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी अपने ‘खोरठा कुटीर’ में निःशुल्क कराते हैं. (शिवनाथजी ने अपने आवास का नाम खोरठा कुटीर दिया है) इनके अनेक विद्यार्थी सफलता अर्जित कर ऊंचे पदों पर आसीन हो चुके हैं.

शिवनाथजी का मानना है कि ‘मांय-माटी व मातृभाषा का सबको अभिमान होना चाहिए. इसके बिना किसी की कोई पहचान नहीं हो सकती है’. उन्होंने अपने काव्य में लिखा भी है कि-

‘मांय-माटीक मानुसेक हिते

जोदी जियो मोरो काम करें हें

खांटी मानुसेक जीव तोर पासे

खांटी मानुसेक काम करें हें’.

इनका यह भी मानना है कि ‘जो व्यक्ति मांय-माटी का सम्मान नहीं कर सकता, वह अपनी मातृभाषा का सम्मान नहीं कर सकता. और जो इन तीनों चीजों का सम्मान नहीं कर सकता, वह मानुस (मनुष्य) का सम्मान नहीं कर सकता’. इनका मानना है कि ‘सबों को अपने भाषा-साहित्य के विकास के लिए सोचने की जरूरत है. क्योंकि, साहित्य के सृजन से ही समाज को सही राह मिल सकती है’.

वे कहते हैं- ‘किसी भी प्रकार के साहित्य का मतलब होता है समाज का हित. लेखक व साहित्य में अंतर है. लेखक समाज का दर्पण होता है. वह समाज को आईना दिखाता है. लेकिन, साहित्य आईना के साथ-साथ रास्ता भी दिखाता है’.

श्री प्रमाणिक साहित्य, संस्कृति व मातृभाषा पर मंडराते खतरों से भी चिंतित हैं. कहते हैं- ‘विचार, आचार, संस्कार व त्योहार, इन चारों से संस्कृति बनती है.

हर मामले में चारों में समानता होनी चाहिए, वरना वह संस्कृति न होकर, विकृति बन जायेगी’. लेकिन आज लोग मौलिक संस्कृति को भूल रहे हैं. इसके चलते भाषा-संस्कृति सब चौपट हो रही है. इस पर गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत है’.

शिवनाथजी अंधविश्वास के भी घोर विरोधी रहे हैं. उनकी रचनाओं में भी यह खूब झलकती है. उन्होंने अपने एक काव्य में बहुत बेबाक तरीके से लिखा है कि-

‘पोंगापंथी विचार के अब मरे चाही

जिनगिक गाछ ले पुरना पतई झड़े चाही

कते दिन से लटकल हइ गर्दने गाली

बिलाय के मड़रा तरे अब तो बदलेक चाही…’

शिवनाथजी मानते हैं कि खोरठा साहित्यकारों को लेखन की गति एवं साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ाने की जरूरत है. साथ ही, नये रचनाकारों, साहित्यकारों को भी बढ़ावा मिलना चाहिए.

Prabhat Khabar Digital Desk
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