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नयी पीढ़ी की जिम्मेदारी है वह पुराने को इग्नोर न करे
अवधेश प्रीत बिहार के उन विरल कथाकारों में से हैं, जिन्होंने कम लिखा, मगर महत्वपूर्ण लिखा. अपने समय की विडंबनाओं पर उन्होंने लगातार कलम चलायी है. इसी साल पटना के छात्र जीवन और राजनीति पर केंद्रित उनका एक महत्वपूर्ण उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ प्रकाशित हुआ है. पत्रकारिता का व्यस्त जीवन जीते हुए उन्होंने हिंदी साहित्य की […]
अवधेश प्रीत बिहार के उन विरल कथाकारों में से हैं, जिन्होंने कम लिखा, मगर महत्वपूर्ण लिखा. अपने समय की विडंबनाओं पर उन्होंने लगातार कलम चलायी है. इसी साल पटना के छात्र जीवन और राजनीति पर केंद्रित उनका एक महत्वपूर्ण उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ प्रकाशित हुआ है. पत्रकारिता का व्यस्त जीवन जीते हुए उन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा की है. हाल ही में उनसे हमारी विस्तृत बातचीत हुई. पेश है, इस बातचीत के प्रमुख अंश.
Q आपका जन्म यूपी के गाजीपुर में हुआ, पढ़ाई कुमाऊं विवि से, फिर पटना कैसे आये, साहित्य की शुरुआत कैसे हुई?
पटना में हमारे एक करीबी रिश्तेदार रहते थे, उनके घर आना-जाना रहता है. उन दिनों यहां का साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल काफी उर्वर था, इसलिए यहां मन भी लगता था. संयोग से जब मैं नौकरी की तलाश में था, यहां से एक अखबार शुरू हो रहा था. वहां मुझे नौकरी मिल गयी. नौकरी ठीक-ठाक थी. इस वजह से यहीं रह गया. पटना शहर में आजीविका भी मिल गयी और साहित्यिक रचना की संतुष्टि भी.
इसलिए आज अवकाश प्राप्त करके भी इसी शहर में हूं. जहां तक साहित्यिक लेखन का सवाल है, तो उसकी बड़ी वजह यह रही कि मेरे घर में पढ़ने का माहौल था. साहित्यिक किताबें और पत्र-पत्रिकाएं आती थीं. ऐसे में मुझे भी पढ़ने का शौक हो गया. आठवीं कक्षा में पहली दफा एक छोटे से स्किट (लघु नाटक) की रचना की. संयोग से उस स्किट का मंचन भी स्कूल में हुआ. फिर एक दफा गांव में एक प्रसंग को लिख डाला, दुर्भाग्य से लोगों ने उस संस्मरण को पढ़ भी लिया और उसको लेकर काफी बवाल हो गया. इससे लगा कि लिखना एक ताकतवर काम है. 1974 के आंदोलन के दौरान राजनीतिक के साथ-साथ साहित्यिक सांस्कृतिक उबाल का भी दौर था. उसने भी लिखने के लिए प्रेरित किया. फिर कृतियां छपने भी लगीं. और कॉलेज में लिखना एक जिम्मेदारी बन गयी.
Q आप खुद को मूलतः साहित्यकार मानते हैं या पत्रकार?
मैं बहुत शुरू से लिख-पढ़ रहा हूं. पत्रकारिता में आने से पहले मेरी रचनाएं स्थानीय पत्रिकाओं में छपने लगी थीं. एक वक्त के बाद मैंने सोचा था कि मैं लिखना-पढ़ना ही जानता हूं. इसलिए या तो प्राध्यापक बन सकता हूं या पत्रकारिता कर सकता हूं. संयोग से पत्रकारिता की दुनिया में ठीक-ठाक नौकरी मिल गयी. लेखन तो मेरी घुट्टी में शामिल था इसलिए वह भी साथ चलता रहा. हालांकि यह बात भी सही है कि पत्रकारिता में बहुत सारे रचनात्मक लेखक आये, मगर वे साहित्य को आगे नहीं बढ़ा पाये. क्योंकि यह दोधारी तलवार की तरह होता है, इसे साधना आसान नहीं होता.
Q अपने वक्त की तमाम तरह की सूचनाओं से भरा पत्रकार का दिमाग जब साहित्य लिखता है, तो क्या उस साहित्य के एक लंबी रपट बनकर रह जाने का खतरा नहीं रहता.
पत्रकारिता एक काम जरूर करती है. वह पत्रकारों को बुनियादी घटनाओं की सूचना काफी क्रूर तरीके से उपलब्ध कराती है. ऐसी खबरें उसके सामने रोज आती हैं, लिहाजा इनकी संख्या हजारों, लाखों में होती है. मगर जब वह साहित्यिक रचना करता है तो वह उनमें से किसी एक को चुनता है. उसे इनमें से अपनी साहित्यिक कृति के लिए रचनात्मक चुनाव करना पड़ता है. इसका चयन आसान नहीं होता है. इसके लिये भी काफी सावधानी और सतर्कता की जरूरत होती है.
Q कथालेखन में लंबी अवधि गुजारने के बाद आपने अपना पहला उपन्यास लिखा है, इसकी वजह क्या रही?
जब किसी कथा का कैनवास इतना बड़ा हो कि उसे आपको उपन्यास का रूप देना पड़े, तभी आप उपन्यास लिखते हैं. मेरे मामले में भी जब उपन्यास लिखने का दबाव आया, तब मैंने इसकी रचना की. दरअसल कथ्य का दबाव ही आकार को तय करता है. हालांकि इसकी एक वजह पत्रकारिता के जीवन की व्यस्तता भी है. इस व्यस्तता के दौर में कभी इतना वक्त नहीं मिला कि कोई लंबा काम कर सकूं. इस उपन्यास को लिखने में भी दस-बारह साल का वक्त लग गया. हां, इस बीच कहानियां लगातार लिखता रहा.
Q इन दिनों नयी वाली हिंदी का दौर है, कॉलेज-कैंपस लाइफ की लव स्टोरीज पर लिखी गयी कहानियों को सामान्य पाठक खूब पसंद कर रहे हैं, यह साहित्य के लिए शुभ है या अशुभ?
मेरे हिसाब से नयी वाली हिंदी का संदर्भ इसके कथ्य की वजह से नहीं है. क्योंकि प्यार, मुहब्बत और छात्र जीवन पर हमेशा से लिखा जाता रहा है. गली आगे मुड़ती है, टोपी शुक्ला और अपना मोरचा जैसी किताबें लिखी गयी हैं. गुनाहों का देवता से ज्यादा लोकप्रिय कोई प्रेम आधारित उपन्यास हो सकता है क्या. इसलिए यह कथ्य की वजह से नयी हिंदी नहीं है, इसकी पहचान इसके भाषिक प्रयोग की वजह से है.
इसमें बोलचाल की भाषा के नाम पर नये प्रयोग किये गये हैं. मगर साहित्य सिर्फ बोलचाल की भाषा का नाम नहीं है. उसका एक साहित्यिक मूल्य है, उसकी अपनी गरिमा भी है. कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी जैसे लेखकों ने भी अपने समय में सहज हिंदी में रचनाएं लिखीं.
मगर सहज भाषा तभी महत्वपूर्ण है जब वह भाषा को समृद्ध करती हो. अगर प्रयोग के नाम पर थोपी गयी भाषा का इस्तेमाल होने लगे. अंग्रेजी के शब्दों को रोमन में इस्तेमाल किया जाये तो क्या आप उसे नयी हिंदी कह सकते हैं?
Q इन दिनों बेस्ट सेलर, किंडल, लप्रेक, ई-बुक, लिट-फेस्ट जैसी कई नयी शब्दावलियां हिंदी साहित्य की पारंपरिक दुनिया में घुसपैठ कर उसमें आमूल-चूल परिवर्तन करने में जुटी हैं, इन परिस्थितियों में पुराने साहित्यकार खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं?
बदलाव को स्वीकार करना चाहिए. अखबारों की दुनिया में भी पहली बार जब कंप्यूटर शामिल हुआ तो बहुत लोगों को नागवार गुजरा. मगर जिन्होंने उस वक्त इस तकनीक को सीख लिया, वे प्रासंगिक बने रहे. आपको बदलावों को समझना और स्वीकार करना होगा, लेकिन विवेक के साथ. बदलती तकनीक को सहजता से स्वीकार करना चाहिए. क्योंकि नयी तकनीक तो आयेगी ही. लिटरेचर फेस्टिवल से भी मेरा कोई विरोध नहीं है. साहित्य के नाम पर अगर कहीं किसी भी तरह का आयोजन होता है, तो आखिरकार वह साहित्य को ही समृद्ध करता है. बशर्ते इन उत्सवों में साहित्यकार ही बुलाये जाएं. फिल्मी दुनिया के मशहूर सितारों को बुलाने से साहित्य का क्या भला होगा. जहां तक लप्रेक का आपने जिक्र किया है. ये स्कूल-कॉलेज के दिनों की प्रेम कथाएं हैं, जिन्हें सिलेब्रिटी लेखकों ने लिखा हैं, इसलिए इन्हें बाजार भी मिला है. लेकिन मेरा मानना है कि कोई भी विधा लंबे समय में ही अपना अस्तित्व साबित करती है. इसलिए इसे वक्त देना चाहिए.
हां, ऐसा कतई नहीं है कि पुराने लेखक के सामने पहचान का संकट है. अब क्या श्रीलाल शुक्ल फिर से अपनी पहचान बनाने आयेंगे. यह नयी पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि वह कुछ गढ़ने से पहले अतीत को जाने. आप पुराने लेखकों को इग्नोर करके चल नहीं सकते. मैं माओत्से तुंग की इस सलाह से सहमत हूं कि हजारों फूलों को खिलने दो, हजारों विचारों को मिलने दो. ऐसे बदलाव हर युग मे हुए हैं. मैं बदलाव को स्वीकार करता हूं. इस बदलाव में जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह सोशल मीडिया सा स्फोट(वेग से बाहर आना) है. खास कर महिलाओं ने इस माध्यम का जैसा इस्तेमाल किया है और कर रही हैं, वह रेखांकित करने योग्य है. भले यहां कच्ची-पक्की जैसी भी सामग्री आ रही है, मगर उसके पीछे जो आवेग हैं, संवेदनशीलता है, वह महसूस करने लायक है.
Q इन दिनों दक्षिण एशिया में साहित्यकार कट्टरपंथी ताकतों के निशाने पर हैं. चाहे बांग्लादेश में ब्लागरों की हत्या का मसला हो या दक्षिण भारतीय लेखकों को निशाने पर लिया जाना, मगर हिंदी लेखकों पर उस तरह के हमले नहीं हुए.
यह सही बात है कि हिंदी में थोड़ी सुविधाजनक रास्तों से बच कर निकल जाने की प्रवृत्ति है. लेकिन ऐसा नहीं है कि हिंदी में कठमुल्लापन और तानाशाही का विरोध नहीं हो रहा हो. यहां भी कई दफा असहिष्णुता उभर कर आयी है. प्रतिक्रियावादी ताकतों ने हिंदी लेखकों का विरोध किया. यह विरोध उस स्तर पर नहीं हो ऐसा हो सकता है. मगर आज के माहौल में लेखकों को बड़ी भूमिका अदा करनी है.
Q आपकी आगामी योजनाएं?
हाल ही में प्रभात खबर के दीपावली विशेषांक में मेरी एक कथा आयी है, पहल पत्रिका में आने वाली है. कुछ कहानियों और एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं. इस उपन्यास का नाम है, पोखरण में पखावज. पोखरण विस्फोट की पृष्ठभूमि में लिखे जा रहे इस उपन्यास का पहला ड्राफ्ट तैयार हो चुका है. हमारी सांस्कृतिक शक्तियां कैसे परमाणु शक्तियों से टकराती हैं, इसी को केंद्र में रख कर यह उपन्यास लिखा जा रहा है.
बातचीत-पुष्यमित्र
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