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उच्च शिक्षा और आदर्श राज्य की संकल्पना

नयन सोरेन रिसर्च स्कॉलर, इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान, मुंबई आर्थिक वृद्धि और विकास की स्थिति समसामयिक राजव्यवस्था में राज्य की प्रगति का पैमाना माना जाता रहा है. यह सवाल लाजिमी ही है कि क्या आंकड़ों के पीछे की भी कुछ कहानी हो सकती है? इस सवाल पर नोबल विजेता अर्थाश्स्त्री पॉल रोमर कहते हैं […]

नयन सोरेन
रिसर्च स्कॉलर, इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान, मुंबई
आर्थिक वृद्धि और विकास की स्थिति समसामयिक राजव्यवस्था में राज्य की प्रगति का पैमाना माना जाता रहा है. यह सवाल लाजिमी ही है कि क्या आंकड़ों के पीछे की भी कुछ कहानी हो सकती है? इस सवाल पर नोबल विजेता अर्थाश्स्त्री पॉल रोमर कहते हैं कि आर्थिक वृद्धि खाना पकाने से ज्यादा बेहतर रेसिपी का परिणाम है. उनके तर्क से स्पष्ट है कि वे तरीकों की अपेक्षा विचारों की बात करते हैं.
आज के समय में विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और समतुल्य संस्थान इन विचारों के केंद्रबिंदु हैं और आधुनिक शिक्षा के ये केंद्र नयी पीढ़ी के निर्माण के लिए भी उत्तरदायी हैं. किसी राज्य की उन्नति का रास्ता प्रशस्त करने में ऐसे ही संस्थान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य की परिकल्पना में ऐसे ही उच्च शिक्षा के संस्थानों के होने की बात कही थी, जो सामाजिक न्याय को बढ़ाने में अपना योगदान करें.
उनका यह भी मानना था कि राज्य सत्ता इस तरह के शिक्षण संस्थानों के निर्माण और संचालन के लिए उत्तरदायी हों. वर्तमान समय में उच्च शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य अपने विषयों में पारंगत लोगों को कुशल मानव संसाधनों में परिणत करना है. इस संदर्भ में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है. इसी संदर्भ में हम उच्च शिक्षा की वास्तविक स्थिति और गुणवत्ता से संबंधित झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं.
राज्य गठन के वक्त बंटवारे के बाद कुछ बड़े उच्च शिक्षा के संस्थान राज्य के हिस्से में आये थे. राज्य गठन के बाद मुख्य रूप से भारतीय प्रबंध संस्थान, राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी संस्थान और राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की स्थापना झारखंड में हुई, लेकिन सिर्फ कुछ बड़े शिक्षण संस्थानों की उपस्थिति गुणवत्ता की वस्तुस्थिति को दर्शाने के लिए नाकाफी है. शिक्षा की गुणवत्ता को मापने के लिए आमतौर पर शिक्षक-छात्र अनुपात की गणना की जाती है और शिक्षण संस्थानों की उपलब्धता के सूचकांक उच्च शिक्षा की वास्तविक स्थिति को समझा जा सकता है.
अगर प्रति लाख युवा जनसंख्या (18-23 आयु वर्ग) पर महाविद्यालयों की संख्या पर गौर करें तो इस मामले में झारखंड राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है और पिछले छह वर्षों में इसमें मामूली सुधार आया है. महाविद्यालयों की उपलब्धता छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड दोनों राज्यों में बेहतर है, हालांकि छत्तीसगढ़ औसत से थोड़ा सा ही पीछे है. महाविद्यालयों की उपलब्धता का असर औसत नामांकन दर के आंकड़ों में नजर आता है, जो तीन राज्यों में से झारखंड में सबसे ज्यादा है.
प्रति लाख युवा जनसख्या पर महाविद्यालयों की संख्या झारखंड में राष्ट्रीय औसत 25 की तुलना में 10 से भी कम है. इसका सीधा सा अर्थ यही है कि झारखंड में प्रति महाविद्यालय अधिक छात्र नामांकन लेते हैं, जिससे महाविद्यालय पर छात्रों का दबाव ज्यादा है.
पिछले आठ वर्षों के आंकड़ों के आधार पर झारखंड ना सिर्फ अपने समकक्ष नये राज्यों, बल्कि राष्ट्रीय अनुपात से भी कोसों दूर नजर आता है. छात्र-शिक्षक अनुपात के आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं. राष्ट्रीय अनुपात में मामूली बढ़ोत्तरी हुई है और साथ में छत्तीसगढ़ के अनुपात में भी वृद्धि हुई है, लेकिन झारखंड में अनुपात 40 से बढ़कर 56 होना थोड़ा चिंताजनक है.
छात्र-शिक्षक अनुपात का बढ़ना इस बात का संकेत है कि एक शिक्षक अब पहले से ज्यादा छात्रों की शिक्षा के लिए उत्तरदायी है. इन तीन राज्यों में उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है, जहां छात्र शिक्षक अनुपात घटा है, जिसका मतलब हर शिक्षक के जिम्मे अब पहले से कम छात्र हैं.
बेहतर मौके की उम्मीद में पिछले कुछ वर्षों से उच्च शिक्षा के प्रति रुझान बढ़ा है.
पिछले आठ वर्षों में झारखंड में सकल नामांकन अनुपात में दोगुनी से ज्यादा वृद्धि दर्ज की गयी है. इस सूचकांक में भी उत्तराखंड के आंकड़े बेहतर हैं, पर छत्तीसगढ़ और झारखंड राष्ट्रीय औसत से फिलहाल काफी पीछे हैं. स्पष्ट है कि अन्य राज्यों की अपेक्षा झारखंड में उच्च शिक्षा की मांग बढ़ी है, पर शैक्षणिक संस्थानों की वर्तमान स्थिति इसकी गुणवत्ता पर कई सवाल करती है.
शिक्षा को 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से समवर्ती सूची में डाल दिया गया है. इसका मतलब है कि शिक्षा के विकास के संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारें दोनों ही उत्तरदायी हैं. संघीय ढांचा होने की वजह से राज्य सरकारों पर ही कार्यान्वयन की ज्यादा जिम्मेदारी रहती है. सरकारों का शिक्षा के लिए न्यूनतम खर्च करना भी उच्च शिक्षा के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है, क्योंकि उच्च शिक्षा किसी भी अधिनियम के तहत अनिवार्य शिक्षा के दायरे में नहीं आती. निजी क्षेत्र का उच्च शिक्षा में निवेश स्वागत योग्य कदम है, पर बाजार आधारित शिक्षा व्यवस्था में आय के आधार पर निम्न स्तर वाले शिक्षा से महरूम हो जाते हैं.

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