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मेरी कहानी की बधाई देने दिनकर के घर चले गये थे रेणु

रामधारी सिंह दिवाकर हाल ही में बिहार के जानेमाने कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर को श्रीलाल शुक्ल सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है. हिंदी साहित्य के इस महत्वपूर्ण पुरस्कार की घोषणा होते ही उन्हें पूरे देश से साहित्यकारों की शुभकामनाएं मिलने लगी हैं. रेणु के अंचल से आने वाले और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के […]

रामधारी सिंह दिवाकर
हाल ही में बिहार के जानेमाने कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर को श्रीलाल शुक्ल सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है. हिंदी साहित्य के इस महत्वपूर्ण पुरस्कार की घोषणा होते ही उन्हें पूरे देश से साहित्यकारों की शुभकामनाएं मिलने लगी हैं. रेणु के अंचल से आने वाले और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के प्राय: हमनाम दिवाकर के लिए यह खबर खुद किसी आश्चर्य से कम नहीं है. अब तक वे मानते थे कि ऐसे पुरस्कार जोड़-तोड़ और व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर मिला करते हैं. ऐसे में जब यह संवाददाता उनसे मिलने उनके घर पहुंचा, तो उन्होंने कई मसलों पर खुल कर अपनी राय जाहिर की.
अररिया जिले के नरपतगंज में एक जनवरी, 1945 को जनमे रामधारी सिंह दिवाकर ने हिंदी से एमए और पीएचडी की और मिथिला विवि में पढ़ाने लगे. 2005 में वे प्रोफेसर और हिंदी विभाग के अध्यक्ष के पद से रिटायर हुए. लंबे अरसे तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के अध्यक्ष रहे. फिलहाल पटना में रहते हैं.
प्रमुख रचनाएं
अकाल संध्या, दाखिल खारिज, क्या घर क्या परदेस, काली सुबह का सूरज, आग पानी आकाश और टूटते दायरे उपन्यास हैं. नये गांव में, अलग अलग अपरिचय, बीच से टूटा हुआ, नया घर चढ़े, सरहद के पार, धरातल, माटी पानी, मखान पोखर, वर्णाश्रम, झूठी कहानी का सच आदि कहानी संग्रह हैं. उनकी कहानी शोक पर्व और मखान पोखर पर फिल्में बनी हैं.
Qआपको हिंदी साहित्य का यह महत्वपूर्ण पुरस्कार मिला है, जो धन की दृष्टि से भी सबसे बड़ा पुरस्कार है. इस उपलब्धि को आप किस रूप में देखते हैं?
मेरे लिए यह चकित कर देने वाला समाचार है. इससे पुरस्कारों को लेकर मेरी धारणा खंडित हुई है. अब कैसे, इसे इस कहानी के जरिये सुनिये. बहुत पहले साहित्यकार जानकी वल्लभ शास्त्री को उत्तर प्रदेश का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान मिला था. तब एक पत्रिका के लिए मैं उनका इंटरव्यू लेने पहुंचा था. मैंने उनसे पहला ही सवाल यह पूछा था कि पुरस्कार कैसे मिलते हैं. इस पर उन्होंने कहा कि यह शेर सुनो- ‘बढ़ा कर हाथ जो ले ले, यहां पैमाना उसी का है.’
मतलब आप समझ ही रहे होंगे. मगर मेरे मामले में बिल्कुल उल्टा हुआ. पैमाना खुद चल कर मेरे पास आ गया. मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी. मेरा परिचय का दायरा भी वैसा नहीं है, लोगों से मिलना-जुलना भी कम ही होता है. इस पुरस्कार की ज्यूरी में जो लोग थे, उनमें से किसी से अपना परिचय नहीं था. इसलिए खुशी हुई. अधिक खुशी इस बात की हुई कि आज भी पारखी लोग बचे हैं, जो रचनाओं के आधार पर आपको जज करते हैं. अगर आपके लेखन में कुछ दम है, तो लोग उसे तलाश कर सम्मानित करते हैं. गुणग्राहक अभी जिंदा हैं.
Qआप राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के हमनाम हैं और महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के गांव-जवार के. इन बड़े नामों से आपके जुड़ाव ने आपको लाभ पहुंचाया या नुकसान?
मेरा नाम ‘रामधारी सिंह चौहान’ मेरे दादा ने रखा. हालांकि वे साहित्यिक मिजाज के व्यक्ति नहीं थे. मगर उस जमाने में दिनकर का जलवा था, इसलिए उन्होंने मेरा नाम दिनकर के नाम पर रख दिया. बाद में मैंने चौहान हटा कर दिवाकर कर लिया. लेकिन, दिनकर का हमनाम होने का मुझे लाभ से अधिक नुकसान हुआ. जैसे, मैंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता लिखने से की थी. मेरी कविताएं यहां-वहां छपती भी थीं.
मगर नाम ऐसा था कि अक्सर लोग समझ लेते थे कि दिनकर जी की कविता है. ऐसे में मुझे लगा कि मैं अपनी पहचान ही नहीं बना पाऊंगा. फिर मैंने कविता को छोड़ा और कहानियों को पकड़ लिया. यह सोच कर कि दिनकर कहानी नहीं लिखते हैं. मगर दिनकर के नाम ने यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा. 1973 में धर्मयुग के जुलाई अंक में मेरी पहली कहानी छपी थी, तुलादंड. उस दौर में धर्मयुग पत्रिका का जलवा हुआ करता था. जब फणीश्वरनाथ रेणु जी ने वह कथा पढ़ी और लेखक का नाम देखा, तो वे भी भ्रम में पड़ गये. उन्हें लगा कि दिनकर जी कहानी भी लिखने लगे हैं. वे इतने चकित हुए कि दिनकर को बधाई देने निकल पड़े. उस वक्त दोनों पटना के राजेंद्र नगर में ही रहते थे. जब दिनकर के घर पहुंचे तब उनका ध्यान इस बात पर गया कि यह तो रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी है. तस्वीर भी दिनकर की नहीं है, किसी और युवक की है.
Qकई लोगों ने लिखा है कि आपकी रचनाओं को हिंदी की दुनिया में उस तरह नोटिस नहीं किया गया जिसकी वे हकदार थीं, जबकि आपने मंडलोत्तर काल में आये सामाजिक बदलाव पर कई महत्वपूर्ण कहानियां और उपन्यास लिखे हैं.
ऐसा इसलिए कि मेरा परिचय रेणु की परंपरा के आंचलिक कथाकार के रूप में दिया जाता है और इस ठप्पे की वजह से मुझे इग्नोर किया जाता है. जबकि दोनों ही बातें गलत हैं. न मैं रेणु की परंपरा का हूं और न ही आंचलिक कथाकार हूं. यह सच है कि रेणु जी से मेरे घनिष्ठ संबंध रहे हैं और मेरे साहित्य में सक्रिय होने की बड़ी वजह रेणु जी हैं. मगर परंपरा की बात की जाये, तो मैं खुद को प्रेमचंद के अधिक निकट पाता हूं और मेरी कहानियों का टोन भी आंचलिक नहीं है. दिक्कत यह है कि आजकल लोग पढ़ते कम हैं और लेखकों को उनकी बनी बनायी पहचान के आधार पर जज करते हैं.
Qआपने खुद भी कहा है और हमलोग भी महसूस करते हैं कि मंडल आयोग के लागू होने के बाद जो समाज की जातिगत संरचना में बदलाव आये उसे आपके लेखन ने फोकस किया है. इस बदलाव को आप कितना मुकम्मल पाते हैं?
यह सच है कि मेरी कहानियों का मूल विषय समाज के पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों में पैदा हुई चेतना और राजनीतिक सत्ता पर उनका दावा है. हाशिये के लोग अब केंद्र में आ रहे हैं. सामाजिक संरचना में खलबलाहट हुई है. इसने बिहार के अर्ध सामंती समाज को प्रश्नांकित किया है. इसमें सरकार की सकारात्मक नीतियों की भी बड़ी भूमिका है. पंचायत चुनाव में अत्यंत पिछड़े और दलित वर्ग को आरक्षण दिये जाने और एससी-एसटी एक्ट को कड़ाई से लागू करने से भी इन्हें बल मिला है. मगर यह बदलाव अभी मुकम्मल नहीं है. यह अभी प्रक्रिया में है, इसे मुकाम नहीं मिला है. अगर ऐसा होता, तो दलितों पर अब भी अत्याचार की खबरें नहीं आतीं.
साथ ही एक और बुराई विकसित हुई है. पिछड़े और दलित समाज के जो लोग सफल हुए हैं, उनमें वही सामंती मिजाज विकसित हो गया है, जो पहले सवर्णों में था. वे अपने ही समाज के गरीब तबके के लोगों का शोषण करने लगे हैं.
Qआपने ज्यादातर कहानियों में दलितों-शोषितों की चेतना का वर्णन किया है, क्या दलित लेखन का आंदोलन आपके इस योगदान को स्वीकार करता है?
दलित साहित्य के आंदोलन को मैं पिछले आठ-दस साल से ठहराव की स्थिति में पाता हूं. हालांकि मेरी कुछ कहानियों को लेकर उनका रुख बहुत सकारात्मक नहीं रहा है. वे लोग मुझे दलित चेतना का लेखक नहीं मानते, मुझे सहानुभूति का लेखक कहते हैं. मेरी एक कथा है ‘गांठ’, जो हंस में छपी थी. एक बड़े दलित साहित्यकार ने कहा कि यह कथा आधी ही दलित चेतना की है, आधी नहीं है. अब बताइए इस टिप्पणी को क्या समझा जाये.
Qअभी जो साहित्य लिखा जा रहा है उसे आप किस रूप में देखते हैं?
इन दिनों मुद्रित साहित्य के समानांतर इंटरनेट की दुनिया विकसित हो गयी है. युवा वर्ग के पास छपी हुई रचनाओं को पढ़ने का वक्त नहीं है, वे नेट पर उपलब्ध रचनाओं से काम चला लेते हैं. मगर वहां जो रचनाएं हैं, उनमें गंभीरता की साफ कमी दिखती है. हल्केपन का युग आ गया है. ऐसा लगता है कि साहित्य का मजाक बनाया जा रहा है. हालांकि युवाओं में 15-20 लेखक ऐसे हैं, जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं. मगर उनमें हड़बड़ी बहुत है. वे जमीनी सच्चाई और गहराई में जाना नहीं चाहते.
Qआपकी आगामी योजनाएं क्या हैं?
सबसे पहली बात कि मैं योजना बनाकर लिखता नहीं हूं. दूसरी बात यह है कि इन दिनों मैं लेखन और जीवन दोनों से उदासीन हो गया हूं. कभी कोई आग भड़की, तो जरूर लिखूंगा. लैटिन अमेरिकी लेखक गिलियानो बड़े रचनाकार थे, वे स्पेनिश में लिखते थे. एक बार किसी ने उनसे पूछा कि मान लीजिए, आपके घर में आग लगी हो, तो वह कौन-सी चीज है जिसे आप सबसे पहले बचाना चाहेंगे? तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं सबसे पहले आग को बचाना चाहूंगा. तो आप समझ सकते हैं कि लेखन के लिए आग कितना महत्वपूर्ण है.
बातचीत : पुष्यमित्र

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