विनय सौरभ
आज भी अपने गांव नोनीहाट (दुमका जिला) जाता हूं, तो रविवार या गुरुवार को लगने वाली हाट जरूर जाता हूं. ग्रामीण हाटों से सब्जियां खरीदना मुझे आज भी बहुत पसंद है. वह ऐसी ही रविवार की एक हाट थी. मैं सब्जियों का झोला लिए घर लौट रहा था. गर्मियों की वह शाम भुलाये नहीं भूलती!
रास्ते में सात-आठ साल के बच्चे की उंगली थामे, एक हाथ में झोला और छाता लिए एक आदिवासी बुजुर्ग ने मुझे टोका – अरे विनय कैसे हो? कहां रहते हो बाबू आजकल?
मैंने उन्हें देखा और जवाब में कहा कि आपको पहचाना नहीं. वे ठिठक गये. मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर संकोच का भाव घिर आया. कहा- ‘अच्छा कोई बात नहीं, जाओ.’ और वे आगे बढ़ गये.
मैं मन-ही-मन उस आदिवासी बुजुर्ग को पहचानने की कोशिश करता हुआ घर लौट रहा था. घर आते-आते अचानक एक चेहरा स्मृतियों में कौंधा- अरे, हांसदा सर!
वे हासदा सर ही थे! हमारे रानी सती हाइ स्कूल, नोनीहाट (दुमका) के बेहद संकोची और कम बोलने वाले समाज विज्ञान के शिक्षक!
मैं अपराधबोध से भर गया. शर्म से भरा हुआ, उल्टे पांव हाट की ओर भागा. हाट में उन्हें तलाशने की कोशिश की. वे नहीं मिले. मेरी वह रात बेचैनियों के बीच गुजरी. सुबह हुई, तो उनके घर गया, जो नोनीहाट के सीमांत पर एक आदिवासी टोले में था. स्कूल के दिन 10 साल से ज्यादा पीछे छूट चुके थे. मैं उस आदिवासी टोले में भी कई सालों के बाद गया था. पता करता हुआ हांसदा सर के घर पहुंचा. उनका बेटा मिला, जो कभी हमारा सहपाठी भी था. उसे देख कर खुशी हुई. उसने पूछा कैसे आना हुआ?
साफ-सुथरे गोबर से ताजा लिपे हुए आंगन में खाट पर बैठा मैं बीते शाम की घटना और हांसदा सर के आहत मन के बारे में सोच रहा था. मन में था कि सर के पांव छूऊंगा और माफी मांग लूंगा.
उनके बेटे ने मुझे पानी का गिलास देते हुए कहा कि बाबूजी तो आज सुबह की गाड़ी से मसलिया चले गये. मैं अफसोस से भरा लौट आया. नोनीहाट जाने पर एक-दो बार फिर उनके घर गया, लेकिन वे कहीं बाहर थे.
फिर एक दिन उनके न रहने की खबर मिली. यह खबर भी पुरानी हो चुकी थी. छह महीने पुरानी! मैं कचोट और आत्मग्लानि से भर गया! एक शिक्षक ने स्कूल छोड़ने के कई सालों के बाद भी उम्र की ढलती हुई बेला में अपने छात्र को याद रखा था! और मैं…!
कुछ घटनाएं, कुछ अफसोस जीवनभर आपका पीछा करते हैं. आप कभी उन से मुक्त नहीं हो पाते. मैं आज भी अपने इस अपराध बोध से पीछा नहीं छुड़ा पाया. उनका यह कहना कि ‘अच्छा कोई बात नहीं,जाओ’ मेरे अंतर्मन पर आज भी फांस की तरह अटका है.अपनी स्मृतिहीनता पर खीझ होती है, मगर अब कुछ नहीं किया जा सकता. जीवन में कुछ अवसर सिर्फ एक बार आते हैं और हम चूक जाते हैं.
मैं उन को आहत करने के अपने अपराधबोध से कभी नहीं ऊबर पाऊंगा. जब भी यह घटना याद आती है, एक मलाल, एक अफसोस साये की तरह साथ लिपटा मिलता है. उस रोज हांसदा सर को हाट में नहीं ढूंढ़ सका था. फिर अनंत की यात्रा में उनके निकलने से पहले भी उन्हें नहीं ढूंढ़
पाया …..!
अब इस वाकये के भी बीस साल गुजर गये हैं!

