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राजनीतिक शत्रुता के दौर में आर्थिक जनतंत्र के उद्गाता

तरुण विजय वरिष्ठ नेता, भाजपा राजनीतिक शत्रुताओं और वैचारिक अस्पृश्यताओं के इस दौर में पार्टियां नेतृत्व की वैचारिक परिपक्वता या लीक थोड़े ही बताती हैं. वे सिर्फ मुखिया के नाम से जानी जाती हैं. जो वे कह दें, वही सत्य वचन. सर झुकाए मानो, वर्ना खेत रहो. ऐसे में हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताओं […]

तरुण विजय
वरिष्ठ नेता, भाजपा
राजनीतिक शत्रुताओं और वैचारिक अस्पृश्यताओं के इस दौर में पार्टियां नेतृत्व की वैचारिक परिपक्वता या लीक थोड़े ही बताती हैं. वे सिर्फ मुखिया के नाम से जानी जाती हैं. जो वे कह दें, वही सत्य वचन. सर झुकाए मानो, वर्ना खेत रहो. ऐसे में हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताओं को याद ही क्यों करें? बगीचे, अस्पताल और सड़कें उनके नाम पर बनवा देते हैं, इतना काफी न होगा क्या?
उन्हें याद इसलिए करना चाहिए कि हमारे देश में सामान्य लोग अभी भी अच्छे हैं. दीनदयाल उपाध्याय की याद इसलिए भी जरूरी है कि जाति के कुचक्री भेदभाव से परे लोग जीना चाहते हैं- कोई पार्टी दम के साथ उठे तो सही. अगर जीतना ही जिंदगी की एकमात्र कसरत है, तो हारनेवाले महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ खड़े दिखेंगे, आपके साथ नहीं. कहीं तो जिद हो, खूंटा गड़े.
दीनदयाल उपाध्याय के लोकतांत्रिक स्वभाव को याद करना इसलिए भी जरूरी है, ताकि वह मानने का माद्दा मन में पैदा हो कि तुम्हारे अलावा भी लोग अच्छे होते हैं, भले ही वे न हमारी भाषा बोलते हों और न ही हमारे झंडों या मुहावरों से सहमत हों. जो लकीरें हमने अपने इर्दगिर्द खींची हैं, उनसे परे जार्ज या डी राजा या ज्योतिरादित्य की बातों में भी कुछ अच्छाई ढूंढ़ने से हमारा कद कम नहीं हो जाता.
पोल नंबर 1278
पिछले सप्ताह मैं मुगलसराय गया था, जहां 11 फरवरी, 1968 को दीनदयाल ने अंतिम सांसें ली थीं. नगर के अनेक कार्यकर्ता मिले. सामान्य जन का मन आज भी उनकी स्मृतियों से बंधा है.
मुगलसराय स्टेशन पर प्लेटफाॅर्म दो से ट्रैक्शन पोल 1278 की तरफ पांव बढ़ना नहीं चाहते थे. मानो जड़ हो गये हों. दूर अंधेरे से सियालदह एक्सप्रेस के इंजन की चीख-सी सुनायी पड़ रही थी. रात 2.10 बजे, इकतालीस साल पहले 11 फरवरी को ठीक इसी पोल के नीचे लेटे मिले थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय. पोल नं 1278 आज भी वहीं है.
दीनदयाल जी की देह तो कई घंटे तक पहचानी नहीं गयी थी. चार दशक बीत गये, पर हवा में थरथराहट आज भी महसूस की जा सकती है. उस पोल पर किसी करूणार्द्र स्वयंसेवक ने लाल स्याही से बांके तिरछे अक्षरों में 1968 में कुछ लिख दिया था- जो आज भी धुंधला-सा पढ़ा जा सकता है.
अमरजीत फोटो उतारने लगा, तो आंखें पढ़ने से इनकार करने लगीं. लाल स्याही की इबारत वाला स्मारक? स्टेशन पर उनकी पार्थिव देह पड़ी रही थी, उन्हीं की धोती में बंधी. सुबह साढ़े आठ-नौ बजे पहचान हुई. पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के महामंत्री और एकात्म मानववाद के प्रणेता रहस्यमयी परिस्थिति में रेल की पटरियों के पास मृत पाये गये. सब चिल्लाये कि हत्या हुई है, पर होना क्या था? कुछ लोग, तीन, पकड़े भी, मुकद्दमा चला जिला सत्र न्यायालय में, लेकिन सब छूटछाट गये. केस फाइल क्लोज्ड. मामला वहीं बंद.
दीनदयाल के प्रति श्रद्धा
अब कागज, फाइलें, किताबें और मूर्तियां. गुरुबख्श कपाही सत्तर के हो गये, संघचालक हैं. कहते हैं, अब यहां कौन आयेगा? सारे कार्यक्रम दिल्ली और लखनऊ में हो जाते हैं. दीनदयाल नगर, स्वयंसेवक व श्रद्धालु मुगलसराय को इसी नाम से पुकार कर आत्मीयता जताते हैं.
इस नगर में दीनदयाल जी के नाम पर एक वाचनालय और उद्यान बनवाया था स्थानीय नगरपालिका ने. तब उनके अध्यक्ष मुसाफिर चौहान बसपा के नेता थे, पर दीनदयाल के प्रति श्रद्धा पुरानी थी. मूर्ति है, पर वाचनालय में कुछ नहीं है. वहां मिले बिंद भैया. माली हैं. चित्र खींचते हुए मन रेल की पटरी हुआ जा रहा था. शहर में जो दीनदयाल जी की मूर्ति है, उसके बारे में कुछ न जाये, तो स्मृति दिवस ठीक से मना पायेंगे.
श्रम तथा सहयोग राष्ट्र जीवन का आधार
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र के नागरिकों के प्रति कर्तव्य की व्याख्या की और कहा, ‘प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करे, उसे सुदृढ़ एवं स्थायी बनाने का प्रयत्न करे, जिसके अंतर्गत वे अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए समृद्ध, सोद्देश्य एवं सुखी समाज के संगठन में सचेष्ट रह सकें.
स्वतंत्रता के बाद जन-मन में यह सहज आकांक्षा जागी और यह अपेक्षा की गयी थी कि सदियों से परतंत्र, अत: संघर्षरत राष्ट्र अब अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त कर अपने घर का नव-निर्माण कर सकेगा.’ राजनीतिक क्षेत्र में सक्रियता का उद्देश्य लोकतंत्र को मजबूत करते हुए राष्ट्र-जन को सुखी एवं समृद्ध बनाना है. अपने ऐतिहासिक कथन में पंडित दीनदयाल जी ने कहा था कि, ‘अज्ञान, अभाव तथा अन्याय की परिसमाप्ति और सुदृढ़, समृद्ध एवं सुखी राष्ट्र-जीवन का शुभारंभ सब द्वारा स्वेच्छा से किये जानेवाले कठोर श्रम तथा सहयोग पर निर्भर है. यह महान कार्य राष्ट्र-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नये नेतृत्व की अपेक्षा रखता है. भारतीय जनसंघ का जन्म इसी अपेक्षा को पूर्ण करने के लिए हुआ है.’
समाज हित में कार्य करने की प्रेरणा
जनतंत्र का मूल उद्देश्य ही है व्यक्ति का सर्वांगीण विकास और इसके लिए यह समझना आवश्यक है कि व्यक्ति केवल हाड़-मांस का पुतला नहीं है. उनका कथन है- ‘व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है.
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में चारों का ध्यान रखना होगा. चारों की भूख मिटाये बिना व्यक्ति न तो सुख का अनुभव और न अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है. भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति आवश्यक है. आजीविका के साधन, शांति ज्ञान एवं तादात्म्य भाव से ये भूखें मिटती हैं. सर्वांगीण विकास की कामना ही व्यक्ति को समाज-हित में कार्य की प्रेरणा देती है.’
धर्मराज्य किसी व्यक्ति अथवा संस्था को सर्वसत्ता-संपन्न नहीं मानता. सभी नियमों और कर्तव्यों से बंधे हुए हैं. कार्यपालिका, विधायिका और जनता सबके अधिकार धर्माधीन हैं. निरंकुश और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को रोकने तथा लोकतंत्र को स्वच्छंदता में विकृत होने से बचाने में धर्मराज्य ही समर्थ है. राज्यों की अन्य कल्पनाएं अधिकारमूलक हैं, किंतु धर्मराज्य कर्तव्य प्रधान है. फलत: इसमें अपने अधिकारों से असंतोष, अधिकार रूढ़ होने पर कर्तव्यों की उपेक्षा, अधिकार मद, विभिन्न अधिकारों के बीच संघर्ष इन सबके लिए कोई गुंजाइश नहीं है.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों के चंद मोती
आदर्श या मातृभूमि के बिना इस देश का अस्तित्व नहीं है
भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते हैं. मानवीय और राष्ट्रीय दोनों तरह से, यह आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें. चूंकि धर्म सर्वोच्च है, हमारे राज्य के लिए आदर्श ‘धर्म का राज्य’ होना चाहिए. देश ऐसे लोगों का समूह है, जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते है और इस धरती के टुकड़े को मातृभूमि के रूप में देखते हैं. यदि आदर्श या मातृभूमि इन दोनों में से कोई एक भी नहीं है, तो इस देश का अस्तित्व नहीं है.
धर्म की अवधारणा का आत्मसात जरूरी
धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है, जो समाज को बनाये रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है. समाज को हर व्यक्ति को ढंग से शिक्षित करना होगा, तभी वह समाज के प्रति दायित्वों को पूरा करने में करने सक्षम होगा. जीवन में विविधता और बहुलता है, लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है. धर्म के मूल सिद्धांत शाश्वत और सार्वभौमिक हैं. हालांकि , उनका क्रियान्वन समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग हो सकता है.
भारत नहीं, भारत माता है राष्ट्रीयता का आधार
हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिये, तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा. आजादी सार्थक तभी हो सकती है, जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाये. जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं- राजनीतिक और आर्थिक, तो परिणामस्वरूप धर्म की गिरावट होती है. भगवान ने हर आदमी को हाथ दिये हैं, लेकिन इन हाथों की खुद से उत्पादन करने की एक सीमित क्षमता है. उनकी सहायता के लिए मशीनों के रूप में पूंजी की जरूरत है.
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
संस्कृति का सार
एक बीज, जड़ों, तानों, शाखाओं, पत्तियों, फूलों और फलों के रूप में अभिव्यक्त होता है. इन सभी के अलग-अलग रूप, रंग और गुण होते हैं. फिर भी हम बीज के माध्यम से उनकी एकता के संबंध को पहचानते हैं. संघर्ष सांस्कृतिक स्वभाव का एक संकेत नहीं है, बल्कि यह उनके गिरावट का एक लक्षण है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (मानव प्रयास के चार प्रकार) की लालसा व्यक्ति में जन्मगत होती है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है.
एकात्म मानववाद ही भारत का राजनीतिक दर्शन
मानवीय स्वभाव में दोनों प्रवृतियां हैं– क्रोध और लालच एक हाथ पर, तो दूसरे पर प्यार और बलिदान. विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची-बसी हुई है. हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया. वहीं डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों का मूलभूत एकात्म देखा है.
समाज तथा व्यक्ति में परस्पर विरोध नहीं
समाज और व्यक्ति में परस्पर संघर्ष अवनति का कारण है और संस्कृति का ह्रास इसी कारण होता है. पाश्चात्य चिंतक संघर्ष को ही प्रगति का कारक मानने की भूल करते हैं. ऐसा ही वर्ग संघर्ष के लिए उनका मानना है. समाज में वर्ग विद्यमान रहता है और जाति भी. इसीलिए वर्ग और जाति भेद चलता रहता है. विराट पुरुष ने सिर के लिए ब्राह्मण, हाथों के लिए क्षत्रिय, निचले अंगों के लिए वैश्य तथा पैरों के लिए शुद्रों का सृजन किया. यदि हम इसे स्वीकार करें, तो हमें देखना होगा कि सिर, हाथों, पेट तथा पैरों में संघर्ष हो सकता है. लेकिन ऐसा नहीं है.
स्वयं की उपेक्षा ही हमारी समस्याओं की जड़ें हैं
यह अनिवार्य है कि हम अपने राष्ट्र की पहचान के संबंध में विचार करें. इस पहचान के बगैर कुछ भी अर्थ नहीं है. केवल स्वतंत्रता खुशहाली एवं प्रगति का स्रोत बन सकती. जब तक हम अपनी राष्ट्रीय पहचान के संबंध में जागरूक नहीं होंगे, तब तक हम अपनी सभी संभावनाओं का विकास नहीं कर सकते. विदेशी शासन में इस पहचान का उन्मूलन हो जाता है. इसलिए राष्ट्र स्वतंत्र रहने के इच्छुक होते हैं, ताकि वे प्राकृतिक स्वरूप के अनुभव, विकास एवं अपने प्रयासों में तेजी ला सकें. भारत के सामने समस्याएं आने का प्रमुख कारण, अपनी ‘राष्ट्रीय पहचान’ की उपेक्षा है.

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