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गंभीर संकट में पेशेवर शिक्षा

शिक्षा और नवोन्मेष का गला घोंटते फर्जी संस्थान फर्जी शिक्षण संस्थानों का फैलता जाल देश में फर्जी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के फैलते जाल ने लाखों छात्रों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है. शिक्षा के नाम पर हो रही इस धोखाधड़ी को अगर समय रहते राेका नहीं गया, तो देश की शिक्षा-व्यवस्था की जड़ें […]

शिक्षा और नवोन्मेष का गला घोंटते फर्जी संस्थान

फर्जी शिक्षण संस्थानों का फैलता जाल

देश में फर्जी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के फैलते जाल ने लाखों छात्रों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है. शिक्षा के नाम पर हो रही इस धोखाधड़ी को अगर समय रहते राेका नहीं गया, तो देश की शिक्षा-व्यवस्था की जड़ें हिल जायेंगी और पहले से ही पेशेवरों की कमी से जूझते देश में विशेषज्ञों का अकाल पड़ जायेगा.

यूजीसी ने जारी की फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची

यूजीसी समय-समय पर फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी करता है. इस वर्ष अप्रैल में भी उसने ऐसे ही 24 विश्वविद्यालयों की सूची जारी की है. इस सूची के अनुसार उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक आठ फर्जी विश्वविद्यालय हैं, जबकि दिल्ली के सात, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के दो-दो, बिहार, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र व ओडिशा के एक-एक विश्वविद्यालय इस सूची में शामिल हैं.

राजधानी दिल्ली के फर्जी विश्वविद्यालय

कॉमर्शियल यूनिवर्सिटी लिमिटेड, दरियागंज, दिल्ली

यूनाईटेड नेशंस यूनिवर्सिटी, दिल्ली

वोकेशनल यूनिवर्सिटी, दिल्ली

एडीआर-सेंट्रिक ज्यूरिडिकल यूनिवर्सिटी, नयी दिल्ली

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड इंजीनियरिंग, नयी दिल्ली

विश्वकर्मा ओपन यूनिवर्सिटी फॉर सेल्फ एंप्लॉयमेंट, दिल्ली

आध्यात्मिक विश्वविद्यालय, दिल्ली

दिल्ली में 66 जाली

इंजीनियरिंग कॉलेज

पिछले महीने लोकसभा में पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह द्वारा पेश किये गये आंकड़े के अनुसार देशभर में चल रहे इंजीनियरिंग कॉलेजों में 277 जाली हैं. ये कॉलेज अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् यानी एआईसीटीई से स्वीकृति लिये बिना ही तकनीकी शिक्षा मुहैया करा रहे हैं. इन कॉलेजों में 66 अकेले देश की राजधानी दिल्ली में संचालित किये जा रहे हैं. वहीं, तेलंगाना में 35, पश्चिम बंगाल में 27, कर्नाटक में 23, उत्तर प्रदेश में 22, हिमाचल प्रदेश में 18, बिहार में 17, महाराष्ट्र में 16, तमिलनाडु में 11, गुजरात में आठ, चंडीगढ़ व आंध्र प्रदेश में सात-सात, पंजाब में पांच और उत्तराखंड व राजस्थान में तीन-तीन जाली इंजीनियरिंग काॅलेजों का संचालन किया जा रहा है.

जिम्मेदार व्यक्तियों पर हो सख्त कार्रवाई

देशभर में इंजीनियरिंग के सैकड़ों फर्जी कॉलेज होने की खबर मुझे आश्चर्यचकित नहीं करती. मैं ही क्या, देश में बहुत लोग हैं, जो इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि यह सब अंदरखाने चलता रहता है और लोग फर्जी तौर पर शैक्षिक संस्थान चला रहे हैं. विडंबना यह है कि ऐसे लोगों पर सख्ती से कोई कार्रवाई नहीं होती. जिस देश में वाइस चांसलर (वीसी) तक की डिग्रियां फर्जी पायी जाती हैं, वहां इस बात का अंदाजा लगाना आसान है कि यहां क्याें फर्जी संस्थानों का जाल बिछा हुआ है. शिक्षा के क्षेत्र में नैतिकता का होना बहुत आवश्यक है, जो आज कहीं दिख नहीं रही है.

और राजनीति के पास तो पहले से ही नैतिकता नहीं बची है. जाहिर है, बिना राजनीति के संरक्षण किये ऐसे फर्जी संस्थान चल ही नहीं सकते. इसका नुकसान यह होता है कि जो लोग शिक्षा में अच्छा काम करनेवाले हैं, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं और इसलिए ऐसे मामलों को देखते-समझते हुए भी मजबूरी में आकर अनदेखी करते हैं. इस तरह से शिक्षा माफिया पैदा होते हैं, जो देश की शिक्षा को बरबाद करते हैं.

आज देशभर में जितने भी फर्जी कॉलेज हैं, या वैध कॉलेजों में जो इंतेहाई कमियां हैं, इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारी शिक्षा-व्यवस्था के प्रोफेसर और डॉक्टर ही हैं. मसलन, जब एक मेडिकल कॉलेज खोले जाने की प्रक्रिया शुरू होती है, तब उसके निरीक्षण के लिए यही प्रोफेसर और डॉक्टर जाते हैं, जो अक्सर ही बिना निरीक्षण किये किसी लालच में फंसकर रिपोर्ट बना देते हैं कि वहां सारी सुविधाएं मौजूद हैं. बाद में भेद खुलता है कि वह कॉलेज फर्जी निकला. यहां उस कॉलेज के खिलाफ तो कार्रवाई होनी ही चाहिए,

उसका निरीक्षण करने और रिपोर्ट बनानेवाले डॉक्टरों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए. फर्जी कॉलेजों की वजह से सिर्फ शिक्षा माफिया ही पैदा नहीं होते, बल्कि यह बड़े पैमाने पर एक ऐसे भ्रष्टाचार को भी जन्म देता है, जो समाज में भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है. यहीं से परीक्षाओं में नकल को भी बढ़ावा मिलता है और डिग्रियाें की खरीद-फरोख्त होने लगती है. इन फर्जी संस्थाओं में मोटी-मोटी फीस लेकर भी कुछ नहीं सिखाते और डिग्रियां दे देते हैं. ऐसे में ये बच्चे किसी भी स्तर पर पेशेवर नहीं बन पाते और ये आंकड़े पैदा करते हैं कि इतने प्रतिशत इंजीनियरिंग पास किये युवा किसी काम के लायक नहीं हैं. इस तरह से युवाओं को बरबाद करनेवाला यह एक बड़ा भ्रष्टाचार है.

फर्जी कॉलेज और नाकाबिल डिग्रीधारी युवाओं की खबरों से पूरी दुनिया में भारत की शिक्षा की भद्द पिटती है और कंपनियां यहां के लोगों को काम देने से डरती हैं. जाहिर है, अगर घर-समाज में चोरियां बढ़ें, तो इसका उपाय संभव है. लेकिन अगर शिक्षा-व्यवस्था में घुन लग जाये, तो इससे पीढ़ियां बरबाद होती हैं. डॉ राधाकृष्णन कहते थे- ‘जिसको जो काम आता हो, उसे वही करना चाहिए.’ कहने का तात्पर्य यह है कि अगर किसी वीसी की डिग्री फर्जी निकलती है, तो इसका सीधा अर्थ यह है कि उसका पठन-पाठन से कोई संबंध नहीं है. इसी तरह से फर्जी कॉलेज भी शिक्षा लेकर जागरूक नहीं हैं,

बल्कि शिक्षा को पैसे कमाने का जरिया बना चुके हैं. यह एक गंभीर समस्या है, इसलिए इसका उपाय जरूरी है. इस हालत को सुधारने का उपाय यही है कि फर्जी पाये गये कॉलेजों को शुरू करते वक्त उन जगहों और सुविधाओं का निरीक्षण करने गये आधिकारिक व्यक्तियों पर सख्त कार्रवाई हो, ताकि निकट भविष्य में ऐसी स्थिति न बनने पाये. दूसरी बात यह है कि शिक्षा नियामक संस्थाओं पर निगरानी बढ़े, ताकि उन पर शिक्षा-व्यवस्था को दुरुस्त रखने की जिम्मेदारी बन सके.

प्रो जगमोहन सिंह राजपूत

पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी

फर्जी कॉलेज और नाकाबिल डिग्रीधारी युवाओं की खबरों से पूरी दुनिया में भारत

की शिक्षा की भद्द पिटती है.

उच्च शिक्षा तंत्र के समक्ष चुनौतियां

1.85 करोड़ छात्र ही वर्तमान में उच्च शिक्षा क्षेत्र में पंजीकृत हैं. हाई स्कूल के बाद निकलने वाले छात्रों के पंजीकरण के लिए कॉलेज सिस्टम की संख्या पर्याप्त नहीं है. मांग और आपूर्ति की इस अभूतपूर्व समस्या जैसी स्थिति दुनिया में कहीं नहीं देखी जा सकती है.

उच्च शिक्षा के सामने कम पंजीकरण दर, असमान पहुंच, खराब बुनियादी ढांचा और अप्रासंगिक व्यवस्था जैसी तमाम चुनौतियां हैं.

देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा, शोध और अभिनव कौशल की स्थिति अंतरराष्ट्रीय समुदाय के मानकों पर खरी नहीं उतरती.

शिक्षा और रोजगारोन्मुखता के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है. कॉलेजों से निकलनेवाले ज्यादातर छात्र नियोक्ताओं की मांग के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाते. स्किल का अभाव रोजगार हासिल करने की दिशा में सबसे बड़ी

बाधा है.

उच्च शैक्षणिक संस्थानों में एक अनुमान के मुताबिक शिक्षक संविदा पर सेवाएं दे रहे हैं. लंबे समय तक संविदा पर काम करनेवाले शिक्षकों के प्रदर्शन असंतोषजनक होते हैं, जिससे गुणवत्ता और शोध दोनों प्रभावित होते हैं.

नये शैक्षणिक और पुराने कार्यरत संस्थानों में शैक्षणिक गुणवत्ता का सतत मूल्यांकन का अभाव बड़ा कारण है.

देश में 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग की आबादी 23.4 करोड़ है. अगर भारत को वर्ष 2020 तक 30 प्रतिशत निर्धारित सकल पंजीकरण अनुपात के लक्ष्य को हासिल करना है, तो उच्च शिक्षा में 2020 तक करीब चार करोड़ छात्रों का पंजीकृत होना अनिवार्य है.

विश्वविद्यालयों में नवाचार बढ़ाने

पर जोर देना जरूरी

शोध को बढ़ावा देने के लिए केवल नियमन करने के बजाय स्वायत्तता देने, वित्तीय मदद देने और कार्यशैली में सुधार की दिशा में काम करना होगा.

गुणवत्ता सुधार के लिए हैकाथॉन, करिकुलम रिफॉर्म और ‘स्वयं’ (फ्री ऑनलाइन लर्निंग) द्वारा शिक्षण और शिक्षकों का प्रशिक्षण जैसे प्रयास प्रभावी तरीके से लागू किया जाने चाहिए.

अगर भारत को विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय तैयार करना है, तो नये शोधकर्ताओं को प्रोत्साहित करना होगा.

मल्टी डिसिप्लिनरी रिसर्च यूनिवर्सिटी की स्थापना और प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के लिए अलग से कार्ययोजना तैयार करनी होगी.

बेहतर और प्रतिभावान शिक्षकों को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित करना होगा.

मौजूदा मांग और भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए बड़े और कारगर बदलाव की व्यापक कार्ययोजना तैयार करनी होगी.

बेहद खराब शिक्षण व्यवस्था से पीड़ित हैं ज्यादातर छात्र

नॉलेज और स्किल पर फोकस करने के बजाय सिलेबस को जैसे-तैसे पूरा कर परीक्षाओं को पास करने पर जोर रहता है. ट्यूशन फैक्टरी से निकले अधिकतर छात्र तथ्यों और सैद्धांतिक समझ से कोसों दूर होते हैं. छात्रों की किताबी ज्ञान पर निर्भरता हो चुकी होती है. यही वजह है कि रचनात्मकता और नवाचार जैसी चीजें तेजी से खत्म होती जा रही हैं. प्रॉब्लम सॉल्विंग स्किल, लॉजिकल रीजनिंग, लैंग्वेज कांप्रिहेंसन, जनरल नॉलेज और डेटा इंटरप्रिटेशन जैसे स्किल का बड़ा अभाव युवाओं को अच्छा कैरियर बनाने की राह में सबसे बड़ी बाधा है.

सरकारी अनुदान का

असमान बंटवारा

आईआईटी, आईआईएम और एनआईटी जैसे संस्थानों में देश के महज तीन फीसदी छात्र पढ़ते हैं, पर इन्हें केंद्र सरकार के अनुदान का 50 फीसदी हिस्सा हासिल होता है. उच्च शिक्षा के अन्य 865 संस्थानों को बाकी रकम मिलती है. इनमें 97 फीसदी छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. इन संस्थाओं में आधे ही सार्वजनिक अनुदान से चलते हैं तथा इनमें प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और 10 आईआईएसईआर भी शामिल हैं. सरकारी आवंटन का आधा भाग 97 आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम और आईआईआईटी को चला जाता है. मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी आवंटन का 26.96 फीसदी हिस्सा आईआईटी को मिलता है

जहां सिर्फ 1.18 फीसदी छात्र हैं. एनआईटी के खाते में 17.99 फीसदी धन जाता है, जहां 1.37 फीसदी छात्र शिक्षा पा रहे हैं. आईआईएम को 3.35 फीसदी भाग मिलता है जिनके छात्रों की संख्या 0.12 फीसदी है. आईआईआईटी में 0.05 फीसदी छात्र हैं और इनका आवंटन में हिस्सा 2.28 फीसदी है. बची हुई 48.9 फीसदी धनराशि 865 संस्थाओं को दी जाती है जिनके छात्रों की तादाद 97.4 फीसदी है. शिक्षाविदों और नीति-निर्धारकों का मानना है कि सरकार के इस असमान रवैये से शिक्षा प्रणाली में ऊंच-नीच का हिसाब बन गया है. यह राय भी है कि केंद्र ने संस्थाओं की बढ़ती संख्या के अनुरूप अपनी नीति में बदलाव नहीं किया है.

200 इंजीनियरिंग कॉलेज

हो सकते हैं बंद

कम गुणवत्ता वाले इंजीनियरिंग कॉलेजों की वजह से हमारे देश में इंजीनियरिंग शिक्षा बुरी स्थिति से गुजर रही है. आईआईटी और कुछ अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़कर अधिकांश इंजीनियरिंग संस्थानों की पढ़ाई दोयम दर्जे की है. यही कारण है कि यहां से पास होकर निकलने वाले इंजीनियरों को बेहतर नौकरी नहीं मिल पाती है, लेकिन जैसे-जैसे सच्चाई सामने आ रही है, कम गुणवत्ता वाले कॉलेज बंद होते जा रहे हैं.

200 ऐसे इंजीनियरिंग कॉलेजों को एआईसीटीई बंद कर सकती है, जो गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने में असफल रहे हैं. इन कॉलेजों के बंद हो जाने से इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकरीबन 80,000 सीटें कम हो जायेंगी. चार वर्ष में यह आंकड़ा बढ़कर 3.1 लाख तक पहुंच सकता है, अखिल भारतीय तकनीकी परिषद् (एआईसीटीई) के अनुसार.

75,000 इंजीनियरिंग सीटें घट रही हैं प्रतिवर्ष, एआईसीटीई के अनुसार. सीटों में कमी आने का यह सिलसिला 2016 से शुरू हुआ है.

7,87,127 विद्यार्थियों ने 2016-17 के दौरान अंडरग्रेजुएट लेवल कोर्स में प्रवेश लिया था, जबकि कॉलेज की कुल क्षमता 15,71,220 थी. इस प्रकार इस सत्र में महज 50.1 प्रतिशत सीटें ही भर पायीं थीं.

8,60,357 इंजीनियरिंग सीटें ही भर पायी थीं अंडरग्रेजुएट लेवल पर वर्ष 2016-17 सत्र में, जबकि कुल सीटें 16,47,155 थीं. इस लिहाज से देखें तो महज 52.2 प्रतिशत सीटों पर ही विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया इस सत्र में.

800 इंजीनियरिंग कॉलेजों को बंद करना चाहती है एआईसीटीई, क्योंकि प्रतिवर्ष इन कॉलेजों में प्रवेश लेनेवाले विद्यार्थियों की संख्या कम होती जा रही है.

150 इंजीनियरिंग कॉलेज एआईसीटीई के कड़े नियमों के कारण स्वैच्छिक रूप से प्रतिवर्ष बंद होते जा रहे हैं.

410 से अधिक कॉलेजों को एआईसीटीई ने बंद करने की मंजूरी प्रदान दी 2014-15 से 2017-18 के दौरान.

3,291 इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकरीबन सात लाख सीटें खाली रह गयी थीं 2016-17 सत्र में.

83 इंजीनियरिंग संस्थानों के बंद करने की अर्जी एआईसीटीई के पास है, जिससे 24,000 सीटें कम होंगी.

494 कॉलेजों ने अपने यहां अंडरग्रेजुएट व पोस्टग्रेजुएट कोर्स बंद करने की मंजूरी के लिए एआईसीटीई के पास आवेदन भेजे हैं. इन कॉलेजों के बंद होने से 42,000 सीटें कम हो जायेंगी इन कोर्सेस में.

639 संस्थानों ने विद्यार्थियों के दाखिले में कमी आने के कारण एआईसीटीई से अपने यहां सीटें कम करने की अनुमति मांगी है, इस वजह से इन संस्थानों में 62,000 सीटें एक साथ कम हो जायेंगी.

82 मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पर रोक

भारत सरकार द्वारा शैक्षणिक सत्र 2018-19 में 82 मेडिकल कॉलेजों पर नये विद्यार्थियों के प्रवेश लेने पर रोक लगा दी गयी हैै. इस संबंध में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने मई में घोषणा की थी. सरकार ने जिन मेडिकल कॉलेजों के प्रवेश प्रक्रिया पर रोक लगायी है, उनमें 12 सरकारी और 70 निजी मेडिकल कॉलेज हैं. सरकार के इस कदम से 10,000 से 12,000 एमबीबीएस की सीटें कम हो जायेंगी. इतना ही नहीं, सरकार ने 31 सरकारी व 37 निजी मेडिकल कॉलेजों समेत कुल 68 नये मेडिकल कॉलेज खोलने को स्वीकृति देने से मना कर दिया. सरकार का यह फैसला भारतीय चिकित्सा परिषद् के मूल्यांकन के बाद अाया है.

50 प्रतिशत वकीलों के पास फर्जी डिग्री!

बीते साल बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के तत्कालीन प्रमुख मनन कुमार मिश्रा ने मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर और उच्चतम न्यायालय के दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीशों के सामने फर्जी वकीलों को मामला उठाते हुए कहा था कि इसकी संख्या 50 से 60 प्रतिशत तक हो सकती है. मिश्रा ने 2012 के बीसीआई चुनाव आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था कि चुनाव के पहले लगभग 14 लाख मतदाता थे, लेकिन सत्यापन प्रक्रिया आरंभ होने के बाद काउंसिल को केवल 6.5 लाख आवेदन ही प्राप्त हुए. बीसीआई चुनाव में केवल वे ही लोग मतदान कर सकते हैं, जिन्होंने विभिन्न राज्य बार काउंसिल में लॉ प्रैक्टिस के लिए अपना नामांकन करवाया हुआ है. ये आंकड़े ये बताने के लिए काफी हैं कि अदालत में प्रैक्टिस करनेवाले इन 50 से 60 प्रतिशत वकीलों के पास या तो फर्जी डिग्री है या फिर इनके पास कोई डिग्री ही नहीं है.

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